दुर्योधन की मृत्यु
दोनों सेनाओं में सत्रह दिनों से युद्ध चल रहा था| कर्ण की मृत्यु के बाद राजा शल्य को कौरव सेना का संचालन बनाया गया| संग्राम के अठारहवें दिन युधिष्ठिर और शल्य का आमना-सामना हुआ और युधिष्ठिर ने शल्य का वध कर दिया| शकुनि और उसका पुत्र, नकुल और सहदेव के हाथों मारे गए|
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दुर्योधन शोक में डूब गया| कौरवों की ओर से केवल अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा और दुर्योधन जीवित थे| दुर्योधन के सभी भाई मारे गए थे| कर्ण, जो उसका सबसे प्रिय मित्र था और जिसने सदा उसकी सहायता की थी, वह भी वीरगति को प्राप्त कर चूका था| निराश होकर दुर्योधन सरोवर की ओर दौड़ा और ऊँची घास में छिप गया| [quote width=”auto” align=”left” border=”grey” color=”grey” title=”Submit your story to publish in this portal”] अपनी आप बीती, आध्यात्मिक या शिक्षाप्रद कहानी को अपने नाम के साथ इस पोर्टल में सम्मलित करने हेतु हमें ई-मेल करें । (Email your story with your name, city, state & country to: [email protected]) [/quote]
युधिष्ठिर ने दुर्योधन को जाते देखा और बोले, “बाहर आओ, तुम छिप क्यों रहे हो?”
दुर्योधन ने कहा, “मेरा सम्पूर्ण राज्य ले लो, मुझे अब कुछ नही चाहिए| मैंने अपने भाइयों को खो दिया है अब मुझमें जीने की इच्छा नहीं है|” युधिष्ठिर ने कहा, अब राज्य देने से क्या लाभ? वह तो मैं सहजता से तुमसे ले सकता हूँ? बाहर आकर क्षत्रियों के समान युद्ध करो|” दुर्योधन अकेला था और पांडव पांच थे इसलिए उसने खा कि वह उनके साथ युद्ध नहीं करेगा|
युधिष्ठिर ने कहा, “क्षत्रिय नियमों के अनुसार हम एक-एक करके तुमसे युद्ध करेंगे|”
दुर्योधन के पास अस्त्र नही थे, इसलिए उन्होंने उसे शस्त्र चुनने की अनुमति भी दे दी| दुर्योधन ने पहले भीम से युद्ध करना चाहा, क्योंकि वह उससे बहुत घृणा करता था| बहुत समय तक उसने भीम के साथ गदा-युद्ध किया| दोनों एक-दूसरे पर गदाप्रहार करते रहे| तभी कृष्ण ने अपनी जाँघ छूकर भीम को संकेत किया|
भीम को स्मरण हो गया कि दुर्योधन ने द्रौपदी का अपमान किया था, उसने दुर्योधन की जांघ को कुचलने की शपथ ली थी| परन्तु नाभि के नीचे वार करना क्षत्रिय नियमों के विपरीत था| क्रोध और रोष से उबलते हुए भीम ने अपनी गदा जोर से हवा में घुमाई| उसी क्षण दुर्योधन वार करने के लिए ऊँचाई तक कूदा और भीम की गदा से उसकी जाँघ चकनाचूर हो गई| दुर्योधन लहूलुहान होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा| प्रतिज्ञा पूरी होने पर भीम तेजी से जाकर उसके सिर पर कूदने लगे| सभी लोग भयभीत होकर देख रहे थे|
युधिष्ठिर ने चिल्लाकर कहा, “रुको, भीम, यह हमारे नियमों के विरुद्ध है| दुर्योधन एक राजा है और हमारा चचेरा भाई है|” दुर्योधन ने कराहते हुए कहा, “उसे मेरे सिर पर नृत्य करने दो| मुझे इसकी क्या चिंता? तुमने छल से कर्ण और द्रोण को मारा है| अब यह राज्य मृत और मरते हुए लोगों सहित तुम्हारा है| इसमें विधवाएँ और अनाथ बालक-बालिकाएँ ही हैं, इनसे तुम्हें क्या खुशी मिलेगी?”
