दानी का धन बढ़ता है
शामगढ़ नगर का निवासी सोमिलक जुलाहा बहुत ही कुशल शिल्पी था| वह राजाओं के पहनने योग्य अनेक सुंदर, चित्र-विचित्र और बहुमूल्य रेशमी वस्त्र बुना करता था| लेकिन फिर भी उसका हाथ तंग ही रहता|
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उसने किसी दूसरे नगर में जाकर काम करने की सोची और अपनी ज़रूरत का सामान लेकर एक समृद्ध नगर की ओर चल दिया| संयोगवश वहाँ उसका काम भली प्रकार जम गया| तीन वर्ष में ही उसने काफ़ी धन कमा लिया| उसने सोचा, काफ़ी धन एकत्रित हो गया है और परदेस का मामला है, इसलिए क्यों न अपने धन को घर में छोड़ आऊं| इस प्रकार विचार कर उसने अपनी जमा-पूँजी को गाँठ में बाँधा और घर की ओर चल दिया|
जुलाहे को चलते हुए शाम हो गई और धीरे-धीरे घना अँधेरा छा गया| जुलाहा उस वक्त वन में से गुजर रहा था| वह स्थिति की भयंकरता का अनुमान लगाकर समीप के एक वृक्ष पर चढ़ गया और उसके पतों में अपने आपको छिपाकर सो गया|
गहरी नींद में सोए उस जुलाहे ने सपने में दो पुरषों की बातचीत सुनी| उनमें से एक कह रहा था, ‘परिश्रम! तुम भली प्रकार जानते हो कि इस जुलाहे के भाग्य में दाल-रोटी से अधिक कुछ नही है, फिर तुमने इसको इतना धन क्यों दे दिया?’
‘भाग्यदेव! मेरा तो धर्म ही यही है, जो खोदेगा उसे जल अवश्य प्राप्त होगा| वह जल मीठा है अथवा खारा, यह देखना तुम्हारा अधिकार क्षेत्र है| इस जुलाहे ने श्रम किया है और मैंने उसे उसका फल दिया है|’ परिश्रम ने अपना पक्ष रखते हुए कहा|
जुलाहा एकाएक चौंककर जाग उठा और उसने कमर में बँधी पोटली को देखा| पोटली को खाली पाकर उसके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा| वह सोचने लगा कि इतना परिश्रम करने के बाद कमाया मेरा धन अचानक कहाँ चला गया| निराश होकर जुलाहा फिर उसी नगर की ओर लौट पड़ा|
जुलाहे ने तीन वर्ष तक घोर परिश्रम करके फिर ढेर सारा धन एकत्रित कर लिया और अपने घर की ओर रवाना हो गया| रास्ते में फिर शाम ढल गई और देखते-ही-देखते अँधेरा छा गया, परंतु इस बार उसने विश्राम न करने का निश्चय किया और चलता ही रहा| अभी वह थोड़ी दूर ही गया होगा कि तीन वर्ष पहले सपने में देखे दो पुरुष उसे सामने से आते दिखाई दिए| उन दोनों की बातचीत भी तीन वर्ष पूर्व सपने में सुनी जैसी ही थी| सोमिलक ने उनकी बातचीत को सुनने के उपरांत अपनी थैली को देखा और उसे खाली पाकर मूर्छित हो गया| अपने धन के अप्रत्याशित रूप से नष्ट हो जाने से दुखी जुलाहे से निर्धनता का जीवन जीने की अपेक्षा आत्महत्या कर लेना ही उपयुक्त समझा|
उसे आत्महत्या करते देख भाग्यदेव ने प्रकट होकर कहा, ‘वत्स! तुमने परिश्रम अवश्य किया है, परंतु जब तुम्हारे भाग्य में धन है ही नही तो मैं तुम्हें कैसे दे सकता हूँ| तुम्हारे पास आया धन टिक नही सकता|’
