गुरुभक्त के देवता भी सहायक
प्राचीन काल में चायमान अभ्यवर्ती और संजय के पुत्र प्रस्तोक नाम के दो परम प्रतापी, अत्यंत धर्मात्मा एवं परम उदार प्रजापालक राजा हुए है| दोनों के राज्य अत्यंत निकट एक-दूसरे से सटकर थे| दोनों की सीमाएँ एक-दूसरे से मिलती थी| दोनों के राज्यों में सदैव यज्ञ-होम, जप-तप, दान-दक्षिणा रुप धर्मानुष्ठान चलते रहते|
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राजा और प्रजाजनों के बीच ऐसा स्पृहणीय ऐकमत्य पाया जाता, जिसके कारण दोनों राज्य सभी प्रकार के धन्य-धान्य, शांति-सौमनस्य आदि से सर्वथा संपन्न थे| राज्य में किसी पर शासन करने की आवश्यकता ही न पड़ती| सभी अपने-आप में शासित थे| मात्र ब्रह्मा आक्रमण से बचने के लिए दोनों राज्यों का संयुक्त सुरक्षा-मोर्चा बनाया गया था, जिसका संचालन महाराज प्रस्तोक करते रहे|
असुर तो स्वभावतः धर्म-विद्वेषी और दूसरों की उन्नति को सहन न करने वाले होते ही है| दोनों राजाओं की यह सुख-समृद्धि और धर्मनिष्ठा वरशिख के पुत्र वारशिख असुरों से देखी नही गई, अतः उन्होंने पूरी तैयारी के साथ इन पर आक्रमण कर दिया| राजाओं का संयुक्त मोर्चा होते हुए भी असुर शत्रु इतने प्रबल थे कि अन्ततः उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा| असुर उनका बहुत सारा धन और अनेक दुर्लभतम वस्तुएँ उठा ले गए|
महाराज अभयावर्ती और प्रस्तोक इस दुःखद घटना से अत्यंत खिन्न हुए| क्या किया जाए, किस तरह असुरों से प्रतिशोध लिया जाए और अपनी संपदा वापस प्राप्त की जाए? यह उनके समक्ष यक्ष-प्रश्न रहा| सोचते-सोचते ध्यान में आया कि कुलगुरु भरद्वाज ऋषि के पास जाकर उनसे प्रार्थना की जाए; यदि वे संतुष्ट हुए और उनकी सहायता मिली तो निश्चय ही हमारा मनोरथ पूर्ण हो सकेगा|
फिर क्या था? शीघ्र ही महाराज अभ्यवर्ती और प्रस्तोक गुरु भरद्वाज ऋषि की सेवा में पहुँचे| अत्यंत नम्र हो सरस, भावभरी स्तुति के साथ उन्होंने अपने-अपने नामोच्चारण के साथ ऋषि का अभिवादन किया|
ऋषि ने स्वागत पूर्वक उन्हें आसन दिया| कुशल-वृत के पश्चात् आगमन का हेतू पूछने पर दोनों ने कहा- ‘ब्रह्मान्, वारशिख असुरों ने हमें बुरी तरह से हराया और हमारी कितनी ही बहुमूल्य सम्पदाएँ छीन ली है| आपसे यह छिपा नही है कि हम लोग शक्ति भर अपने प्रजा वर्ग के साथ पुत्रवत् व्यवहार करते आये है और सदैव धर्म पर अधिष्ठित रहते है| खेद हे कि फिर भी हमें यह पराजय झेलनी पड़ रही है|’
अपनी वेदना व्यक्त कर दोनों नरेशों ने अभीष्ट उपाय की प्रार्थना करते हुए कहा- ‘प्रभु! विचार-विमर्श के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि अब आप-जैसे गुरुजनों की कृपा के बिना उद्धार संभव नही| यदी आप इस कार्य में पुरोहित बनकर हमें बदल दे तो निश्चय ही हम पुनः शत्रु को जीत लेंगे| ‘क्षत्र’ वही है, जिसका निरंतर ब्रह्मतेज संगोपन किया करता है|’