युधिष्ठिर ने लज्जा और दुःख से अपना सिर झुका लिया| दूसरे पांडव भाई भी एक-दूसरे की ओर देखकर लज्जित हुए|
तभी श्रीकृष्ण बोले, “दुर्योधन! तुम अपनी कहो| बालक अभिमन्यु को निहत्था करके उसका वध करवाते समय तुम्हारा धर्म कहाँ था? आज तुम बुरे कार्यों और लालच का परिणाम भोग रहे हो|
कृष्ण ने पांडवों की ओर मुड़कर कहा, “दुर्योधन को उचित और न्यायपूर्ण युद्ध में नहीं हराया जा सकता था| तुम्हारी भलाई के लिए यदि मैंने रणभूमि में अपनी मायावी शक्ति का प्रयोग नहीं किया होता तो तुम युद्ध में कभी विजयी नहीं हो पाते| अब पछताने से क्या लाभ? संध्या हो चुकी है, हमें अपने शिविर को लौट जाना चाहिए|”
प्रतिशोध की आग में जलता हुआ अश्वत्थामा दुर्योधन के निकट आकर बैठ गया| घायल दुर्योधन ने उसे सेना का संचालक बनाया| उस रात्रि जब निराश होकर अश्वत्थामा अपने शिविर लौट रहा था, अचानक उसने एक उलकू को सोते हुए दो पक्षियों को मारते देखा| उसके मन में एक विचार कौंधा| मध्य रात्रि में वह पांडवों के शिविर में गया और द्रौपदी के पाँच पुत्रों और उसके भाई धृष्टद्युम्न का निद्रावस्था में वध के दिया| पाँचों पांडव और कृष्ण दूसरे शिविर में थे, अतः वे इस पिशाचलीला से बच गये|
दुर्योधन अंतिम साँसें गिन रहा था| अश्वत्थामा ने आकर उसे पूरा वृत्तान्त सुनाया| दुर्योधन प्रसन्न हुआ और बोला, “तुमने वह कर दिखाया जो भीष्म और द्रोण नहीं कर सके, तुम शूरवीर हो,” और दुर्योधन ने आँखे बंद कर लीं|
प्रातःकाल अश्वत्थामा द्वारा किए कुकृत्य को देखकर पांडव शोक से व्याकुल हो उठे| द्रौपदी फूट-फूट कर रोने लगी| उसके पाँच पुत्र और भाई धृष्टद्युम्न अन्यायपूर्ण विधि से मारे गए थे| बिलखते हुए वह बोली, “ऐसे अधम कृत्य करनेवाले अश्वत्थामा को मार दो|” परंतु अश्वत्थामा को सदा जीवित रहने का आशीर्वाद मिला था भला वे उसे कैसे मार सकते थे? अभी अश्वत्थामा की प्रतिशोध की ज्वाला बुझी नहीं थीं| उसने घास का तिनका लिया| एक मन्त्र पढकर उसे फूँका| और अभिमन्यु की पत्नी गर्भवती उत्तरा पर फेंका| परन्तु कृष्ण आकर उत्तरा के सामने खड़े हो गए जिससे उसके होने वाले बालक की रक्षा हो सके|
धृतराष्ट्र संजय से युद्ध की प्रत्येक घटना का वर्णन पूछते| वे एक-एक योद्धा के विषय में जानना चाहते थे| संजय यथासम्भव उनके प्रश्नों के उत्तर देता| अपने पुत्रों की मृत्यु पर वे दुखी होते| दुर्योधन की मृत्यु का समाचार सुन वे बिलख-बिलखकर रोने लगे| “हाय पुत्र, मेरा मोह ही तेरे विनाश का कारण बना| एक-एक कर मेरे सौ पुत्रों ने बलि दे दी और मैं अभी भी जीवित हूँ|”
अश्वत्थामा कुरुक्षेत्र छोड़कर चला गया| द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और धृष्टद्युम्न का निद्रा में वध करने के अपने पाप के बोझ से दबा मृतवत वर्षों डर-डर भटकता रहा| परन्तु जाने से पहले उसने जन्म से ही प्राप्त अपने मस्तक की मुकुटमणि को पांडवों को देने का निश्चय किया| भीम को मणि देते हुए उसने कहा, “मैं पराजित हो चूका हूँ, इसे तुम ले लो|” भीम ने मुकुटमणि द्रौपदी को दे दी और द्रौपदी ने युधिष्ठिर को| द्रौपदी बोली, “तुम एक महान राजा हो| और केवल तुम सी इसे पहनने के योग्य हो|”
मणि देते ही अश्वत्थामा अत्यंत निर्बल और निस्तेज हो गया| उसकी सारी शक्ति और तेज मणि के कारण ही थे| इसके पश्चात वह ऋषि व्यास के आश्रम में चला गया|