द्रोण

द्रोण

हस्तिनापुर के राजभवन में कौरवो और पांडव राजकुमार एक साथ रहते थे| भीष्म और विदुर उनकी देखभाल किया करते थे| भीष्म की राजकुमारों को धनुर्विद्या का ज्ञान देने के लिए उपयुक्त शिक्षक की आवश्कता थी|

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एक दिन सभी राजकुमार उद्यान में गेंद खेल रहे थे| उनकी गेंद लुढककर पास ही एक कुएं में जा गिरी| गेंद को बाहर कैसे निकाला जाए, इसी सोच में सब कुमार कुएं के पास खड़े थे| उसी समय एक तेजस्वी ब्राह्मण उधर से निकले| उन्होंने राजकुमारो से पूछा, “क्या तुम गेंद को बाहर नहीं निकाल सकते? तुम सब तो क्षत्रिय प्रतीत होते हो, क्या अस्त्रविद्या नहीं जानते?” तुरन्त ही भीम बोल उठा, “यदि आप जानते है तो हमें यह गेंद निकाल दीजिए|”

देखते ही देखते, उस ब्राह्मण ने एक बाण कुएं के अन्दर फेंका जिसने गेंद को भेद दिया| उन्होंने दूसरा तीर छोड़ जिसने पहले तीर को भेद दिया, फिर तीसरा तीर जिसने दूसरे बाण को भेद दिया| और इस तरह वे एक के बाद एक बाण फेंकते चले गये, जब तक कि उनके हाथ में अंतिम बाण न आ गया| फिर उन्होंने धीरे से आखिरी बाण को खींचकर गेंद कुएं से बाहर निकाल ली| राजकुमार अचंभे में पड़ गए| राजभवन लौटने पर जब उन्होंने भीष्म को इस घटना के बारे में बताया तब भीष्म ने प्रसन्नता से कहा, “मै जानता हूं, वे कौन थे| वे महान धनुर्धारी द्रोणाचार्य के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकते| मैं चाहता हूं कि वे तुम्हें शिक्षा प्रदान करें| इस सम्बन्ध में मै स्वयं जाकर उनसे प्रार्थना करूंगा|”

भीष्म की विनती पर हस्तिनापुर में आ गए और राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देने लगे| सभी राजकुमार धनुर्विद्या में प्रवीण थे परन्तु अर्जुन श्रेष्ठ था| द्रोड़ के मन में अर्जुन के प्रति विशेष सद्भाव था| वे चाहते थे कि अर्जुन अद्वितीय धनुर्धर बने|

अर्जुन के विद्यार्थी काल की ही घटना है| एक रात भोजन करते समय हवा से दिया बूझ गया| अर्जुन तथा उसके भाई खाना खा रहे थे| एकाएक अर्जुन के मन में विचार कौंधा कि आदत होने के कारण अँधेरे में भी हाथ सीधा मुंह की ओर ही जाता है| अर्थात अभ्यास से कुछ भी संभव हो सकता है| उस दिन से अर्जुन ने अँधेरे में भी निशाना लगाने का अभ्यास शुरू कर दिया| द्रोण बहुत प्रसन्न हुए और अर्जुन को संसार का श्रेष्ठतम धनुर्धर बनने का आशीर्वाद दिया|

एक बार द्रोणाचार्य की आज्ञा से सब कुमारगण जंगल में शिकार खेलने गए| उनके साथ एक कुत्ता भी था| जंगल में वह कुत्ता भटक गया और जब वापस लौटा तब उसका मुंह बाणों से कुछ इस चतुराई से भेदा गया था कि वह भौंक नहीं पा रहा था| उस निपुण वीर को ढूंढ़ते हुए-जिसने कुत्ते की यह दशा की थी-अर्जुन श्यामल-वर्ण के एक युवक के पास जा पहुंचे| उन्होंने पूछा, “आप कौन हैं? और आपको ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या किसने सिखाई है?”

“मै निषाद नामक भील जाति के राजा हिरन्यधनु का पुत्र एकलव्य हूं| द्रोणाचार्य मेरे गुरुवर हैं| उन्होंने स्वयं एक भील युवक को सिखाने से इनकार कर दिया था इसलिए मै उनकी इस प्रतिमा के सामने निरंतर अभ्यास करता हूँ|”

जब द्रोण को अर्जुन से इस घटना का पता चला, वे अत्यंत चिंतित हुए| “क्या एकलव्य इन राजकुमारों से आगे निकल  जाएगा?” वे सोचने लगे| बहुत सोच-विचार के बाद वे अर्जुन को लेकर उसी वन में गए| वहां उन्होंने एकलव्य को अपनी प्रतिमा के समक्ष दृढ़ता के साथ अभ्यास करते देखा|

