ईमानदारी

ईमानदारी

एक बार की बात है| उज्जैन से झालरापाटन शहर में एक बारात आई थी| पूरे गाजे-बाजे के साथ बारात श्री लालचन्द मोमियां के यहाँ जा रही थी|

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बारात की धूमधाम में दूल्हे के गले में पड़ा जड़ाऊ हार अचानक खिसककर सड़क पर जा गिरा| सांझ के झुटपुटे में बारात में से किसी की नजर उस हार पर नहीं पड़ी| इसी दौरान अपने कुछ साथियों के साथ खेल खेलता हुआ एक बालक जगमोहन प्रसाद माथुर वहाँ जा पहुँचा| उसकी निगाह उस जड़ाऊ हार पर पड़ी| उसने उस हार को उठा लिया| उसने अनुमान किया कि अवश्य ही यह हार बारात में से किसी का होगा| उस हार को वह उसके मालिक तक पहुँचाने के लिए निकला| उसे उसके मित्रों ने बहुत मना किया, तरह-तरह के प्रलोभन दिए और वह हार उससे लेना चाहा|

बालक जगमोहन ने लालचन्द जी की दुकान पर जाकर वह हर दुकानवालों को सौंप दिया| दुकानवालों ने शीघ्र हार बारात वालों को दिखाया| उस समय तक वह महाशय को अपने हार के गिरने का पता ही नहीं था| सामने हार देखकर जब उनका हाथ गले पर गया, तब मालूम पड़ा कि गला खाली था| बालक की ईमानदारी से दूल्हे तथा बारातियों को बड़ी खुशी हुई| उन्होंने खुश होकर उसे एक रुपया इनाम में दिया|

बालक ने इनाम का रुपया घरवालों के हवाले कर दिया| और हार मिलने तथा लौटाने की पूरी घटना सुनाई| घरवाले पूरी बात सुनकर बहुत खुश हुए और लड़के से कहा- “बेटा| तुम जीवन-भर इसी तरह से ईमानदार बने रहना| पराए धन को सदा धूल समझना|” ईमानदारी ही अपने आप में सबसे बड़ा धन होती है|