धैर्य
एक बार एक महात्मा ने एक कहानी सुनाई। उनके दो शिष्य थे। उनमें से एक वृद्ध था, उनका बहुत पुराना और पक्का अनुयायी कड़ी साधना करने वाला एक दिन उसने गुरु से पूछा, ‘‘मुझे मोक्ष या बुद्धत्व की प्राप्ति कब होगी ?’’ गुरु बोले, ‘‘अभी तीन जन्म और लगेंगे।’’
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यह सुनते ही शिष्य ने कहा, ‘‘मैं बीसवर्षों से कड़ी साधना में लगा हूँ मुझे क्या आप अनाड़ी समझते हैं।
बीससाल की साधना के बाद भी तीन जन्म और ! नहीं नहीं !’’ वह इतना क्रोधित और निराश हो गया कि उसने वहीं अपनी माला तोड़ दी, आसन पटक दिया और चला गया। दूसरा अनुयायी एक युवा लड़का था, उसने भी यही प्रश्न किया। गुरु ने उससे कहा, ‘तुम्हें बुद्धत्व प्राप्त करने में इतने जन्म लगेंगे, जितने इस पेड़ के पत्ते हैं।’’ यह सुनते ही वह खुशी से नाचने लगा और बोला, ‘‘वाह, बस इतना ही ! और इस पेड़ के पत्ते तो गिने भी जा सकते हैं। वाह, आखिर तो वह दिन आ ही आएगा।’’ इतनी प्रसन्नता थी उस युवक की, इतना था उसका संतोष धैर्य और स्वीकृति भाव। कहते हैं, वह तभी, वहीं पर बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
धैर्य ही बुद्धत्व का मूल मंत्र है अनन्त धैर्य और प्रतीक्षा। परन्तु प्रेम में प्रतीक्षा है तो कठिन। अधिकांश व्यक्ति तो जीवन में प्रतीक्षा निराश होकर ही करते हैं, प्रेम से नहीं कर पाते।
प्रतीक्षा भी दो प्रकार की होती है। एक निराश मन से प्रतीक्षा करना और निराश होते ही जाना। दूसरी है प्रेम में प्रतीक्षा, जिसका हर क्षण उत्साह और उल्लास से भरा रहता है। ऐसी प्रतीक्षा अपने में ही एक उत्सव है, क्योंकि मिलन होते ही प्राप्ति का सुख समाप्त हो जाता है। तुमने देखा, जो है उसमें हमें सुख नहीं मिलता, जो नहीं है, उसमें मन सुख ढूंढता है। उसी दिशा में मन भागता है। हाँ तो प्रतीक्षा अपने में ही एक बहुत बढ़िया साधना है हमारे विकास के लिए। प्रतीक्षा प्रेम की क्षमता और हमारा स्वीकृति भाव बढ़ाती है। अपने भीतर की गहराई को मापने का यह एक सुन्दर पैमाना है।