एकलव्य ने गुरु द्रोण को देखते ही उनके चरण छूकर प्रणाम किया|

द्रोण ने कहा, “यदि तुम सच में मेरे शिष्य हो तो तुम्हें मुझे गुरुदक्षिणा देनी होगी|”

एकलव्य बोला, “गुरुवर, मेरा सर्वस्व आपका है, आज्ञा दें|”

“तुम मुझे अपने दाहिने हाथ का अंगूठा गुरुदक्षिणा में दे दो,” द्रोण ने कहा|

द्रोण के कठोर शब्दों को सुनकर भी एकलव्य ने हँसते-हँसते अपने हाथ का अंगूठा काटकर दे दिया|

इसके पश्चात निषाद राजकुमार ने हाथ की चार उँगलियों से धनुर्विद्या आरंभ कर दी परन्तु फिर वह पहले के सामान निपुणता न कर सका|

गुरुवर ने ऐसा क्यों किया? शायद उनके मन में वही बात रही होगी कि अर्जुन संसार का सबसे अद्वितीय धनुर्धर बने|

अपने शिष्यों की कुशलता परखने के लिए एक बार द्रोणाचार्य ने एक पेड़ पर एक कृत्रिम पक्षी रखा और सब कुमारों को बुलाया| सबसे पहले युधिष्ठिर को बुलाकर उन्होंने पूछा, “क्या तुम पेड़ पर बैठी चिडियों को देख सकते हो? उसकी आँख पर लक्ष्य साधो|”

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, “जी हां, मै देख सकता हूँ|”

द्रोण ने पुनः प्रश्न किया, “क्या तुम और भी कुछ देख रहे हो?”

युधिष्ठिर बोला, “मै आकाश, पेड़ और बादल भी देख रहा हूं|”

द्रोण ने कहा, “नहीं, रहने दो, तुमने पर्याप्त शिक्षा नहीं पाई है|” उन्होंने दुर्योधन को बुलाकर वही प्रश्न दुहराए, और उसने भी वही उत्तर दिए|

द्रोण झुंझलाकर बोले, “नहीं, नहीं, तुम भी अभी परिपूर्ण नहीं हो”

द्रोण ने एक-एक करके सभी राजकुमारों से वही प्रश्न किये परन्तु उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला| अर्जुन की बारी आने पर उन्होंने उससे भी वही सब पूछा|

अर्जुन ने कहा, “मै सिर्फ पक्षी देख रहा हूँ|”

द्रोण ने पुनः प्रश्न किया, “पक्षी का कौन-सा भाग तुम्हें दिखाई दे रहा है?”

अर्जुन बोले, “केवल उसकी आंख|”

द्रोण प्रसन्नतापूर्वक बोले, “ठीक है, तुम ही सच्चे अर्थों में धनुर्धारी हो| एक धनुर्धारी को अपने लक्ष्य के आलावा और कुछ नहीं  दिखना चाहिए, तभी वह सफलता से बाण चला सकता है| निस्संदेह तुम एक महान धनुर्धारी बनोगे|”

राजकुमारों का प्रशिक्षण पूरा होने के उपरांत भीष्म ने एक खेल-कूद प्रतियोगिता का आयोजन किया| हस्तिनापुर की सीमा पर एक विशाल रंगमंडप बनाया गया| इसमें राजकुमारों ने हस्तिनापुर निवासियों को अपनी धनुर्विद्या का परिचय दिया| अर्जुन का कौशल देखकर सबने दांतों तले उंगली दबा ली| अर्जुन हवा में अग्निबाण चलाकर ज्वाला प्रज्वलित कर सकते थे; आग की लपटों को शांत करने के लिए वे वरुण बाण का प्रयोग करना जानते थे और वायु द्वारा आकाश के बादलों को हटा भी सकते थे|

प्रशंसा के बोल सब तरफ गूंज ही रहे थे कि उसी समय एक नवयुवक आगे आया और अर्जुन को ललकार कर बोला, “अर्जुन, तुमने जो कला दिखाई है, उसमें मै भी पारंगत हूं| मैं तुम्हें दिखा सकता हूँ कि मै तुमसे अधिक उच्चकोटि का धनुर्धारी हूँ|”

इन शब्दों को सुनकर सभी दर्शक स्तब्ध रह गए| कौन था यह सुन्दर, तेजस्वी, वीर युवक? वह था-कुंती-पुत्र कर्ण जिसे कुंती ने तुरन्त पहचान लिया| परन्तु वह कुछ बोल न पाई| कर्ण जैसे ही अपनी कुशलता दिखाने के लिए आगे बढ़ा, कुलगुरु क्रिपाचार्य बोले, “अर्जुन राजकुंवर है| उसके स्पर्धी को भी अपना कुल-गोत्र बतलाना  होगा|”

