एक अपूर्व साहस
एक बार की घटना है| 30 मार्च, 1919 के दिन दिल्ली में एक अभूतपूर्व हड़ताल हुई| सब ट्रामगाडियाँ और टाँगें बंद थे| दोपहर के समय स्वामी श्रद्धानंद जी को सूचना मिली कि दिल्ली स्टेशन पर गोली चल गई है|
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वह शीघ्र वहाँ गये| वहाँ एकत्र भीड़ उनके नेतृत्व में कंपनी बाग गयी| जल्दी ही सभा में 25 हज़ार लोगों की उपस्थिति हो गई| स्वामी जी भाषण दे रहे थे कि सूचना मिली एक घंटाघर पर गोली चली है और दस-बारह व्यक्ति घायल हो गए हैं| स्वामी जी ने उत्तेजित जनता को शांत रखा|
इसी बीच फौज ने सभा को घेर लिया| घुड़सवार दस्ते के साथ दिल्ली का चीफ कमिश्नर वहाँ आया| स्वामी जी ने चीफ कमिश्नर को चुनौती दी- “यदि आपके आदमियों ने लोगों को उत्तेजित किया तो मैं शांतिरक्षा का जिम्मेदार नहीं हूँ|”
स्वामी जी सभा से लौटते हुए घंटाघर गये| अंग्रेज सिपाहियों ने पंक्ति बाँध ली| इसी वक्त गोली दागने की आवाज आई| जनता को चुप खड़ा रहने का आदेश देकर स्वामी जी अकेले अंग्रेज सैनिकों के सम्मुख गये| तुरंत दो बंदूकें उनकी छाती पर तन गई| सैनिकों ने कहा- “तुम्हें छेद देंगे|”
एक हाथ से उत्तेजित जनता को चुप कराते हुए और दूसरे हाथ से अपनी छाती की तरफ़ इशारा करते हुए स्वामी जी बोले- “मैं खड़ा हूँ| गोली मारो|” इतने में आठ-दस और बंदूकें उनकी छाती पर तान दी गई|
तीन मिनट तक यही दृश्य रहा| बंदूकें स्वामी जी की छाती तक पहुँच चुकी थी कि हट गयी क्योंकि एक घुड़सवार अंग्रेज ने सिपाहियों को वापस लौटाया| उस दिन वीर स्वामी श्रद्धानंद जी के अपूर्व साहस से ही दिल्ली में शांति सुरक्षित रह पाई| इंसान को साहस का साथ कदापि नहीं छोड़ना चाहिए|