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बुद्धिमान माँ

भारत के पूर्वी हिस्से में उड़ीसा नाम का राज्य है| महानदी के मुहाने पर आसपास की जमीन बहुत उपजाऊ है-धान के खेत, जंगल और ताजा हरी घास, जिसे वहां के मवेशी भरपेट खाते हैं|

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बहुत पहले वाहाव एक महाजन की पत्नी अपने बेटों और बहुओं के साथ रहती थी| सुखी परिवार था और सब लोग आराम से रहते थे|

“यह जमीन और जंगल तुम्हारे पिता के कड़े परिश्रम का फल है,” माँ ने अपने बेटों को बताया था| “जमीन की उपज और जंगल की लकड़ी बेचकर उन्होंने इतने ढोर-डंगर खरीदे थे और इतना बड़ा घर बनाया था कि जिसमें सारा परिवार सुख से रह सके|” वे सब एक टीले अपर खड़े थे, जहां से धान के खेत दिखाई देते थे| फसल कटने के लिए तैयार हो खड़ी थी और पके धान की बालियाँ धीमी-धीमी बयार में लहरा रही थीं| माँ की आवाज में गर्व था|

“हां, मुझे पिताजी के साथ सुबह-सुबह अपने खेतों में जाना अब भी याद है,” बिधु, जो सबसे छोटा था, बोला| “मुझे खलिहानों में काम करना बहुत भाता रहा है|”

वह किसान का बेटा था और अपने पिता की ही तरह खेती-बाड़ी करता था| उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी- मजदूरों को संभालना, उपज करना, उसके लिए सही खरीदार ढूंढ़ना आदि| फिर भी अपने जमीन, अपनी मिट्टी से बहुत प्यार करता था|

“साधु और राधु आगे पढ़ना चाहते थे,” माँ अपने दोनों बेटों की तरफ देखती हुई बोली, “और तुम्हारे पिता को दोनों की सफलता पर बहुत खुशी भी थी, पर जमीन के प्रति तुम्हारे इस प्यार की वह बहुत कद्र करते थे और इसलिए अपने अंतिम इच्छा यही थी कि उन्हें इस जमीन-जायदाद का बंटवारा न हो और इस विशाल घर में तुम लोग मिलजुलकर एक साथ रहो|”

“हां, हां, माँ,” साधु बोला, “हम कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं जाएंगे|” साधु, उनका ज्येष्ठ बेटा, पंडित था| गांव और उसके आसपास के लोग साधु से कई मामलों में राय लेने आते थे, सो साधु का गुजारा बढ़िया तरीके से हो जाता था| राधु वकील था और वकालत से उसे भी अच्छी-खासी आमदनी हो जाति थी|

मुश्किल यह थी कि बिधु का काम मेहनत-मशक्कत का काम था| वह सुबह से शाम तक खेतों में रहता| उसके मुकाबले, बाकी दोनों भाई काफी आराम की जिन्दगी जी रहे थे| इससे बिधु की पत्नी बहुत दुखी थी|

“मेरे भाई के यहां से चिट्ठी आई है,” एक रात वह बिधु से बोली| वह खेतों से लौटा ही था और भोजन के बाद खाट पर पड़ा सुस्ता रहा था| “उसने हमें अपने घर पर छुट्टियां बिताने का न्यौता दिया है| कुछ देर पहले ही उसने अपना घर बनाया है और वहां गृहप्रवेश कराना चाहता है|”

“पर मै कैसे जा सकता हूं?” बिधु थकी हुई आवाज में बोला| “इतना काम जो पड़ा है|”

“आप सदा यही कहते है,” पत्नी कुछ तमककर बोली| “तो क्या हम कभी कहीं न जा पाएंगे?”