‘हे देव! मैं निर्धनता का जीवन नही गुजार सकता| इसका कोई-न-कोई उपाय अवश्य कीजिए|’ जुलाहे ने विनती करते हुए कहा|
‘ठीक है! तुम मुझ से वर माँग लो|’ भाग्यदेव ने जुलाहे को उपाय बताया|
‘मुझे अपार धन की इच्छा है, बस मुझे यही वर दीजिए|’ जुलाहे ने अपनी हार्दिक इच्छा प्रकट करते हुए कहा|
‘वर तो मैं तुम्हें दे दूँगा, परंतु याद रखो तुम अपने धन का उपयोग नही कर पाओगे|’
‘कोई बात नही, धन का अपना ही महत्व होता है|’ जुलाहे ने तर्क देते हुए कहा|
‘तुम अपने पुराने स्थान वर्धमानपुर लौट जाओ| वहाँ दो बनिये रहते है| एक का नाम गुप्तधन है और दूसरे का उपमुक्तधन| तुम उन दोनों की प्रकृति का अध्ययन करो और फिर मुझसे अपनी इच्छानुसार वर माँग लेना| आज से ठीक छह महीने बाद मैं तुम्हें यहीं पर मिलूँगा|’ भाग्यदेव ने उससे कहा और तुरंत ही अंतर्धान हो गए|
भाग्यदेव के वचनों को सुनकर सोमिलक पुनः वर्धमानपुर लौट आया| वहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई थी| वह गुप्तधन के घर अतिथि के रूप में गया और कहने लगा, मैं एक परदेसी हूँ, रातभर विश्राम के लिए आश्रय चाहता हूँ|’
अतिथि के रूप में आए सोमिलक को देखकर गुप्तधन अपनी पत्नी और बच्चों को डाँटने-फटकारने लगा कि उसे क्यों ठहराया है, किन्तु सोमिलक ने गुप्तधन के व्यवहार को नज़रअंदाज करते हुए वहीं डेरा डाल दिया| अंततः उसने सोमिलक को भोजन कराया और सोने को कहा|
जुलाहे ने सुबह उठकर देखा कि गुप्तधन अस्वस्थ हो गया है, जिसके फलस्वरूप उसने उस दिन भोजन नही किया| इस प्रकार अतिथि को खिलाए भोजन का हिसाब बराबर हो गया|
अगले दिन सोमिलक उपमुक्तधन के घर अतिथि के रूप में पहुँचा| उपमुक्तधन ने बड़े ही प्रेम और आदरपूर्वक अतिथि का स्वागत-सत्कार किया तथा भोजन आदि से संतुष्ट किया|
जुलाहे ने सवेरे उठकर देखा कि एक राजकर्मचारी ने राजा द्वारा किसी कार्य के पारिश्रमिक के रूप में भिजवाया धन उपमुक्तधन के हाथ में दे दिया|
गुप्तधन और उपमुक्तधन कि स्थिति का अध्ययन करने के बाद सोमिलक इस निर्णय पर पहुँचा कि संचयरहित उपमुक्तधन का जीवन ही सफल है|
सोमिलक ने निश्चित समय और निश्चित स्थान पर पहुँचकर भाग्यदेव से वर माँगते हुए कहा, ‘मुझे उपमुक्तधन जैसा बनने का वर दीजिए|’
‘तथास्तु!’ कहकर भाग्यदेव अंतर्धान हो गए|
सोमिलक भाग्यदेव से मनचाहा वर माँगकर घर लौट आया और सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगा|
कथा-सार
‘दान दिए धन नही घटता’ और दान किए बिना सद्गति नही मिलती’- दोनों ही बातें अपनी-अपनी जगह ठीक है| जो प्राणी अर्जित तथा संचित धन का कुछ भाग दान-पुण्य में नही लगाता, उसका धन नष्ट हो जाता है, और दान देनेवालों पर लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है और वे सद्कार्यों में धन व्यय कर अपना परलोक सुधार लेते है|