गांधीजी का दर्द
गांधीजी का जन्म-दिन सादगी के साथ मनाया जाता था| एक बार सेवाग्राम में जब उनका जन्म-दिन मनाया गया तो आश्रम के भाई-बहनों के अलावा इधर-उधर के भी काफी लोग जमा हो गए|
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गांधीजी समय पर प्रार्थना-सभा में आए तो देखते क्या हैं, उनके सामने घी का दीया जल रहा है| बात नई थी, गांधीजी उस ओर कुछ क्षण तक देखते रहे| उसके बाद प्रार्थना शुरू हो गई|
प्रार्थना समाप्त होने पर गांधीजी का प्रवचन आरंभ हुआ| सब लोग शांत होकर उनकी ओर देखने लगे|
गांधीजी ने बड़े गंभीर स्वर में पूछा – “यह दीया कौन लाया है?”
पास बैठी बा ने कहा – “मैं लाई हूं|”
“गांव से|” बा बोलीं – “आज आपकी वर्षगांठ है न!”
गांधीजी ने गहरी व्यथा के साथ कहा – “आज अगर कोई सबसे बुरा काम हुआ है तो वह यह कि बा ने घी का दीया जलाया| आज मेरी वर्षगांठ है इसलिए ऐसा किया गया है| आसपास के गांवों में लोग कैसे रहते और जीते हैं यह मैं रोज देखता हूं| उन बेचारों को ज्वार – बाजरे की सूखी रोटी पर चुपड़ने के लिए तेल तक नहीं मिलता और आज यहां मेरे आश्रम में घी का दीया जल रहा है| बेचारे गरीब किसानों को जो चीज नसीब न हो, उसे हम इस तरह कैसे बरबाद कर सकते हैं?”
कहते-कहते उनका दर्द इतना उभरा कि उनकी आंखें गीली हो आईं| उनकी वे गीली आंखें आज भी सूखी नहीं है और उनका वह दर्द तो आज और भी बढ़ गया है| इसी से साबित होता है कि गांधीजी ने अपने लिए कभी कुछ नहीं सोचा, वो सदा दूसरों के लिए जिए हैं|