चोरी की चोरी
कांचीपुर में वज्र नामक एक चोर था| उस चोर का यह नाम विशेष सार्थक था| किसी की सम्पत्ति चुराने पर उसके स्वामी को जो कष्ट होता है, उसे सहृदय व्यक्ति ही आँक सकता है| चोर का हृदय वस्तुतः वज्र का बना होता है|
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इसलिये वह चोरी कर पता है| यदि चोर को परदुःखकातरता हो तो वह चोरी करना ही छोड़ दे| वज्र ऐसा ही कठोर हृदय वाला चोर था| वह प्रतिदिन थोड़ा-बहुत जो मिलता, सब कुछ चुरा लेता था| चुराये हुए धन को वह राज-रक्षकों द्वारा पकड़े जाने के भय से आधी रात के समय जंगल में जाकर मिट्टी खोदकर गाड़ देता था|
एक रात वीरदत्त नामक एक किरात लकड़हारे ने चोर की यह चेष्टा देख ली| चोर के चले जाने के बाद प्रतिदिन मिट्टी हटाकर सम्पत्ति में से दसवाँ हिस्सा निकाल लेता और गड्ढे को पहले की तरह पत्थर-मिट्टी से ढँक देता था| लकड़हारा चालाक चोर था| वह इस ढंग से चुराता था कि वज्र इसकी चोरी भाँप न सके|
एक दिन लकड़हारा अपनी पत्नी को धन देता हुआ बोला-‘तुम प्रतिदिन धन माँगा करती थी, लो, आज मुझे पर्याप्त धन प्राप्त हो गया है|’ पत्नी ने कहा-‘जो धन अपने परिश्रम से उपार्जित किया जाता हैं, वही स्थायी होता है, दूसरा धन नष्ट हो जाता है| इसलिये इस धन से जनता के भले के लिये बावली, कुआँ आदि बनवाना चाहिये|’ उसके पति को भी यह बात जँच गयी| आस-पास अच्छे-अच्छे कुएँ और तालाब थे| इसलिये उसने दूरदेश में एक बहुत बड़ा तालाब खुदवाया| गर्मी में भी उसका जल नहीं सूखता था| तालाब में अभी सीढियाँ लगानी थीं और उसके सब पैसे समाप्त हो गये| वह छिपकर फिर वज्र का अनुसरण करने लगा| देखा करता था कि वज्र कहाँ-कहाँ धन गाड़ा करता है| इस प्रकार दशांश चुराकर उसने तालाब का काम पूरा कर दिया| इसके बाद उसने भगवान् विष्णु और शंकर के भव्य मन्दिर भी तैयार कराये| जंगल कटवाकर खेत तैयार कराये और उन्हें ब्राह्मणों में वितरण कर दिया| एक बार उसने बहुत-से ब्राह्मणों को बुलाकर वस्त्राभूषणों से उनकी अच्छी पूजा की तथा कुछ ब्राह्मणों के लिये घर की व्यवस्था भी कर दी थी| ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर उसका नाम द्विजवर्मा रख दिया|
कालवश जब द्विजवर्मा की मृत्यु हुई, तब उसे लेने के लिये एक ओर यम के दूत और दूसरी ओर भगवान् शंकर और विष्णु के दूत आये| उनमें परस्पर विवाद होने लगा| इसी बीच नारदजी वहाँ पधारे| उन्होंने सबको समझाया कि ‘आपलोग कलह न करें, मेरी बात सुनें| इस किरातने चोरी के धन से मन्दिर आदि तैयार किये हैं| अतः जबतक कुमार्ग से उपार्जित द्रव्यरूप पाप का प्रायश्चित्त नहीं हो जाता, तब तक यह वायु के रूप में अन्तरिक्ष में विचरण करता रहे|’ नारदजी की बात सुनकर सभी दूत लौट गये| वह किरात बारह वर्ष तक प्रेत बनकर घूमता रहा|
देवर्षि नारद ने किरात की पत्नी से कहा-‘तुमने अपने पति को उत्तम मार्ग दिखाया है, इसलिये तुम ब्रम्हलोक जाओ| किंतु किरात की पत्नी अपने पति के दुःख से दुःखी थी| वह ब्रम्हलोक का सुख तुच्छ मानते हुए रोकर देवर्षि से बोली-‘मेरे पति को जबतक देह नहीं मिलती, तबतक मैं यहीं रहूँगी| जो गति मेरे पति की होगी, वही गति मै भी चाहती हूँ|’ किराती के धर्मयुक्त वचन सुनकर देवर्षि नारद बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने उसे अपने प्रभाव से इस योग्य बना दिया कि शंकर की अच्छी आराधना कर सके| उन्होंने बताया कि तीर्थ में स्नान कर कन्दमूल-फल खाकर अपने पति की सद्गति के लिये भगवान् शंकर की पूजा और जप करे|
किराती ने अपने पति के लिये शिव की आराधना लगन से की| इस कृत्य से उसके पति के चोरी का सारा पाप धुल गया| फिर अपने पुण्य के बल से दोनों पति-पत्नी को उत्तम लोक मिला| द्विजवर्मा गाणपत्य-पदपर प्रतिष्ठित हुआ| वज्र चोर तथा कांची के सभी धनी, जिनका इस कार्य में द्रव्य लगा था, सपरिवार स्वर्ग चले गये|