नवयुवक ने उत्तर दिया, “मै कर्ण हूँ|” इससे अधिक कुछ कहना सूतपुत्र कर्ण के लिए संभव नहीं था| कर्ण अपने पिता का नाम प्रकट नहीं कर पाया, इसलिए अर्जुन ने उसके साथ स्पर्धा से इनकार कर दिया|

ठीक उसी समय दुर्योधन कर्ण की सहायता के लिए आगे बढ़ा| अर्जुन को नीचा दिखाने का अच्छा अवसर देखकर दुर्योधन ने घोषणा की, “मै इस नवयुवक को अंग देश का राजा नियुक्त करता हँ| अर्जुन! अब तुम इससे प्रतियोगिता कर सकते हो| यदि तुम राजकुमार हो तो यह राजा है|” तभी वृद्ध सारथी, कर्ण को ले जाने के लिए वहां आ पहुंचा|

इस तरह सबको ज्ञात हो गया कि कर्ण सारथी-पुत्र था| भला सूतपुत्र को राजकुमारों के समान स्थान कैसे मिलता! अतः कर्ण बोझिल मन से, सिर झुकाए, रंगभूमि छोड़कर चला गया| वह हृदय से अर्जुन से घृणा करने लगा| दुर्योधन ने भरी सभा में उसका पक्ष लिया था इसलिए उसके प्रति कर्ण सदैव आभारी रहा| कर्ण ने सोचा, “यदि कभी दुर्योधन को मेरी सहायता की आवश्कता होगी, मै उसकी अवश्य मदद करूंगा| और अवसर मिलने पर अर्जुन का वध करूंगा|”

द्रोण अपने आचार्य अग्निवेश के आश्रम में धनुर्विद्या का अध्ययन कर रहे थे| तब पांचाल राज्य के राजकुमार द्रुपद से उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई| शिक्षा की समाप्ति पर द्रोण सादा जीवन व्यतीत करते रहे| उन्हें संसार की सुख-सुविधाओं से कोई लगाव नहीं था| परन्तु कृपी से विवाह के पश्चात पुत्र पैदा होने पर, उन्हें धन-संपत्ति की आवश्यकता का अनुभव हुआ| एक दिन जब भूख से बिलखते पुत्र अश्वत्थामा का दुःख उनसे सहन न हुआ तो उन्होंने अपने परम मित्र राजकुमार द्रुपद, जो अब पांचाल नरेश थे, के पास जाने की ठानी|

“राजाओं की मित्रता गरीब ब्राह्मणों से नहीं हो सकती|” पांचाल नरेश के इन कटु शब्दों ने द्रोण के हृदय को झकझोर दिया| उन्होंने शपथ ली कि इस अपमान का बदला वे अवश्य लेंगे| वे अवसर की प्रतीक्षा करते रहे| राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण होने पर जब गुरुदक्षिणा का अवसर आया तब द्रोण ने अर्जुन से कहा, “मै जानता हूँ, तुम पांचाल नरेश द्रुपद से युद्ध करो और उसे बंदी बनाकर मेरे पास ले आओ|” अर्जुन ने गुरु-आज्ञा का पालन किया| प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि प्रशिक्षण समाप्त होने पर विद्यार्थी को गुरुदक्षिणा के रूप में वहीँ देना पड़ता था जो गुरु चाहते थे| इसलिए अर्जुन ने पांचाल जाकर  युद्ध किया और द्रुपद को बंदी बनाकर हस्तिनापुर में द्रोण के समक्ष दक्षिणा के रूप में प्रस्तुत किया|

द्रोण ने द्रुपद से पूछा, “अब तुम्हें स्मरण आया कि मै कौन हूं? बचपन से हमारी मित्रता थी, परन्तु मेरी गरीबी के कारण मुझे पहचानने में तुम्हें लज्जा आ रही थी| अब मै तुम्हारे राज्य में से आधा तुम्हें लौटता हूँ और आधा स्वयं रखूँगा, अब इस तरह हम दोनों बराबर हो जाएंगे|” लज्जित और क्रोधित होकर द्रुपद वापस चले गये| अब उनके पास आधा राज्य ही शेष था, और वह भी द्रोण का दिया हुआ| अन्यथा वह भिखारी हो गये होते| उन्होंने शपथ ली कि वे इस अपमान का बदला लेंगे| उन्होंने घोर तपस्या की जिससे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हो जो द्रोण का वध कर सके; और एक कन्या, जो अर्जुन से विवाह कर सके| कारण? वे अर्जुन से बहुत प्रभावित थे| भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली| उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम धृष्टद्युम्न रखा गया, और पुत्री का नाम रखा गया द्रौपदी|