गुरु की सेवा

कर्ण की उम्र सोलह-सत्रह वर्ष की हो चुकी थी| सारे हस्तिनापुर में वह प्रसिद्ध था| घर-घर में उसके संबंध में चर्चा होती थी – अधिरथ सारथि का पुत्र बड़ा विचित्र  है|

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देखने में वह दूसरा सूर्य लगता है| उसके कानों में कुण्डल और छाती पर कवच है| कहते हैं, वह कानों में कुंडल पहने ही पैदा हुआ था| कर्ण कहां पैदा हुआ था, और किसके गर्भ से पैदा हुआ था, इस बात को कोई नहीं जानता था| सभी लोग यही समझते थे कि कर्ण अधिरथ का पालित पुत्र है| वह उसे गंगा की लहरों में बहते हुए एक संदूक में मिला था| कभी-कभी कर्ण की चर्चा राजभवन की दीवारों के भीतर कुंती के कानों में भी पड़ती थी| जब चर्चा सुनाई पड़ती थी, तो कुंती मन-ही-मन सोचने लगती थी, हो न हो, कर्ण के रूप में वही नवजात शिशु है, जिसे उसने गंगा की लहरों में संदूक में सुलाकर बहाया था, पर वह उस भीतर ही भीतर दबा दिया करती थी – लोकापवाद का भय उसके कंठ को दबा दिया करता था|

जिस तरह चंद्रमा की कला बढ़ती है, उसी प्रकार कर्ण भी दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था| ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जा रहा था, त्यों-त्यों उसके मन की उमंगें भी बढ़ती जा रही थीं| वह बिना किसी हिचक के राजकुमारों के दल में जा मिलता था और उनके साथ खेलने का प्रयत्न किया करता था|

कर्ण जब राजकुमारों को द्रोणाचार्य से बाण विद्या सीखता हुआ देखता था, तो उसके मन में भी बाण विद्या सीखने की अभिलाषा उत्पन्न हुआ करती थी| उसने दो एक बार द्रोणाचार्य के पास जाकर उनसे निवेदन भी किया कि वे उसे भी धनुर्विद्या सिखाएं, किंतु उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि वे राजकुमारों को छोड़कर और किसी को भी धनुर्विद्या की शिक्षा नहीं देते| यद्यपि द्रोणाचार्य ने कर्ण को निराश कर दिया था, किंतु वे निराश नहीं हुआ| वह निराश होने वाला था ही नहीं| वह सूर्य का पुत्र था| उसके हृदय में निरंतर आशाओं का तरुण सूर्य हंसता रहता था|

चारों ओर से उपेक्षित और अपमानित होने पर भी कर्ण ने दृढ़ संकल्प किया, चाहे जो भी हो, वह धनुर्विद्या सीखकर रहेगा| सूर्यदेव ने कर्ण को प्रेरणा प्रदान की| वह उनकी प्रेरणा से धनुर्विद्या सीखने के लिए परशुराम की सेवा में उपस्थित हुआ| उन दिनों परशुराम एकांत में, एक पर्वत पर निवास करते थे| वे ब्राह्मण विद्यार्थियों को छोड़कर और किसी को भी धनुर्विद्या की शिक्षा नहीं देते थे| क्षत्रियों के तो वे शत्रु थे| कर्ण ने पहले से ही परशुराम जी के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था| उसने उनकी सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया – महामुने ! मैं एक ब्राह्मण युवक हूं| धनुर्विद्या सीखने के लिए आप की सेवा में उपस्थित हुआ हूं| मुझे अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कीजिए|

कर्ण के तेजोमय रूप को देखकर परशुराम मुग्ध हो गए| आज तक उनके आश्रम में ऐसा तेजस्वी युवक कभी नहीं आया था| उन्होंने कर्ण को अपने आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान कर दी| कर्ण परशुराम जी के आश्रम में रहकर उनसे बाणविद्या सीखने लगा| वह परशुराम की बड़ी सेवा किया करता था| वह जानता था कि गुरु की सेवा से ही विद्या प्राप्त होती है| वह उनके खाने-पीने का ध्यान तो रखता ही था, साथ ही उनके आराम का भी ध्यान रखा करता था|

