गंगा दसहरा
प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नामक राजा राज्य करते थे, उनके केशिनी और सुमति नामक दो रानियां थीं,
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केशिनी के अन्सुमान नामक पुत्र हुआ और सुमति के साठ हजार पुत्र हुये,एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया, यज्ञ की पूर्ति के लिये एक घोडा छोडा गया, इन्द्र यज्ञ को भंग करने हेतु घोडे को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये, राजा ने यज्ञ के घोडे को खोजने के लिये अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा, घोडे को खोजते खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे, तो उन्होने यज्ञ के घोडे को वहां बंधा पाया,उस समय कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे, राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया, कपिल मुनि की समाधि टूट गयी,
तथा राजा के सारे पुत्र कपिल मुनि के श्राप से जल कर भस्म हो गये, अंशुमान पिता की आज्ञा पाकर अपने भाइयों को खोजता हुआ जब कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचा तो महात्मा गरुड ने अंशुमान को उसके भाइयों के भस्म होने का वृतांत बताया, उन्होने अंशुमान को यह भी बताया कि अगर उनकी मुक्त चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पडेगा, इस समय यज्ञ के घोडे को लेजाकर पिता का यज्ञ पूरा करवाओ, इसके बाद गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य करना,अंशुमान घोडे को लेकर यज्ञ मंडप में पहुंचा और राजा सगर को पूरा वृतांत कह सुनाया, महाराज सगर की मृत्यु के पश्चात अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया मगर वे असफ़ल रहे, इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तपस्या की परन्तु वे भी असफ़ल रहे, अन्त में दिलीप के पुत्र भागीरथ ने तपस्या गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर की, तपस्या करते करते कितने ही वर्ष बीत गये,तथा ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर लेजाने का वरदान दिया, अब समस्या यह थी कि ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के बाद गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा,ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है, इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह किया जाये, महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खडे होकर भगवान शंकर की आराधना की, उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये, ब्रह्माजी ने अपने कमंडल से गंगाजी को पृथ्वी पर छोडा, शिवजी ने उन्हे अपनी जटाओं में समेट लिया, कई वर्षों तक गंगाजी को जटाओं से निकलने का रास्ता नही मिल सका, महाराज भागीरथ के द्वारा भगवान शंकर से फ़िर से गंगाजी को छोडने का अनुग्रह किया,उन्होने गंगाजी को पृथ्वी पर खुला छोडा,गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल कल का विनोद स्वर करतीं हुई मैदान की तरफ़ बढीं, आगे आगे भागीरथ जी और पीछे पीछे गंगाजी, जिस रास्ते से गंगाजी जा रहीं थी, उसी रास्ते में ऋषि जन्हु का आश्रम था, गंगाजी के सानिध्य से उनके तपस्या में विघ्न पडा तो वे गंगाजी को पी गये, भागीरथ के द्वारा उनकी प्रार्थना करने पर उन्होने अपनी जांघ से उनको निकाल दिया, उसके बाद गंगाजी जन्हु के द्वारा जांघ से निकालने के कारण जन्हु की पुत्री जान्ह्वी कहलायीं, इस प्रकार से हरिद्वार, सोरों और ब्रह्मवर्त प्रयाग और गया होती हुयी गंगाजी केलिकात्री स्थान पर जा पहुंची,और उसके आगे कपिल मुनि का आश्रम जो आज गंगासागर के नाम से मसहूर है,वहां पर राजा भागीरथ के पीछे पीछे जाकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की भस्म को अपने में समेट कर समुद्र में मिल गयीं, उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भगीरथ के कठिन तप और प्रयास की भूरि भूरि प्रसंसा की और उनके साथ हजार प्रतिपितामहों को अमर होने का वरदान दिया, और उसके बाद उन्होने भगीरथ को वरदान दिया कि गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के कारण उनका एक नाम भागीरथी भी होगा, ऐसी बात कहकर ब्रह्माजी अन्तर्ध्यान हो गये,और राजा भगीरथ ने प्रजा को एक हजार वर्ष तक सुख पहुंचाकर मोक्ष को प्राप्त किया, इस कथा को सुनने और सुनाने पर जाने अन्जाने में किये गये पापों का उसी प्रकार से अन्त हो जाता है जिस प्रकार से सूर्योदय के पश्चात तम का।