गणेशजी की उत्पति का प्रसंग और चतुर्थी-तिथि का महात्म्य
पूर्व समय की बात है, संपूर्ण देवता और तपोधन ऋषिगण जब कार्य आरंभ करते तो उसमें उन्हें निश्चय ही सिद्धि प्राप्त हो जाती थी| कालांतर में ऐसी स्थिति आ गई कि अच्छे मार्ग पर चलने वाले लोग विघ्न का सामना करते हुए किसी प्रकार कार्य में सफलता पाने लगे और निकृष्ट कार्यशील व्यक्ति की कार्य-सिद्धि में कोई विघ्न नही आता था|
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तब पितरों सहित संपूर्ण देवताओं के मन में यह चिंता उत्पन्न हुई कि ‘विघ्न तो असत्-कार्यों में होना चाहिए, सत्कार्यों में नही, ऐसा क्यों हो रहा है’- इस विषय पर वे परस्पर विचार करने लगे| इस प्रकार मंत्रणा करते-करते उन देवताओं के मन में भगवान् शंकर के पास जाकर एक समस्या को सुलझाने की इच्छा हुई| तब वे कैलाश पहुँचे और परम गुरु शंकर को प्रणाम कर विनय पूर्वक इस प्रकार प्रार्थना करने लगे- ‘देवाधिदेव महादेव! असुरों के कार्यों में ही विघ्न उपस्थित करना आपके लिए उचित है, हमारे कार्यों में नही|’
देवताओं के इस प्रकार कहने पर भगवान् शंकर अत्यंत प्रसन्न हुए और निर्निमेष दृष्टि से भगवती उमा को देखने लगे| देवता भी वही थे| पार्वती की ओर देखते हुए वे मन-ही-मन सोचने लगे- ‘अरे! इस आकाश का कोई स्वरुप क्यों नही दिखता? पृथ्वी, जल, तेज और वायु की मूर्ति तो चक्षुगोचर होती है, किंतु आकाश की मूर्ति क्यों नही दिखती|’ ऐसा सोचकर ज्ञान शक्ति के भंडार परम पुरुष भगवान् रुद्र हँस पड़े| अभी हँसी बंद भी नही हुई थी कि उनके मुख से एक परम तेजस्वी कुमार प्रकट हो गया, वही गणेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ| उसका मुख प्रचण्ड तेज से चमक रहा था| उस तेज से दिशाएँ चमकने लगी| भगवान् शिव के सभी गुण उसमें संनिहित थे| ऐसा जान पड़ता था, मानो साक्षात् दूसरे रूद्र ही हो| वह महात्मा कुमार प्रकट होकर अपनी सस्मित दृष्टि, अद्भुत कांति, दीप्ति मूर्ति तथा रुप के कारण देवताओं के मन को मोहित कर रहा था| उसका रूप बड़ा ही आकर्षक था| भगवती उमा उसे निर्निमेष दृष्टि से देखने लगी| उन्हें उसकी ओर टकटकी लगाए देखकर भगवान् रूद्र के मन में क्रोध का आविर्भाव हो गया| अतः उन परमप्रभु ने उस कुमार को शाप देते हुए कहा- ‘कुमार! तुम्हारा मुख हाथी के मुख-जैसा और पेट लंबा होगा| सर्प ही तुम्हारे यज्ञोपवित का काम देंग- यह नितांत सत्य है|’
इस प्रकार कुमार को शाप देने पर भी भगवान् शंकर का रोष शांत नही हुआ| उनका शरीर क्रोध से काँप रहा था| वे उठकर खड़े हो गए| त्रिशूलधारी रुद्र का शरीर जैसे-जैसे हिलता था, वैसे-वैसे उनके श्रीविग्रह रोम कूपों से तेजोमय जल निकलकर बाहर गिरने लगा| उससे दूसरे अनेक विनायक उत्पन्न हो गए| उन सभी के मुख हाथी के मुख-जैसे थे तथा उनके शरीर की आभा काले खैर-वृक्ष या अंजन के समान थी| वे हाथों में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिए हुए थे|
