एक सदाचार-कथा
राजा हरिश्चन्द्र के कोई संतान न थी| उन्होंने पर्वत और नारद- इन दो ऋषियों से इसका उपाय पूछा| देवर्षि नारद ने उन्हें वरुणदेव की आराधना करने की सलाह दी| राजा ने वरुण की आराधना की और पुत्र-प्राप्ति कर उससे उनके यजन की भी प्रतिज्ञा की| इससे उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ और उसका नाम रोहित रखा|
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कुछ दिन बाद जब वरुण ने हरिश्चन्द्र को अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कराया तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘जब तक शिशु के दाँत नही उत्पन्न होते, वह शिशु अमेध्य रहता है, अतः दाँत निकलने पर यज्ञ करना उचित होगा|’
वरुण ने बच्चे के दाँत निकलने पर जब उन्हें पुनः स्मरण दिलाया, हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘अभी तो इसके दूध के दाँत के ही दाँत निकले है, यह अभी निरा बच्चा ही है| दूध के दाँत गिरकर नए दाँत आ जाने दीजिए, तब यज्ञ करूँगा|’ फिर दाँत निकले पर वरुण ने कहा- ‘अब तो बालक के स्थायी दाँत भी निकल आये; अब तो यज्ञ करो|’ इस पर हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘यह क्षत्रियकुलोत्पन्न बालक है| क्षत्रिय जब तक कवच धारण नही करता, तब तक किसी यज्ञिय कार्य के लिए उपयुक्त नही होता| बस, इसे कवच-शस्त्र धारण करने योग्य हो जाने दीजिए, फिर आपके आदेशानुसार यज्ञ करूँगा|’ वरुण ने उत्तर दिया- ‘बहुत ठीक|’ इस प्रकार रोहित सोलह-सत्ररह वर्षों का हो गया और शस्त्र-कवच भी धारण करने लगा| तब वरुण ने फिर टोका| हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘अच्छी बात है| आप कल पधारे| सब यज्ञिय व्यवस्था हो जाएगी|’
हरिश्चंद्र ने रोहित को बुलाकर कहा- ‘तुम वरुण देव की कृपा से मुझे प्राप्त हुए हो, इसलिए मैं तुम्हारे द्वारा उनका यजन करूँगा|’ किंतु रोहित ने यह बात स्वीकार नही की और अपना धनुष-बाण लेकर वन चला गया| अब वरुण देव की शक्तियों ने हरिश्चंद्र को पकड़ा और वे जलोदर रोग से ग्रस्त हो गए| पिता की व्याधि का समाचार जब रोहित ने अरण्य में सुना, तब वह नगर की ओर चल पड़ा| परंतु बीच मार्ग में इंद्र पुरुष का वेश धारण कर उसके समक्ष प्रकट हुए और प्रतिवर्ष उसे एक-एक श्लोक द्वारा उपदेश देते रहे| यह उपदेश पाँच वर्षों में पूरा हुआ और तब तक रोहित अरण्य में ही निवास करते हुए उनके उपदेश का लाभ उठाता रहा| इंद्र के पाँच श्लोकों का वह उपदेश-गीत इस प्रकार है-
‘रोहित! हमने विद्वानों से सुना है कि श्रम से थककर चूर हुए बिना किसी को धन-संपदा प्राप्त नही होती| बैठे-ठाले पुरुष को पाप धर दबाता है| इंद्र उसी का मित्र है, जो बराबर चलता रहता है- थककर, निराश होकर बैठ नही जाता| इसलिए चलते रहो|’
‘जो व्यक्ति चलता रहता है, उसकी पिंडलियाँ (जाँघें) फूल देती है (अन्यों द्वारा सेवा होती है)| उसकी आत्मा वृद्धिगंत होकर आरोग्यादि फल की भागी होती है तथा धर्मार्थ प्रभासादि तीर्थों में सतत चलने वाले के अपराध और पाप थककर सो जाते है| अतः चलते ही रहो|’
‘बैठने वाले की किस्मत बैठ जाती है, उठने वाले की उठती, सोने वाले की सो जाती है और चलने वाले का भाग्य प्रतिदिन उतरोतर चमकने लगता है| अतः चलते ही रहो|’
‘सोने वाला पुरुष मानो कलियुग में रहता है, अंगडाई लेने वाला व्यक्ति द्वापर में पहुँच जाता है और उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति त्रेता में आ जाता है तथा आशा और उत्साह से भरपूर होकर अपने निश्चित मार्ग पर चलने वाले के सामने सतयुग उपस्थित हो जाता है| अतः चलते ही रहो|’
‘उठकर कमर कसकर चल पड़ने वाले पुरुष को ही मधु मिलता है| निरंतर चलता हुआ पुरुष ही स्वादिष्ट फलों का आनंद प्राप्त करता है; सूर्यदेव को देखो तो सतत चलते रहते है, क्षणभर भी आलस्य नही करते| इसलिए जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक मार्ग के पथिक को चाहिए कि बाधाओं से संघर्ष करता हुआ चलता ही रहे, आगे बढ़ता ही रहे|
-इस सुंदर उपदेश में रोहित को इंद्र ने बराबर चलते रहने की शिक्षा दी है, जो उन्हें किसी ब्रह्मवेता से प्राप्त हुई थी| गीता का मूल उद्देश्य आत्मा का उद्बोधन है, जिसमें बताया गया है कि क्या अभ्युदय और क्या निःश्रेयस- दोनों की उन्नति के पथिक को बिना थके आगे बढ़ते रहना चाहिए; क्योंकि चलते रहने का नाम ही जीवन है| ठहरा हुआ जल, रुका हुआ वायु गंदा हो जाता है| बहते हुए झरने के जल में ताजगी और जिंदगी रहती है, प्रवाहशील पवन में प्राणों का भंडार रहता है| कोटि-कोटि वर्षों से अनंत आकाश में निरंतर चलते हुए सूर्यदेव पर द्रष्टि डालिए, वह असंख्य लोक-लोकांतरों का भ्रमण करते हुए हमारे द्वार पर आकर हमें निरंतर उपदेश दे रहे है| जो अपने मार्ग में आगे कदम उठाते बढ़ते जाते है, भगवान् उनका कल्याण निश्चित-रुप से स्वयं करते है|
अंत में रोहित को वन में ही अजीगर्त मुनि अपने तीन पुत्रों के साथ भूख से संतप्त दृष्टिगोचर हुए| रोहित ने उन्हें सौ गायें देकर उनके एक पुत्र शुनः शेप को यज्ञ के लिए मोल ले लिया| हरिश्चन्द्र का यज्ञ आरंभ हुआ| उनके यज्ञ में विश्वामित्र होता, जमदग्नि अध्वर्यु, वशिष्ठ ब्रह्मा और अयास्य उद्गाता बने| शुनः शेप ने विश्वामित्र के निर्देश से प्रजापति, अग्नि, सविता और वरुण आदि देवों की स्तुति-प्रार्थना की| इससे वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो गया| वरुणदेव ने भी संतुष्ट होकर राजा हरिश्चन्द्र को रोग से मुक्ति प्रदान की| इस प्रकार इंद्र के उपदेश से देवों की स्तुति, प्रार्थना और उपासना तथा यज्ञ की सफलता से रोहित का जीवन भी सफल एवं आनंद से परिपूर्ण हो गया|’