फलों की मिठास
बौद्ध वाड्मय जातक की एक कथा है| एक बार वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त अपनी न्यूनता और दोष ढूँढने के लिए उत्तर भारत के कई नगरों में गए| उन्हें उनके दोष कहने वाला कही कोई नहीं मिला|
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अंत में हिमालय में बोधिसत्व के पास पहुँचे| बोधिसत्व ने राजा का कुशल-क्षेम पूछा और कहा कि वह आश्रम के पेड़ों से मनचाहे फल तोड़कर खा ले| राजा ने समीपस्थ एक वृक्ष को देखा, वह फलों से लदा था| उन्होंने उस पेड़ से पके-मीठे गोदे (एक विशेष) फल तोड़े| राजा ने उन मीठे फलों को खाने के बाद कहा- “क्या कारण है, ये फल तो बहुत ही मीठे हैं?” बोधिसत्व ने उत्तर दिया- “निश्चय ही देश का राजा धर्मानुसार न्यायपूर्वक राज्य करता है, उसी से ये फल मीठे हैं| राजा के अधार्मिक होते ही मधु, शक्कर और जंगल के फल-फूल अमधुर हो जाते हैं|”
बोधिसत्व से विदा लेकर राजा चले गए| राजा सोचने लगे कि क्या ही अच्छा हो कि जंगल के निवासी इन मुनियों से भी कुछ कर वसूल किया जाए| वाराणसी पहुँचते-पहुँचते राजा की नीयत में प्रजा पालन की जगह धन एकत्र करने की इच्छा जागृत हो उठी|
कुछ महीनों के बाद ब्रह्मदत्त पुनः तपस्वी की कुटिया में पहुँचे| इस बार उन्हें वन के पके कडुए लगे और उन्हें थूक दिया| इस बार तपस्वी बोधिसत्व ने कहा- “निश्चय ही इस देश का राजा प्रजा के कल्याण की जगह स्वार्थ-परायण एवं अधार्मिक हो गया है, इसी से फल-फूल न केवल रसहीन हो गए हैं, उनमें कडुआपन भी आ गया है|”
राजा ब्रह्मदत्त ने इस परिवर्तन से सीख लेकर भविष्य में सदा धर्मानुसार प्रजा के कल्याण का व्रत लिया और उसे सदा निभाया| जिस देश के राजा के मन में लालच आ जाता है वहाँ के फल-फूल रसहीन हो जाते हैं|