दान देने का वचन
कुछ देर शांत रहने के बाद उन्होंने राजा हरिश्चंद्र से पूछा, “राजन! तुम पहले यह बताओ कि दान किसे देना चाहिए, रक्षा किसकी करनी चाहिए और युद्ध किससे करना चाहिए?”
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विस्वामित्र की बात सुनकर राजा हरिश्चंद्र उठकर खड़े हो गए और बोले, “भगवन! ब्राम्हण और दरिद्र लोग दान के पात्र हैं, भयभीत व्यक्ति रक्षा के योग्य है और यज्ञ कार्य में जो बाधा डाले, उससे युद्ध करना ही क्षत्रिय का धर्म है|”
विश्वामित्र ने कहा, “राजन! तुमने भयभीत की रक्षा करने का प्रयत्न किया, इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है| लेकिन क्या तुम मुझे ब्राम्हण को दान भी दे सकते हो? मै यज्ञ करना चाहता हूं| क्या तुम मुझे दक्षिणा दोगे?”
राजा हरिश्चन्द्र प्रसन्न होकर बोले, “भगवन! आप जो चाहे मांग ले| मै आपको वह सब दूंगा – सोना, पुत्र, यह शरीर, प्राण, राज्य, नगर, सम्पत्ति जो भी मेरे अधिकार में है वह सबकुछ|”
विश्वामित्र अवाक होकर बोले, “ठीक है राजन! जब मुझे आवश्यकता होगी,तब मै तुझसे मांग लूँगा| अभी तुम जाओ और राजधानी में जाकर अपना राज-काज देखो, किन्तु अपना वचन याद रखना|”
राजा हरिश्चंद्र वचन देकर वापस चले आये|