घासीराम खजांची
धनपुर नगर में घासीराम नाम का एक महाकंजूस रहता था| वह राजा के दरबार का खजांची था| एक दिन वह घर लौट रहा था कि रास्ते में उसने एक आदमी को पूड़े खाते हुए देखा तो उसका मन मचल गया, ‘कितने दिन हो गए, मुझे पूड़े खाएँ| आज मैं भी अपनी पत्नी से पूड़े बनवाकर खाऊँगा| लेकिन उस पर तो काफ़ी खर्चा आ जाएगा|’
यही सोचता हुआ वह घर पहुँचा|
घासीराम की पत्नी ने उसको देखा तो पूछ बैठी, ‘क्या बात है, आज तुम बड़े उदास दिखाई दे रहे हो?’
‘कुछ नही, बस यूँ ही…|’ वह बोला|
‘बताओ न, क्या हुआ? क्या महाराज किसी बात पर तुमसे नाराज़ हो गए है?’ उसकी पत्नी ने आत्मीयता से पूछा|
घासीराम कुछ नही बोला|
‘ओहो! कुछ तो बताओ आखिर बात क्या है?’ घासीराम की पत्नी झुँझलाई|
‘तो फिर सुनो, आज मेरी पूड़े खाने की इच्छा हो रही है|’
‘बस! इतनी-सी बात है, मैं अभी पूड़े बनाकर लाती हूँ|’ इतना कहकर वह रसोईघर की ओर चल दी|
‘भाग्यवान, लेकिन मेरी बात तो सुनो|’ घासीराम चिल्लाया|
‘अब क्या है?’
‘सिर्फ़ मेरे लिए ही बनाना|’
‘वाह! मैं और बच्चे कहाँ जाएँगे|’
‘बच्चों को बीच में क्यों लाती हो| रही तुम तो तुम्हारी इच्छा ही नही थी| इसलिए सिर्फ़ मेरे लिए ही बनाना|’
‘ठीक है|’ एक लंबी साँस छोड़ते हुए घासीराम की पत्नी रसोईघर की तरफ़ पलटी|
‘ठहरो|’ घासीराम ने फिर टोका|
‘अब क्या हुआ?’
‘सुनो, अगर तुम रसोईघर में पूड़े बनाओगी तो उसकी सुगंध पड़ोसियों के घर में भी जाएगी और फिर उन्हें भी पूड़े देने पड़ेंगे| इसलिए मैंने एक तरकीब सोची है, ज़रुरत की सारी चीजें छत पर ले चलते हैं| तुम वहीं पूड़े बनाना|’
कुछ देर बाद घासीराम और उसकी पत्नी ज़रुरत का सारा सामान लेकर छत पर आ गए|
‘देखो! यहाँ कोई भी नही है|’ घासीराम प्रसन्न स्वर में बोला, ‘तुम पूड़े बनाना शुरु कर दो|’
थोड़ी देर बाद घासीराम ने अपनी पत्नी से पूछा, ‘बन गए पूड़े?’
‘बन तो गए लेकिन ठंडे हो जाने दो…|’
तभी एक भिक्षु वहाँ आ गया उसने भी एक पूड़ा माँगा|
घासीराम उठा और उसे भगाने लगा| मगर वह छत के दूसरे हिस्से पर पहुँच गया| इस तरह काफ़ी देर तक भागमभाग होती रही| वह भिक्षु उसे छकाता रहा| अंत में घासीराम थक-हारकर बैठ गया| उसने अपनी पत्नी से कहा, ‘इसके लिए एक छोटा-सा पूड़ा बना दो और इसे यहाँ से चलता करो|’
लेकिन वह जैसे ही छोटा पूड़ा बनाती, वह बड़ा हो जाता| घासीराम से रहा न गया| उसने एक छोटा पूड़ा उठाने की कोशिश की, मगर सारे पूड़े आपस में चिपक गए|
‘ऐसा करो, तुम उस तरफ़ से खींचो और मैं इस तरफ़ से|’ घासीराम ने अपनी पत्नी से कहा|
इस खींचतान में घासीराम एक ओर जा गिरा|
घासीराम ने सोचा यह जरुर कोई पहुँचा हुआ भिक्षु है| फिर उसने मन-ही मन फैसला करके सारे पूड़े उस भिक्षु की ओर बढ़ा दिए, ‘लो महाराज, जितना चाहो उतने खा लो|’
‘मुझे यह पूड़े अपने लिए नही बल्कि भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों के लिए चाहिए| वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे|’ भिक्षु बोला|
‘महात्मा बुद्ध! मुझे क्षमा करें|’ वह भिक्षु के चरणों में गिर पड़ा, ‘मुझे पता नही था|’
‘उनके दर्शन करना चाहते हो तो मेरे साथ चलो|’ भिक्षु ने कहा|
उनके दर्शन करके तो मैं धन्य हो जाऊँगा| मुझे वहाँ अवश्य ले चलो|’ घासीराम ने उससे प्रार्थना की|
फिर उस भिक्षुक ने हाथ ऊपर किया तो वहाँ सीढ़ियाँ प्रकट हो गई|
कुछ क्षण बाद ही वे भगवान बुद्ध के आश्रम में पहुँच गए|
महात्मा बुद्ध ने पूड़ों का उपहार स्वीकार कर लिया| सब भिक्षुओं को पूड़े बाँटे गए| घासीराम और उसकी पत्नी को भी हिस्सा मिला|
जीवन में पहली बार अपरिचितों के साथ बाँटकर खाने में उसे बड़ा आनंद आया|
‘आह! कितना सुख मिल रहा है|’ घासीराम अपनी पत्नी से बोला, ‘तुम उधर क्या घूर रही हो?’
‘व…वो पूड़े सबने खा लिए, फिर भी थाल ज्यों-का-त्यों भरा पड़ा है|’ घासीराम की पत्नी आश्चर्य से बोली|
‘मैंने भी जीवन में ऐसा चमत्कार इससे पहले कभी नही देखा था| सचमुच आज हमारे जीवन का यह स्वर्णिम दिन है|’
फिर घासीराम अपनी पत्नी के साथ घर की ओर चल दिया| अब उसका ह्रदय पूर्णतया परिवर्तित हो चुका था|
‘प्रिये! कल सारे मोहल्ले के लिए पूड़े बनाना|’ घासीराम ने अपनी पत्नी से कहा|
शिक्षा: पेट तो जानवर भी अपना भरता है| लेकिन मनुष्य और जानवर में इतना अंतर है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है| खाने-पीने का आनंद इसी में है कि खुद भी खाओ, दूसरों को भी खिलाओ| इससे घर में बरकत होती है| मिल-बाँटकर खाने में ही आत्मिक सुख है|