गृहसेन और देवस्मिता
ताम्रलिप्ति नगर में धनदत्त नामक एक धनवान वैश्य रहता था| अत्यंत धनी होने पर भी वह संतानहीन था| पुत्र प्राप्त करने के लिए उसने अनेक उपाय किए| अंत में अनेक विद्वान ब्राह्मणों को बुलाकर उसने इस विषय में कुछ करने के लिए उनसे आग्रह किया| ब्राह्मणों ने कहा कि ऐसा करना कोई कठिन कार्य नहीं है| इसके बाद वे एक कथा सुनाने लगे –
“गृहसेन और देवस्मिता” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
“प्राचीन काल में एक पुत्रहीन राजा था| उसकी एक सौ पांच रानियों में कोई भी पुत्रवती नहीं थी| पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम जंतु था| इतनी रानियों का इकलौता पुत्र बड़े लाड़-प्यार से पलने लगा|
एक बार वह घुटनों के बल चल रहा था तो उसे चींटी ने काट लिया| बच्चा जोर-जोर से रोने लगा| उसका रोना सुन रानियां तथा राजा सभी दुखी हो गए| चींटी को अलग करने के बाद बच्चे को चुप करा दिया गया| इस घटना के बाद राज विचार करने लगा कि एक ही पुत्र के होने से कोई लाभ नहीं| यदि इसे कुछ हो गया तो फिर क्या होगा?
इसके बाद राजा ने राजपुरोहित आदि ब्राह्मणों को बुलाकर अनेक पुत्र प्राप्त करने की अपनी इच्छा उनके सामने रखी| इस पर ब्राह्मणों ने कहा – ‘आपका दुख दूर करने का एक ही मार्ग है|’
‘वह क्या भला?’ राजा ने पूछा|
‘महाराज! ऐसा कहने में संकोच-सा होता है|’
‘संकोच और भय की कोई बात नहीं, जो कुछ कहना हो स्पष्ट कहिए|’
‘यदि ऐसी बात है तो इसका उपाय यही है कि आपके इस पुत्र को मारकर यज्ञ में इसके मांस की आहुति दी जाए| उसके धुएं को सूंघने से सभी रानियां पुत्रों को जन्म देंगी| इस प्रकार आपकी जितनी रानियां हैं, उतने ही पुत्र हो जाएंगे|’
ब्राह्मणों के इस परामर्श को राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया| यज्ञ की तैयारी होने लगी| दक्षिणा तय हो जाने पर ब्राह्मणों ने यज्ञ-कार्य संपन्न करा दिया|
सभी रानियों ने यज्ञ की आहुतियों का धुंआ सूंघा| इससे वे सभी गर्भवती हो गईं| यथासमय एक सौ पांच राजकुमारों ने जन्म लिया|”
कहानी सुनाने के बाद ब्राह्मणों ने धनदत्त को पुत्रेष्टि यज्ञ करने की सलाह दी| धनदत्त ने ऐसा ही किया| यथासमय उसके घर एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम गृहसेन रखा गया| धीरे-धीरे गृहसेन युवा हुआ| धनदत्त उसके लिए वधू ढूंढ़ने लगा| व्यापार करने के बहाने गृहसेन को साथ लेकर वह उसके योग्य वधू ढूंढ़ने के लिए एक द्वीप में जा पहुंचा| वहां उसे धर्मगुप्त नामक वैश्य की पुत्री देवस्मिता के विषय में ज्ञात हुआ तो उसने बात चलाई| धर्मगुप्त नामक वैश्य की एक ही पुत्री थी, इसके साथ ही ताम्रलिप्ति नगर भी बहुत दूर था, यह सब विचार कर धर्मगुप्त ने संबंध अस्वीकार कर दिया|
देवस्मिता को देख गृहसेन भी उस पर आसक्त हो गया| धर्मगुप्त के व्यवहार से वह निराश-सा हो गया था| परदेश में होने के कारण वह कुछ भी कर पाने में असमर्थ था, किंतु इसी बीच उसे एक सहेली के माध्यम से देवस्मिता का संदेश मिला कि वह उसके साथ चलने के लिए तैयार है|
