दानशीलता
श्री कृष्ण और अर्जुन बचपन के मित्र थे| एक बार दानियों की चर्चा हो रही थी| श्रीकृष्ण जी ने वार्तालाप के प्रसंग में कहा- “इस युग में कर्ण जैसा दूसरा दानी नहीं|” अर्जुन अपने बड़े भाई सम्राट युधिष्ठर से बड़ा परोपकारी एवं धर्मनिष्ठ दूसरे किसी को भी नहीं मानते थे|
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श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों भिक्षुओं के भेष में राजदरबार पहुँचे| महाराजा द्वारा यह पूछे जाने पर क्या चाहिए, दोनों भिक्षुओं ने कहा- “कुछ मन सूखी चंदन की लकड़ियाँ चाहिए|” महाराजा युधिष्ठर ने राज कोठारी को बुलाया| उससे पता करने पर मालूम हुआ कि बरसात का मौसम होने पर कहीं भी सूखी लकड़ियाँ उपलब्ध नहीं हैं| दोनों भिक्षुक निराश होकर खाली हाथ लौट आए|
चंदन की सूखी लकड़ियों के लिए दोनों भिक्षुक हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन के यहाँ पहुँचे| बरसात के कारण यहाँ भी सूखी चंदन की लकड़ियाँ न मिली| अंत में दोनों राजा कर्ण के राजमहल पहुँचे| वहाँ भी राजकीय भंडार में चंदन की सूखी लकड़ियाँ न थी| कर्मचारी द्वारा इंकार करने पर राजा कर्ण उठे| कुल्हाड़ी लेकर उन्होंने राजमहल के कीमती चंदन के दरवाजे तोड़ दिए| भिक्षुकों को सूखी मनचाही चंदन की लकड़ी मिलने पर श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर मित्र अर्जुन की तरफ देखा| अर्जुन के नेत्र लज्जावश स्वयं ही झुक गये थे|