द्यूतक्रीड़ा

द्यूतक्रीड़ा

दुर्योधन सदा से ही ही पांडवों को घृणा की दृष्टि से देखता था, परन्तु इंद्रप्रस्थ से लौटने के बाद से तो उसके क्रोध और ईर्ष्या की कोई सीमा नहीं थी| राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर को सर्वशक्तिमान राजा के रूप में प्रतिष्ठा पाते देख उसका हृदय ईर्ष्या से जल रहा था|

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पांडवों से सभी स्नेह करते थे| इसलिए वह उन्हें कुछ अधिक हानि नहीं पहुंचा पाता था और हर बार हाथ मलकर रह जाता| ऐसी मनोस्थिति में उसने अपने मामा शकुनि की शरण ली| शकुनि ने, जो कि स्वभाव से चतुर और कपटी था, दुर्योधन को सलाह दी कि वह युधिष्ठिर को द्यूतक्रीड़ा के लिए आमंत्रित करे| युधिष्ठिर की चौरस के खेल में अत्यधिक रूचि थी, परन्तु राजसूय यज्ञ के बाद से वह पासे न छूने की शपथ ले चुके थे|

दुर्योधन इस योजना को सुनकर अति प्रसन्न हुआ और अपने पिता धृतराष्ट्र से पांडवों को द्यूतक्रीड़ा के लिए हस्तिनापुर में आमंत्रित करने को कहा|

धृतराष्ट्र को उसकी योजना अच्छी नहीं लगी| उन्होंने अपने पुत्र से कहा, :यदि तुम इस तरह का व्यवहार करते रहे तो स्वयं अपने विनाश के लिए उत्तरदायी होगे|” धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाकर उनसे सलाह माँगी| विदुर ने शकुनि की योजना का कड़ा विरोध किया, परन्तु दुर्योधन ने राजा धृतराष्ट्र को आत्महत्या की धमकी देकर अपनी बात मनवा ली| युधिष्ठिर को आमंत्रित करने का काम विदुर को सौंपा गया|

विदुर को अचानक इंद्रप्रस्थ में देखकर युधिष्ठिर बहुत चकित हुए और पूछा, “आप दुखी प्रतीत हो रहे हैं, इसका क्या कारण है?” उन्होंने उत्तर दिया, “मुझे आदेश दिया गया है कि मै आप सबको द्यूतक्रीड़ा के लिए आमंत्रित करूँ? मैं इस तरह की क्रीड़ा को विनाशकारी मानता हूँ क्योंकि इससे शत्रुता और अशांति को बढ़ावा मिलाता है| आगे आप जैसा उचित समझें, करें|”

युधिष्ठिर ने निश्चय किया कि वे क्षत्रिय होने के नाते इस चुनौती को स्वीकार करेंगे और हस्तिनापुर जाएँगे| वे कुंती, द्रौपदी और अपने चारों भाइयों के साथ हस्तिनापुर की ओर चल पड़े| वहां पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि द्यूतक्रीड़ा के एक विशेष सभागृह बनाया गया था| क्रीड़ा भवन में धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर आदि की उपस्थिति में खेल आरंभ हुआ|

दुर्योधन बोला, “मामा शकुनि मेरी ओर से पासा फेंकेंगे|”

युधिष्ठिर जानते थे कि किसी की ओर से दाँव खेलना नियम के विरुद्ध है| वे यह भी जानते थे कि शकुनि छल करेगा, परन्तु वे कुछ कह नहीं पाए| उन्होंने खेलना प्रारंभ किया| युधिष्ठिर के हार हुई| उन्होंने अन्य आभूषण दाँव पर लगाए| शकुनि ने अपने पासे बहुत चालाकी से फेंके और फिर से युधिष्ठिर की बाजी खाली गई| पहले आभूषण फिर मवेशी, उसके बाद दास-दासी, धन-दौलत, फिर राजमहल, फिर गांव-एक-एक करके वे सब कुछ हारते गए|

दुर्योधन ने कहा, “अब दाँव पर क्या लगाओगे?”

युधिष्ठिर के पास अब शेष कुछ नहीं था| उन्होंने अनुज नकुल को दाँव पर लगा दिया| वे पुनः परास्त हो गए| हारे हुए जुआरी की तरह, सुध-बुध खोकर, वे एक के बाद एक सब भाइयों को दाँव पर लागते रहे| क्रमशः हर  दाँव उनके विरुद्ध गया| तत्पश्चात उन्होंने स्वयं को दाँव पर लगा दिया| पुनः वे पराजित हुये| और इस तरह सभी पांडव भाई कौरवों के दास बन गए|

“द्रौपदी!” शकुनि गरजकर कहा, “तुम द्रौपदी को दाँव पर लगा सकते हो” दुर्योधन ने भी कहा, “हाँ, इस तरह तुम सब कुछ वापस जीत सकते हो|” मूक दर्शकों में से विदुर चिल्ला पड़े, “रुको, बंद करो यह सब| दुर्योधन, अब खेल समाप्त करो, मै और अनर्थ नहीं होने दूंगा|” परन्तु दुर्योधन ने एक न सुनी, वह तो युधिष्ठिर का उत्तर पाने के लिए उत्सुक था|

युधिष्ठिर सोच रहे थे, “द्रौपदी? मै उसे कैसे लगा सकता हूँ|” फिर सोचा, “हो सकता है इस बार मेरी जीत हो| हाँ, यदि मै एक बार खेलूँ तो जीत सकता हूँ|” और उन्होंने द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया| पासा फेंका गया और वे फिर हार गए| इस तरह युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी गँवा दिया|