संदेश पाकर धनदत्त उसी रात्रि वहां से चलने के लिए तैयार हो गया| उसी रात को देवस्मिता को लेकर वे अपने घर के लिए चल पडे| ताम्रलिप्ति पहुंचकर देवस्मिता और गृहसेन का विधिपूर्वक विवाह हो गया|
देवस्मिता को अपनी इच्छा के अनुरूप वर प्राप्त हो गया तथा गृहसेन को मनचाही वधू मिल गई| उनका जीवन सुख से बीतने लगा|
कुछ समय बाद धनदत्त का स्वर्गवास हो गया| गृहसेन पर पूरे व्यापार का उत्तरदायित्व आ गया| मित्रों ने गृहसेन को कटाह द्वीप जाने का परामर्श दिया, किंतु देवस्मिता ने इसे अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उसे भय था कि कहीं वहां जाकर गृहसेन दूसरा विवाह न कर ले|
गृहसेन बड़ी दुविधा में पड़ गया| वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करना चाहिए| कोई राह न देख वह मंदिर में जाकर बिना कुछ खाए-पीए तप करने लगा|
पति का ऐसा करते देख देवस्मिता भी उसके साथ तप करने लगी| उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए तथा दोनों को एक-एक कमल देते हुए कहा – “इन कमलों को तुम दोनों संभालकर रख लो| जब तुम दोनों अलग-अलग रहोगे तो तुममें जो भी सदाचरण को त्यागेगा तो दूसरे का कमल मुरझा जाएगा, अन्यथा कमल सदा खिले रहेंगे|”
प्रात:काल उठने पर दोनों के हाथों में एक-एक कमल था| इसके पश्चात देवस्मिता ने गृहसेन को व्यापार के लिए जाने की अनुमति दे दी| शुभ मुहूर्त में गृहसेन व्यापार करने चला गया| घर में देवस्मिता नित्य कमल को देखती रहती|
कटाह द्वीप जाकर गृहसेन रत्नों का क्रय-विक्रय करने लगा| उसके हाथ में सदा खिला रहने वाला कमल देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य होता| सभी उसकी चर्चा करते रहते| कुछ लोगों ने इसका कारण भी जानना चाहा, किंतु उन्हें सफलता न मिली|
चार बनियों के बेटे उस कमल का रहस्य जानने के लिए गृहसेन के पीछे पड़ गए, किंतु गृहसेन ने उन्हें कुछ नहीं बताया| एक दिन वे गृहसेन को अपने घर ले गए| उन्होंने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया तथा उसे इतनी मदिरा पिला दी कि वह सब कुछ भूल गया| बेहोशी की दशा में उसने कमल का रहस्य उन्हें बता दिया|
कमल का रहस्य ज्ञात होने पर उन चारों ने तय किया कि उन्हें देवस्मिता का पतिव्रत धर्म नष्ट करना चाहिए, अत: वे गृहसेन से बिना कुछ कहे ताम्रलिप्ति को चल पड़े| वहां पहुंचकर वे एक जैन मंदिर में रुक गए और देवस्मिता को पतित करने के उपाय पर विचार करने लगे| वहां उन्हें योगकरडिका नामक एक स्त्री मिली| वे उस स्त्री से बोले – “तुम हमारा कार्य करा दो तो तुम्हें हम पर्याप्त धन देंगे|”
“यदि तुम किसी स्त्री की इच्छा करते हो तो कहो, किंतु मुझे धन की इच्छा नहीं है|” उस स्त्री ने कहा|
“तुम्हें धन की चाह आखिर क्यों नहीं है?”
“मेरी एक शिष्या है – “सिद्धिकरी| उसके कारण मेरे पास प्रचुर धन है|”
“आपको उससे यह धन कैसे मिला?”