ऋषि भरद्वाज ने कहा- ‘नृपतियों! आप लोग चिंता न करे| आनंद से घर पधारे| मैं आपका अभीष्ट पूर्ण किए देता हूँ|’
दोनों राजा ऋषि को प्रणाम कर वापस लौट गए|
भरद्वाज ऋषि ने अपने पुत्र पायु ऋषि को बुलाकर कहा कि ‘इन दोनों राजाओं को ऐसा बना दो कि कोई भी शत्रु इन्हें कभी पराजित ही न कर सके| मैं भी इंद्र देव से इन्हें सहायता देने के लिए प्रार्थना करूँगा|’
अध्यावर्ती और प्रस्तोक अपने-अपने राज्यों में लौटे तो सही, पर उन्हें चैन न थी| असुरों ने जिस प्रकार उनकी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी थी, वह रह-रहकर शल्य-सा चुभता रहता| यह शंका भी बनी रहती कि ये असुर पुनः आक्रमण न कर दे और इससे भी अधिक मूल्य चुकाने के लिए विवश न कर दे| अवश्य ही महर्षि भरद्वाज के कथन पर उन्हें विश्वास था, फिर उसके मन में आशंका बनी हुई थी|
एक दिन इसी चिंता में महाराज अध्यावर्ती प्रस्तोक के घर पहुँचकर परस्पर विचार कर रहे थे कि उन्हें दूर से अपनी ओर आते हुए एक ऋषि दिख पड़े| पास आने पर वे समझ गए कि पायु ऋषि पधार रहे है|
दोनों राजाओं ने उठकर ऋषि का अभिवादन किया एवं स्वागत में आसनादि दिए| अकस्मात् अपने घर पधारे कुलगुरु के पुत्र को देख प्रस्तोक की श्रद्धा-भक्ति उद्बुद्ध हो उठी और उसने पूर्व में शंबर युद्ध में प्राप्त शत्रु की संचित संपत्ति से विपुल संपदा गुप्त कोष से निकलवाकर ऋषि के सामने रख दी| ऋषि के सामने सेवा-सामग्री रखकर प्रस्तोक ने कहा- ‘ऋषे! हम लोग वारशिखों के भय एवं अपमान से अत्यंत त्रस्त है| अतैव आपके पूज्य पिता के पास पहुँचे थे| उन्होंने आश्वासन भी दिया, किंतु हम लोगों का पापी मन अभी चैन नही पा रहा है|’
पायु ऋषि ने कहा- ‘घबराये नही| पूज्य पिताजी ने इसलिए आपके पास मुझे भेजा है| मैं आपके अस्त्र ऐसे दिव्य किये देता हूँ कि स्वप्न में भी आपकी पराजय न हो सकेगी| अब आप लोग विजययात्रार्थ तैयार हो जाए| कल प्रातः मैं अभिमंत्रण के साथ आपके अस्त्रों को दिव्यास्त्र बना दूँगा|’
प्रस्तोक ने कहा- ‘जो आज्ञा!’ दोनों राजा अपनी-अपनी रण-योजना में लग गए| ऋषि की समुचित व्यवस्था का भार प्रधानमंत्री ने संभाल लिया और वे उन्हें सादर अतिथिशाला में ले गए|
दूसरे दिन दोनों राजाओं के तत्परतापूर्ण प्रयत्न से विजययात्रार्थ सेना तैयार हो गई| ऋषि पायु गंगाजल और कुश लेकर सामने आए और उन्होंने ऋग्वेद के प्रसिद्ध विजयप्रद सूक्त से, जो अंतिम आशीर्वचन सहित १९ ऋचाओं का है, एक-एक युद्धोपकरण का अभिमंत्रण कर उनमें दिव्यास्त्र-शक्ति का आधान करना प्रारंभ कर दिया|