उस समय उन विनायकों को देखकर देवताओं की चिंता अत्यधिक बढ़ गई| पृथ्वी में क्षोभ उत्पन्न हो गया| तब चतुर्मुख ब्रह्माजी हंस पर विराजमान होकर आकाश में आये और यों कहे- ‘देवताओं! तुम लोग धन्य हो| तुम सभी त्रिलोचन एवं अद्भुत रुपधारी भगवान् रूद्र के कृपा पात्र हो| साथ ही तुमने असुरों के कार्य में विघ्न उत्पन्न करने वाले गणेश को प्रणाम करने का सौभाग्य प्राप्त किया है|’ उनसे इस प्रकार कहने के पश्चात् ब्रह्माजी ने भगवान् रूद्र से कहा- ‘विभो! अपने मुख से प्रकट हुए बालक को ही आप इन विनायकों का स्वामी बना दे| ये विनायक इनके अनुगामी- अनुचर बनकर रहे| प्रभु! साथ ही मेरी प्रार्थना है कि आपके वर के प्रभाव से आकाश को भी शरीरधारी बनकर पृथ्वी आदि चारों महाभूतों में रहने का सुअवसर मिल जाए| इससे एक ही आकाश अनेक प्रकार से व्यवस्थित हो सकता है|’
इस प्रकार भगवान् रूद्र और ब्रह्माजी बातें कर ही रहे थे कि विनायक वहाँ से चले गए| फिर पितामह ने शम्भु से कहा- ‘देव! आपके हाथ में अनेक समुचित अस्त्र है अब आप ये अस्त्र तथा वर इस बालक को प्रदान करे, यह मेरी प्रार्थना है|’ ऐसा कहकर ब्रह्माजी वहाँ से चले गए| तब भगवान् शंकर ने अपने सुपुत्र गणेश से कहा- ‘पुत्र! विनायक, विघ्नहर, गजास्य और भवपुत्र- इन नामों से तुम प्रसिद्ध होंगे| क्रूर दृष्टि वाले विनायक बड़े उग्र स्वभाव के है| पर ये सब तुम्हारी सेवा करेंगे| प्रकृष्ट यज्ञ, दान आदि शुभ कर्म से प्रभाव से शक्तिशाली बनकर ये कार्यों में सिद्धि प्रदान करेंगे| तुम्हें देवताओं, यज्ञों तथा अन्य कार्यों में भी सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त होगा| सर्वप्रथम पूजा पाने का अधिकार तुम्हारा होगा| यदि ऐसा न हुआ तो तुम्हारे द्वारा उस कार्य की सफलता बाधित होगी|’
जब ये बातें समाप्त हो गई, तब भगवान् शंकर ने देवताओं के साथ विभिन्न तीर्थों के जल से पूर्ण स्वर्ण कलशों के द्वारा गणेश का अभिषेक किया| इस प्रकार जल से अभिषिक्त होकर विनायकों के स्वामी भगवान् गणेश की अद्भुत शोभा होने लगी| उन्हें अभिषिक्त देखकर सभी देवता भगवान् शंकर के सामने ही उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-
‘गजानन! आपको नमस्कार है| गणनायक! आपको प्रणाम है| विनायक! आपको नमस्कार है| चंडविक्रम! आपको अभिवादन है| आप विघ्नों का विनाश करने वाले है, आपको प्रणाम है| सर्प की करधनी से सुशोभित भगवान्! आपको अभिवादन है| आप रुद्र के मुख से उत्पन्न हुए है तथा लंबे उदय से सुशोभित है, आपको नमस्कार है| हम सभी देवता आपको प्रणाम करते है, अतः आप सर्वदा विघ्नों को शांत करे|’
जब इस प्रकार भगवान् रूद्र ने महापुरुष श्री गणेशजी का अभिषेक कर दिया और देवताओं द्वारा उनकी स्तुति संपन्न हो गई, तब वे भगवती पार्वती के पुत्र-रुप में शोभा पाने लगे| गणाध्यक्ष गणेशजी की (जन्म एवं अभिषेक आदि) सारी क्रियाएँ चतुर्थी तिथि के दिन ही संपन्न हुई थी| अतैव तभी से यह तिथि समस्त तिथियों में परम श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त हुई| जो भाग्यशाली मानव इस स्थिति को तिलों का आहार कर भक्ति पूर्वक गणपति की आराधना करता है, उस पर वे अत्यंत शीघ्र प्रसन्न हो जाते है- इसमें कोई संशय नही है| जो व्यक्ति इस कथा का पठन-पाठन अथवा श्रवण करता है, उसके पास विघ्न कभी नही फटकते और न उसके पास लेशमात्र पाप ही शेष रह जाता है|