यह सुनकर वह स्त्री बताने लगी –
“एक समय उत्तरपथ से एक वैश्य यहां आया| मेरी यह शिष्या छद्मवेश में उसकी सेविका बनकर उसके पास रहने लगी|
धीरे-धीरे वह उस वैश्य की परम विश्वासपात्र बन गई| एक बार अवसर मिलते ही तड़क ही वह उसकी संपत्ति को समेटकर वहां से चंपत हो गई|
शहर के बाहर उसे भागती देखकर किसी व्यक्ति को संदेह हो गया कि यह कुछ गड़बड़ कर भाग रही है, अत: वह व्यक्ति उसका पीछा करने लगा|
उसे पीछा करते देख सिद्धिकरी उसके मन की बात समझ गई| एक पीपल के पेड़ के नीचे रुककर वह उस पीछा करने वाले से बोली – ‘भैया! मेरा पति से झगड़ा हुआ था, अत: मैं रूठकर घर से आ रही हूं और आत्महत्या करना चाहती हूं| कृपया मेरा एक कार्य कर दो|’
‘हां-हां, कहो क्या कार्य है?’ उत्सुकता के साथ वह व्यक्ति बोला|
‘इस वृक्ष की एक ऊंची डाल पर मेरे लिए एक फंदा बना दो|’
वह व्यक्ति व्यर्थ के झंझट में नहीं पड़ना चाहता था, इसलिए वह कुछ नहीं बोला, किंतु सिद्धिकरी भी कहां मानने वाली थी, वह अनेक प्रकार से उस व्यक्ति को मानने लगी, अंतत: वह व्यक्ति मान गया और उसने फंदा बनाने के साथ ही नीचे खड़े होने के लिए एक खंबा भी खड़ा कर दिया|
तब सिद्धिकरी बोली – ‘इस फंदे को गले में कैसे डालते हैं? बस एक बार मुझे करके दिखा दो|’
उस व्यक्ति ने उसे समझाने के लिए फंदा अपने गले में डाल लिया| सिद्धिकरी को इसी पल की प्रतीक्षा थी| उसने तुरंत ही खंबा हटा दिया, जिस पर वह व्यक्ति खड़ा था| फलत: वह व्यक्ति फांसी पर लटककर मर गया|
प्रात:काल जब वैश्य को सिद्धिकरी की करतूत का पता लगा तो वह अपने एक सेवक को लेकर उसका पता लगाने के लिए चल पड़ा| उसने दूर से ही सिद्धिकरी को पीपल के पास खड़ी देखा तो वहीं जा पहुंचा| उसे आता देख सिद्धिकरी तुरंत वृक्ष पर चढ़ गई तथा पत्तों के बीच में जा छिपी|
वहां जाने पर व्यापारी को वह दिखाई नहीं दी तो वह समझ गया कि वह पेड़ पर चढ़ गई होगी, अत: उसने सेवक को पेड़ पर चढ़ा दिया| सेवक को देख सिद्धिकरी धीरे-से उससे बोली – ‘तुम बहुत सुंदर हो| मैं तुम पर आसक्त हूं| आओ बैठकर प्रेम करें|’
उसके यौवन को देखकर वह सेवक भी उस पर मुग्ध था| उसने जैसे ही सिद्धिकरी को अपनी बांहों में लिया, सिद्धिकरी ने उसके होंठों से अपने होंठ मिला दिए| बेचारे सेवक ने अपनी जीभ बाहर निकाली कि सिद्धिकरी ने उसे दांतों से जड़सहित काट डाला| मुंह से खून बहाता हुआ दर्द से तिलमिलाता सेवक नीचे गिर पड़ा| जीभ कट जाने से सेवक कुछ नहीं बोल पा रहा था| उसे देख व्यापारी भयभीत हो उठा| उसने समझ लिया कि पेड़ पर कोई पिशाच है, जिसने सेवक की ऐसी दुर्गति कर दी है, अत: उसने आव देखा न ताव, सिर पर पैर रखकर वहां से भाग खड़ा हुआ|
इसके बाद सिद्धिकरी नीचे उतरी और धन की पोटली लेकर अपने घर चली गई|
इसके बाद वह स्त्री बोली – “सिद्धिकरी इस प्रकार की प्रतिभाशाली है| उसी के कारण मैं धनी बन गई हूं|”
तभी सिद्धिकरी भी वहां आ पहुंची| उस स्त्री ने उनका उससे परिचय कराया और फिर बोली – “अब तुम बताओ, तुम किस प्रकार की स्त्री को चाहते हो? मैं तुम्हारा कार्य कराती हूं|”
उन वैश्य पुत्रों ने देवस्मिता के विषय में बताया तो वह पुन: बोली – “चिंता की कोई बात नहीं| तुम सब यहीं हमारे पास रुक जाओ| तुम्हारा कार्य अवश्य हो जाएगा|”
उन्हें अपने यहां ठहराकर वह स्त्री अपनी शिष्या सिद्धिकरी के साथ देवस्मिता के घर गई| देवस्मिता ने उसे घर के अंदर बुलाया| वह उस स्त्री को अच्छी तरह जानती थी, अत: उसे अपने घर आई देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ|
देवस्मिता को आशीर्वाद देकर योगकरडिका नामक वह स्त्री बोली – “पत्री! मैं कई दिनों से तुमसे मिलना चाहती थी, किंतु समय ही नहीं मिला| आज रात्रि स्वप्न में मैंने तुम्हें बड़ा दुखी और उदास देखा, अत: तुमसे मिलने चली आई हूं| हाय-हाय, पति बिना तुम्हारी क्या दशा हो गई है! यह रूप, यह यौवन और पति परदेश में…!”
