हिरण का विवेक
रंगपुरी के निकटवर्ती जंगल में एक हिरण रहता था| उसे एक वृक्ष के फल बहुत अच्छे लगते थे| पास ही गाँव में एक शिकारी भी रहता था| वह यह बात जानता था|
एक दिन शिकारी शिकार खेलने के लिए सवेरे ही उठकर जंगल की ओर चल दिया| फिर उसने उसी पेड़ पर मचान बाँधा और हिरण की बाट जोहने लगा|
हिरण रोजाना की भाँति टहलता हुआ उधर आया| फल के पेड़ को देखते ही उसके मुहँ में पानी भर आया| तभी अचानक उसकी निगाह ज़मीन पर बने आदमी के पैरों के निशानों पर पड़ी, ‘ज़रूर आसपास कोई शिकारी मौजूद है, जो मेरा शिकार करने की ताक में है|’ हिरण ने सोचा|
उधर शिकारी ने हिरण को रुकते हुए देखा तो सोच में पड़ गया| फिर उसके दिमाग में विचार आया और उसने पेड़ से फल तोड़कर रास्ते में फेंकने शुरू कर दिए| उसने सोचा कि फलों के लालच में जब हिरण आगे बढ़ेगा तो वह उसे पकड़ लेगा|
लेकिन हिरण शिकारी की चालाकी ताड़ गया| उसे पेड़ की आड़ में बना मचान दिखाई दे गया था| फिर उसे एक तरकीब सूझी| उसने सोचा कि क्यों न मैं पेड़ से बात करूँ, फिर देखता हूँ क्या होता है?
‘अरे भाई पेड़, रोज़ तो तुम फल ज़मीन पर गिराते हो, आज मेरी तरफ़ क्यों फेंक रहे हो?’ हिरण बोला|
मगर उस तरफ़ से कोई आवाज़ नही आई|
‘भाई पेड़, जब तुमने अपनी रीति छोड़ दी तो मैं भी अपनी रीति छोड़ता हूँ| मैं किसी और पेड़ के फल खा लूँगा|’
उधर शिकारी ने सोचा कि मौका हाथ से निकला जा रहा है| अतः उसने हिरण कि ओर भाला फेंका, किंतु हिरण उसकी पहुँच से दूर निकल चुका था| वह चिल्लाता हुआ वहाँ से भाग निकला, ‘शिकारी, मैं तुम्हारी चाल को समझ गया था| फिर कभी किस्मत आजमाना|’
शिक्षा: नित्य किए जाने वाले कार्यों में यदि किसी प्रकार की विसंगति दिखे तो उसे अनदेखा नही करना चाहिए| उसके कारण की खोज करके तसल्ली होने पर ही कोई कदम बढ़ाना चाहिए| हिरण ने भी कुछ ऐसा ही किया| संकेत मिलने पर सचेत होने से बला टल जाती है|