कर्ण कई वर्षों तक परशुराम के आश्रम में रहकर, उनसे बाणविद्या सीखता रहा| उन्होंने उसकी सेवाओं से मुग्ध होकर उसे संपूर्ण बाण विद्या सिखा दी| वह बाण विद्या का महान पंडित बन गया| संयोग की बात, एक दिन जब परशुराम कर्ण को शिक्षा दे रहे थे, उनकी आखों में तंद्रा बरस पड़ी| उन्होंने कर्ण की ओर देखते हुए कहा, “बेटा कर्ण ! मुझे नींद आ रही है| मैं सोना चाहता हूं|”

कर्ण ने शीघ्र ही अपना दाहिना पैर फैला दिया| उसने दाहिना पैर फैलाकर परशुराम से कहा, “गुरुदेव ! आप मेरी जांघ पर सिर रखकर सो जाइए|” परशुराम कर्ण की दाहिनी जांघ पर सिर रखकर सो गए| उनकी आखों में नींद बरस पड़ी| वे गहरी नींद में सोने लगे| सहसा एक विषैला कीड़ा रेंगता हुआ कर्ण की जांघ के नीचे जा पहुंचा| वह रह-रहकर कर्ण की जांघ में डंक चुभोने लगा| कर्ण की जांघ में प्राणलेवा पीड़ा पैदा होने लगी| फिर भी कर्ण यह सोचकर अविचलभाव से बैठा रहा कि, यदि वह हिलता-डुलता है तो उसके गुरु की नींद टूट जाएगी| उनके आराम में विघ्न पैदा होगा|

विषैले कीड़े के डंक मारने से कर्ण की जांघ में बहुत बड़ा घाव हो गया| घाव से रक्त भी बहने लगा| जब गरम-गरम रक्त का संस्पर्श परशुराम के शरीर से हुआ तो उनकी नींद खुल गई| वे उठकर बैठ गए| कर्ण की जांघ से बहते हुए रक्त को देखकर वे आश्चर्य की लहरों में डूब गए| वे कुछ क्षणों तक मन ही मन सोचते रहे, फिर बोले, “तुम्हारी जांघ में तो बहुत बड़ा घाव हो गया है| घाव से रक्त की धारा निकल रही है| आश्चर्य है कि फिर भी तुम अविचलित बैठे हुए हो|”

परशुराम के मन में एक अद्भुत भाव जाग उठा – किसी ब्राह्मण में तो पीड़ा को सहन करने की ऐसी दृढ़ शक्ति होती नहीं| फिर यह युवक कौन है? कहीं क्षत्रिय तो नहीं है? परशुराम ने कर्ण की ओर देखते हुए कहा, “सच-सच बताओ, तुम कौन हो? क्या तुम क्षत्रिय हो? तुम ब्राह्मण नहीं हो| ब्राह्मण में पीड़ा को सहन करने की ऐसी शक्ति नहीं होती| देखो, यदि मुझसे कुछ छिपाओगे, तो मैं श्राप दे दूंगा| तुमने मुझसे जो कुछ सीखा है, वह सब भूल जाओगे|”

कर्ण डर गया| उसने अपनी पूरी कहानी परशुराम जी पर प्रकट कर दी| वे उस पर क्रुद्ध तो हुए किंतु उसके विद्या प्रेम को देखकर उनके मन में दया भी पैदा हो उठी| कहने लगे, “तुमने मुझे धोखे में डालकर बाणविद्या सीखी है| अब तुम अद्वितीय धनुर्धर तो नहीं बनोगे, किंतु महान अवश्य बनोगे|अद्वितीय धनुर्धर भी तुम्हें कठिनाई से पराजित कर सकेगा|”

कर्ण का मस्तक परशुराम जी के समक्ष झुक गया| उनके उस श्राप के ही कारण कर्ण युद्ध में अर्जुन से पराजित हो गया था| पराजित होने पर भी उसके शौर्य ने उसे अमर बना दिया|