इस प्रकार की बातें कह उस दिन योगकरडिका वापस लौट आई| दूसरे दिन वह कुछ मांस के टुकड़े बाहर बंधी कुतिया के सामने फेंककर अंदर चली गई|
मांस में बहुत अधिक मिर्चें मिली हुई थीं| उसे खाकर कुतिया ‘कूं-कूं’ कर रोने लगी| उसकी आंखों से पानी बहने लगा|
अंदर जाकर योगकरडिका भी रोने लगी| इससे देवस्मिता को बड़ी हैरानी हुई और उसने उस स्त्री से पूछा – “आप इस प्रकार क्यों रो रही हैं?”
“पुत्री! तुम्हारी कुतिया का रोना मुझसे नहीं देखा जाता| उसे देखो, न जाने क्यों रो रही है, इसीलिए मैं भी रो रही हूं|”
देवस्मिता बाहर आई| अपनी कुतिया की दयनीय दशा देख उसका कलेजा मुंह को आने लगा| इस पर बाहर आकर वह योगकरडिका पुन: बोली – “मैं तुम्हें इसका रहस्य बताती हूं| ध्यान से सुनो|”
फिर वह एक मनगढ़ंत कथा सुनाने लगी –
“पिछले जन्म में मैं और यह कुतिया एक ब्राह्मण की पत्नियां थीं| हमारा पति राजा का सेवक था, अत: उसे यदा-कदा बाहर जाना पड़ता| उसकी अनुपस्थिति में मैंने कभी अपनी इंद्रियों का दमन नहीं किया| मैं इच्छानुसार परपुरुषों से रमण करती और मैंने इसे परम धर्म समझा| इसी पुण्य के कारण मैं इस जन्म में मनुष्य बनी और मुझे पूर्वजन्म की स्मृति है|
मेरी यह सौत पतिवर्ता बनी रही, इसीलिए इसे कुतिया बनना पड़ा| पूर्वजन्म की याद इसे भी है|”
यह सुनकर देवस्मिता समझ गई कि यह स्त्री उसे पतित करने आई है| कुछ विचार कर वह उस स्त्री से बोली – “देवी! मैं अब तक भूल कर रही थी| तुम्हीं किसी सुंदर युवक से मुझे मिला दो|”
“किसी द्वीप से आए हुए कुछ वैश्य मेरे घर रुके हुए हैं, मैं उन्हें तुम्हारे पास लाती हूं|” साध्वी बोली|
उसके चले जाने पर देवस्मिता अपनी दासियों से बोली – “सुनो, मेरे शराबी पति के हाथ में सदा खिला रहने वाला कमल देखकर, उससे सब कुछ जानकर कुछ बनियों के पुत्र मुझे भ्रष्ट करने के लिए आए हैं| इस कुटनी को उन्होंने यहां भेजा है| इसके लिए एक कार्य करो, कुछ मदिरा लाकर उसमें धतूरा पीसकर मिला दो और तुममें से कोई एक बाजार जाकर लोहे का कुत्ते का पंजा बनवा लाए|”
उसके कहे अनुसार सेविकाओं ने मदिरा में धतूरा मिला दिया और लोहे का कुत्ते का पंजा भी बनवा लिया| एक सेविका को देवस्मिता बना दिया गया, जिसे देवस्मिता ने अच्छी तरह समझा दिया कि उसे क्या करना है!
कुटनी योगकरडिका ने अपने घर जाकर चारों युवकों को अपनी सफलता के विषय में बताया और पूछा – “तुममें से पहले कौन वहां जाएगा?”
चारों युवक ‘पहले मैं’, ‘पहले मैं’ कहने लगे| कुटनी ने किसी प्रकार उन्हें समझाया और एक को अपनी शिष्या के वेश में देवस्मिता के घर ले गई|
संध्या समय अपनी शिष्या के वेश में उस युवक को देवस्मिता के घर पहुंचाकर कुटनी वापस आ गई| वह वैश्यपुत्र जब नकली देवस्मिता के पास पहुंचा तो उसका स्वागत धूतरा मिली मदिरा से किया गया| उसे इतनी मदिरा पिलाई गई कि वह बेहोश हो गया| तब देवस्मिता की सेविकाओं ने उसके सारे वस्त्र उतार डाले तथा आभूषण भी रख लिए| इसके बाद लोहे से बने हुए कुत्ते के पंजे को अग्नि में लाल करके उसके माथे पर दागकर उसे रात्रि में ही एक गंदे नाले में डाल दिया गया| उसने सारी रात वहीं बिताई|
प्रात: वह उस नाले से निकला| किसी तरह नदी पर जाकर उसने स्नान किया और फिर उस कुटनी योगकरडिका के घर पहुंचा| उसे इस प्रकार नंग-धड़ंग आया देख अन्य युवक पूछने लगे – “यह क्या हुआ?”