पूरे सभा में सन्नाटा छा गया-मानों सब होश गँवा बैठे हों| दुर्योधन ने आदेश दिया, “उस घमंडी द्रौपदी को सभा में लाया जाए, अब वह हमारी दासी है|” उसने अपने भाई दुशासन को द्रौपदी को लाने के लिए भेजा|

निस्संदेह भीम, अर्जुन आदि बहुत क्रोधित थे| परन्तु अपना राज-पाट, वस्त्र-अलंकार हारने के बाद वे सब दुर्योधन के सेवक थे| देखते ही देखते, दुशासन सुवर्णमयी द्रौपदी के केश पकड़े, घसीटता हुआ, उसे राजसभा में सबके सम्मुख ले आया| रोती-बिलखती, अपमानित द्रौपदी ने विदुर और भीष्म से विनती की, “यह सत्य नहीं हो सकता| मुझे बताइए क्या यह सत्य है कि युधिष्ठिर मुझे द्युत में हार गये हैं?”

भीष्म और विदुर ने लज्जा से अपने शीश झुका लिए| वे कुछ उत्तर देने में असमर्थ थे|

द्रौपदी ने फिर प्रश्न किया, “क्या युधिष्ठिर ने पहले स्वयं को दाँव पर लगाया था? तो फिर वह मुझे कैसे हार सकते हैं? यदि वे स्वयं स्वतंत्र नहीं थे, तो मुझे, एक स्वतंत्र नारी को, कैसे दाँव पर लगा सकते थे?” सभी उपस्थिति लोगों, विशेषतः दुर्योधन के भाई विकर्ण ने द्रौपदी का समर्थन किया कि युधिष्ठिर स्वयं हारने के बाद यह अधिकार खो बैठे थे|

परन्तु दुर्योधन ने गरज कर कहा, “नहीं, जब युधिष्ठिर ने अपनी सम्पूर्ण-अधिकृत संपत्ति दाँव पर लगा दी और जब हार गये तब द्रौपदी को भी वे हार गए हैं|” तभी कर्ण के कहने पर दुर्योधन ने दुशासन को अपनी जांघ पर हाथ मारते हुए आज्ञा दी कि वह द्रौपदी को वस्त्रहीन कर दें| सभा में स्तब्धता छा गई| घुटनों के बल गिरकर द्रौपदी श्रीकृष्ण से अपनी लाज की रक्षा की भीख माँगने लगी|

दुशासन जितनी तीव्र गति से वस्त्र-हरण कर रहा था, उतनी ही तीव्रता से द्रौपदी का चीर बढ़ता जा रहा था| ऐसा प्रतीत होता था कि द्रौपदी के वस्त्र उतरना असंभव है| दुशासन तब तक उसके वस्त्र खींचता रहा जब तक कि वह थककर चूर नहीं हो गया| परन्तु फिर भी वह द्रौपदी को वस्त्रहीन नहीं कर पाया|

द्रौपदी को सिसकता और अपमानित देखकर भीम आगबबूला हो उठे| क्रोधित होकर उन्होंने शपथ ली कि एक दिन वे अवश्य दुर्योधन की जांघ अपनी गदा से तोड़ देंगे और दुशासन के सिने का रक्तपान करेंगे| उपस्थितगण भयभीत और स्तब्ध होकर भीम की शपथ सुन रहे थे| धृतराष्ट्र यह सब सुनकर घबरा उठे|

विदुर ने सलाह दी, “महाराज उन्हें बुलाकर कहा, “मुझे खेद है, मेरे पुत्रों ने तुम्हारे साथ धृष्टतापूर्ण व्यवहार किया है|”

राजा धृतराष्ट्र ने द्रौपदी को बुलाकर कहा, “मुझे खेद है, मेरे पुत्रों ने तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार किया| मैं तुम्हें स्वतंत्र करता हूँ| तुम्हारी जो इच्छा है, मुझसे कहो, मैं उसे पूर्ण करूँगा|”

द्रौपदी ने पांडवों की मुक्ति की इच्छा प्रकट की| धृतराष्ट्र ने पांडवों से कहा, “तुम सब इंद्रप्रस्थ जाओ और वहां शान्ति से राज्य करो|”

परन्तु दुर्योधन क्रोध से काँपता हुआ अपने पिता के पास आया और बोला, “आपने यह क्या किया? मैंने तो उनसे सब कुछ छीन लिया था, आपने सब लौटा क्यों दिया| आप उन्हें पुनः बुलाइए, हम फिर एक बार पासा खेलेंगे| यदि इस बार भी वे पराजित हुए तो उन्हें बारह वर्षों का वनवास और तेरह वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा| यदि उन्हें पहचान लिया गया तो यही क्रम पुनः लागू होगा| यदि मैं द्युत में हारा तो यही दंड मुझे भी स्वीकार  होगा|”

पुत्र-मोह में डूबे, दुर्बल राजा धृतराष्ट्र ने दुर्योधन के कथनानुसार पुनः पांडवों को द्यूतक्रीड़ा के लिए बुलाया| दुर्योधन ने उन्हें ललकारा और अपनी शर्त मानने के लिए विवश किया| पांडव फिर हार गए|

कैसा अभागा क्षण था! पांडवों को बारह वर्ष वन में रहना था और वनवास समाप्त होने पर उन्हें एक वर्ष अज्ञातवास में व्यतीत करना था| यदि उन्हें पहचान लिया गया तो पुनः बारह वर्षों  तक वन में रहने का दंड भुगतान होगा….| अश्रुपूर्ण नेत्रों और दुखी हृदय से सब पांडव भाइयों ने द्रौपदी सहित विदा ली और वन की ओर प्रस्थान किया| उपस्थित बड़े-बुढों और प्रजाजनों के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली| सब विवश होकर भाग्य के खेल को देखते रह गए|

भारत के