वैदिक मान्यता है कि जो भी वेद-ऋचा द्वारा स्तुत होते है, वे सभी ‘देवता’ बन जाते है| पायु ऋषि ने इन उपकरणों का न केवल अभिमंत्रण किया, आर्ष-वाणी में उन प्रत्येक की स्तुति भी की, जिससे वे सभी देवता रुप दिव्यास्त्र बन गए, जो युद्ध में सदैव अमोघ होते है|
इस प्रकार पायु ऋषि ने युद्ध के समस्त उपकरणों के अभिमंत्रण के साथ उन्हें देवत्वशक्ति युक्त बना दिया और दोनों राजाओं को लेकर पिता भरद्वाज ऋषि के निकट पहुँचे| ऋषि कुमार ने पिता को उनके द्वारा आदिष्ट कार्य पूर्ण होने की सूचना दी|
भरद्वाज-ऋषि ने राजाओं से कहा- ‘चिरंजीव अभ्यावर्तिन् और प्रस्तोक! अब आप लोग निर्द्वन्द होकर शत्रु पर चढ़ाई कर दे| आपकी विजय सुनिश्चित है| मुझे पता चला है कि आपके शत्रु वारशिख आपको पराजित करने के पश्चात् निश्चिन्त हो विश्राम कर रहे है| उन्हें कल्पना ही नही कि आप उन पर आक्रमण कर सकते है| रणनीति की दृष्टि से यह स्थिति किसी आक्रमण कर्ता के लिए स्वर्ण सुयोग होती है| इसलिए अब तनिक भी देर न करे|
ऋषि ने आगे कहा- ‘एक बात और! कदाचित् शत्रु से कड़ा मुकाबला पड़ जाए तो उसकी भी व्यवस्था किए देता हूँ| देवराज इंद्र से अनुरोध करता हूँ कि वे अभ्यावर्ती के सहायतार्थ रंणागण में स्वंय उतर आए|’
ऋषि का आदेश शिरसा धारण कर अभ्यावर्ती और प्रस्तोक राजाओं ने अपने शत्रु वारशिखों पर जोरदार आक्रमण कर दिया| भरद्वाज ऋषि के कथनानुसार सचमुच शत्रु विजय के गर्व में अचेत पड़े थे| उन्हें इस आकस्मिक आक्रमण ने चक्कर में डाल दिया, किंतु कुछ ही समय में वे सावधान हो गये तथा पूरे जोर-शोर के साथ जूझने लगे| लड़ाई का समाचार पा शीघ्र ही असुरों के अन्य साथी भी अपनी-अपनी तैयारी के साथ कुछ ही समय में रंणागण में उतर आए|
इधर भरद्वाज ऋषि ने राजा चायमान अभ्यावर्ती के सहायतार्थ देवराज इंद्र की स्तुति की| ऋषि की स्तुति से प्रसन्न हो देवराज उसके सहायतार्थ हयुपिया नदी के तट पर, जहाँ इन दोनों राजाओं का वारशिखों के साथ युद्ध चल रहा था, आ पहुँचे|
मंत्राभिमंत्रित दिव्यास्त्र तो युद्ध में अपना तेज दिखा ही रहे थे| अतिशीघ्र पूरी तैयारी से असुरों के आ कूदने पर भी असुरों प्रहार इस बार विफल हो चले, जबकि राजवर्ग का एक-एक अस्त्र लक्ष्य से अधिक काम करने लगा, फिर जब स्वंय देवराज पहुँच गए तो पूछना ही क्या? उनके व्रज के निर्घोष ही वारशिखों के सर्व प्रमुख योद्धा का हृदय विदीर्ण हो गया| देखते-देखते सारे असुरों का सफ़ाया हो गया|
असुरों का वध कर देवराज ने उनकी सारी संपदा राजाओं को सौंप दी| दोनों ने आकर कुलगुरु भरद्वाज एवं इंद्र का अभिवादन किया और शत्रु से प्राप्त संपत्ति का विपुल भाग गुरु के चरणों में निवेदित कर उनसे विदा ली|