वह तो मूर्ख बन चुका था, अत: सभी को मूर्ख बनाना चाहिए, यही योजना बनाता हुआ वह बोला – “भैया! क्या कहूं, सुबह-सुबह देवस्मिता के घर से आ रहा था, मार्ग में चोरों ने सब कुछ छीन लिया|”
साथियों ने उसे नए कपड़े पहनाए और उसकी मरहम-पट्टी की तो वह बोला – “मैं सारी रात सो नहीं पाया हूं, अत: मैं सोना चाहता हूं|”
उसके सो जाने पर दूसरा युवक उसी प्रकार देवस्मिता के घर पहुंचा| वहां जाकर उसकी भी पहले वाले जैसी दशा हुई| लौटने पर उसने भी यही कह दिया कि चोरों ने उसकी ऐसी दशा कर दी है| वह भी पट्टी बंधवाकर सो गया|
तीसरे और चौथे युवक के साथ भी यही हुआ, किंतु हर एक अपने साथ घटी घटना को दूसरे से छिपाता रहा| ‘आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास’चारों अपना सब कुछ लुटाकर चुपचाप अपने द्वीप को लौट गए|
साध्वी कुटनी बड़ी प्रसन्न थी कि उसे अपने कार्य में सफलता मिल गई है| एक दिन वह सिद्धिकरी को साथ लेकर देवस्मिता के घर गई|
देवस्मिता ने उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की और उनका बड़ा आदर-सत्कार किया तथा उन दोनों को भी वही धतूरा मिली हुई मदिरा पिला दी| उनके नशे में डूब जाने पर देवस्मिता ने दोनों के नाक-कान कटवाकर उन्हें भी उसी गंदे नाले में फिंकवा दिया|
देवस्मिता ने यह सब तो कर डाला, किंतु उसे भय सताने लगा कि कहीं वे व्यापारी उसके पति का अनिष्ट न कर डालें, अत: उसने सारी बात अपनी सास को बता दी| सास कहने लगी – “तुमने जो कुछ किया, वह तो ठीक है, किंतु इससे कहीं गृहसेन का कुछ अहित न हो जाए!”
“मैं पतिव्रता शक्तिमती के समान अपने पति की रक्षा करूंगी|” देवस्मिता ने कहा|
“वह भला कैसे?”
तब देवस्मिता उसे शक्तिमती की कथा सुनाने लगी –
“एक नगर के मंदिर में महायक्ष की मूर्ति थी| मणिभद्र नाम के उस मंदिर में लोग संकटों से मुक्ति पाने के लिए आते रहते थे, जहां वे अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट चढ़ाते थे| उस मंदिर में यदि कोई पुरुष किसी अन्य स्त्री के साथ जाता तो रात्रि-भर के लिए उन्हें मंदिर के गर्भगृह में बंद कर दिया जाता था| प्रात: दोनों को राजा के सामने लाया जाता| वहां उनके अपराध पर विचार होता तथा अपराधी को मृत्यु-दंड मिलता|
एक बार समुद्रदत्त नामक वैश्य उस मंदिर में किसी अन्य स्त्री के साथ देखा गया, अत: नियम के अनुसार उन दोनों को मंदिर के गर्भगृह में बंद कर दिया गया|
यह सूचना समुद्रदत्त की पत्नी शक्तिमती को मिली तो उसे अपने पति पर अत्यधिक क्रोध आया और उस स्त्री से ईर्ष्या भी हुई| शक्तिमती बड़ी पतिव्रता थी| वह अनेक प्रकार के उपहार और पूजन-सामग्री लेकर अपनी सहेलियों के साथ उस मंदिर में जा पहुंची|
उस समय तक मंदिर के दरवाजे बंद हो गए थे, फिर भी उसके पास पर्याप्त उपहार आदि देखकर लालची पुजारी ने रक्षक से कहकर द्वार खुलवा दिए|
शक्तिमती उस कक्ष में पहुंची जहां उसका पति अपनी प्रेमिका के साथ बंद था| वहां जाकर उसने अपने वस्त्र उस स्त्री को पहना दिए और उसके वस्त्र खुद पहन लिए|
इसके बाद वह उस स्त्री से बोली – “अब तुम मेरे वेश में बाहर चली जाओ| इस कक्ष के बाहर कुंडी चढ़ा देना|”
इससे उस स्त्री को बड़ी राहत मिली| वह अपमानित होने से बच गई थी, अत: शक्तिमती को सौ-सौ धन्यवाद देती हुई वह वहां से निकल गई|
प्रात:काल द्वार खुलने पर रक्षक ने समुद्रदत्त को अपनी पत्नी के साथ देखा| यह सूचना मिलने पर राजा ने समुद्रदत्त को तो मुक्त कर दिया, किंतु रक्षक को दंडित किया|”
यह कथा सुनाकर देवस्मिता अपनी सास से बोली – “इसी प्रकार मैं भी अपने पति की रक्षा करूंगी|”
तत्पश्चात उसने अपनी सेविकाओं को बनियों के वेश में बदल डाला और स्वयं भी व्यापारी बनकर उनके साथ कटाह द्वीप को चल पड़ी| वहां जाकर उसने अपने पति के निवास-स्थान के पास ही अपना निवास बनाया|
वहां जाकर वह पति पर दृष्टि रखने लगी| एक दिन वह उस बाजार में गई जहां उसका पति व्यापारियों के साथ किसी दुकान में बैठा हुआ था|
पुरुष वेशधारी देवस्मिता को देखकर गृहसेन आश्चर्य में पड़ गया| उसकी मुखमुद्रा अपनी पत्नी के समान देखकर वह चिंतित होने लगा|
उस द्वीप में पहुंचने पर देवस्मिता वहां के राजा के पास पहुंची और बोली – “महाराज! मुझे अपने एक मामले का फैसला कराना है, अत: आप अपने सभी नागरिकों को एक स्थान पर बुलाने की कृपा करें|”
उत्सुकता के साथ राजा ने सबको बुलवाया और देवस्मिता को अपना पक्ष प्रस्तुत करने की आज्ञा दी तो उसने कहा – “महाराज! मेरे चार दास भागकर आपके राज्य में आए हैं, उन्हें मुझे सौंपने की कृपा करें|”
राजा ने कहा – “यहां नगर के सभी नागरिक आए हुए हैं, तुम इनमें से अपने दासों को पहचान लो|”
चारों वैश्य पुत्र सिर पर कपड़ा बांधे वहां आए थे| उनके पास जाकर वह बोली – “महाराज ये ही मेरे दास हैं| इन्हें बंदी बना लें|”
यह सुनकर कई लोग एक साथ कहने लगे – “यह झूठ कहती है, ये तो व्यापारियों के पुत्र हैं| ये इसके दास कैसे हो सकते हैं!”
धैर्य के साथ देवस्मिता बोली – “मैंने अपने इन दासों के माथे पर कुत्ते का पंजा दागा है| यदि आपको विश्वास न हो तो आप इनके माथे का वस्त्र हटाकर देख सकते हैं|”
राजा की आज्ञा पाकर कुछ सैनिकों ने उन चारों के माथे के वस्त्र हटाए तो उन पर वास्तव में कुत्ते के पंजे की छाप थी| यह देख अब तक गुस्सा होने वाले व्यक्ति बड़े लज्जित हुए|
तब राजा ने देवस्मिता से पूरी बात स्पष्ट बताने के लिए कहा|
देवस्मिता ने पूरी आपबीती सुना डाली| इस पर सभी लोग हंसते हुए कहने लगे – “सचमुच ये तुम्हारे दास हैं|”
वहां के वैश्यों को इससे बड़ी चिंता हुई, अत: उन्होंने पर्याप्त चंदा एकत्र किया, जिसे देवस्मिता को देकर उन्होंने अपने उन चारों सपूतों को मुक्त कराया| देवस्मिता से प्रसन्न होकर स्वयं राजा ने भी उसे प्रचुर मात्रा में धन दिया और उन वैश्य पुत्रों को दंडित किया|
इस प्रकार पति-परायण देवस्मिता अपने पति को सकुशल घर ले आई| पति ही स्त्रियों का परमेश्वर होता है, अत: कुलांगनाएं तन-मन से पति-परायण, धीर-वीर और उदार होती हैं|