“मैंने ऐसा कब कहा? मै तुम्हारे जाने का इंतजाम किए देता हूं|”

“जी नहीं,” बिधु की पत्नी कुछ अड़ियल स्वभाव की थी| “जाएंगे तो दोनों, वरना कोई नहीं|”

“जैसी तुम्हारी मर्जी,” “बिधु जम्हाई लेता हुआ बोला|

“क्या आपने ही सब काम करने का ठेका लिया है जबकि आपके भाई लंबी तानकर पड़े रहते हैं?” वह चिढ़कर बोली| “आखिर आप तो उनके हिस्से की जमीन की भी देखभाल करते हैं और वे अपने बीवी-बच्चों के साथ छुट्टियां काटने यहां-वहां चले जाते हैं| और एक हम है, जो हमेशा यहीं अटके रहते हैं| यह तो अन्याय है|”

बिधु की आँखों में अब नीद कहां?

“आप तो मेरी बात मानिये,” उसकी पत्नी कह रही थी, “जायदाद के बंटवारे की बात चलाइए ताकि हम लोग अलग रह सकें| उससे आपको अपने लिए कुछ समय भी मिलेगा|”

फिर तो बिधु के कानों को हर रोज यही सुननी पड़ती और बिधू को लगा कि शायद उसकी पत्नी ही सही है| “मेरा काम मेरे भाइयों के काम से ज्यादा अहम है| मेरी ही वजह से दोनों ठाठ से, आराम से रहते हैं,” उसने सोचा|

एक रोज जब सब नाश्ता कर रहे थे, बिधु ने माँ और भाइयों से कहा कि उसे जायदाद में से उसका हिस्सा चाहिए|

“क्या कह रहे हो बिधु?” माँ को सुनकर धक्का लगा| “तुम्हारे पिता चाहते थे कि तुम सब मिलजुलकर, एक होकर रहो| यकायक क्या हुआ?”

“अगर बिधु यही चाहता है तो यही सही,” साधु शांत स्वर में बोल|

“ठीक है,” मां ने हामी भर दी| “लेकिन मेरी एक बात गांठ बांध लो, बिधु| कोई भी काम छोटा उया बड़ा नहीं होता| मै मानती हूं कि खेती-बाड़ी बहुत महत्वपूर्ण और मेहनत का काम है| पर बाकी काम उतने ही महत्वपूर्ण और गौरवपूर्ण होते है| इस बात का अहसास तुम्हें जल्दी ही हो जाएगा|”

जमीन-जायदाद के सभी कागज, जिनके आधार पर बंटवारा होना था, तैयार किये गए| बिधु बहुत बढ़-चढ़कर सब चीज सीख-समझ रहा था, जबकि उसके भाई चुपचाप यह तमाशा देख रहे थे|

एक दिन उसकी माँ बोली, “मेरे बछोम, किसी भी जरुरी काम को करने से पहले पुरी जाकर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करना हमारे परिवार की परम्परा रही है| कल हम सब लोग वहां चलेंगे और फिर लौटकर बंटवारे का काम संपन्न करेंगे|”

बेटों ने बात मान ली और अगले दिन अपनी पत्नियों और माँ के साथ यात्रा पर निकल पड़े|

मंदिर में दर्शन के बाद, वे लौट रहे थे तो माँ ने कहा, ” बच्चो, मै बहुत थक गई हूं और भूख भी लग रही है| आगे चलने से पहले यहां बैठकर कुछ खा लेते है और आराम भी कर लेते हैं|” गांव के बाहर ही एक पुराना मंदिर था और पास में ही खाने की दुकान भी थी|

जब तीनों भाई रुपयों की थैली ढूंढ़ने लगे तो थैली नदारद| “ओह,” साधु बोला, “मुझे याद आ रहा है कि मैंने उसे माँ को सौंपा था|”

माँ ने भी थैली को ढूंढ़ा पर उसका नामोनिशान भी न मिला|

“अब क्या करे?” राधु बोला|

“अब तो एक ही उपाय है,” माँ ने राय दी| “मै बहुओं के साथ इसी मंदिर में रुकती हूं| तुम तीनो को जाकर कुछ काम ढूंढ़ना होगा और कुछ पैसे कमाकर लौटना होगा| पैसे के बिना हम कुछ खा पाएंगे, न ही घर लौट पाएंगे|”

बेटों ने राय मान ली|

तीनों भाई अलग-अलग दिशाओं में गांव के लिए निकल पड़े| चलते-चलते बिधु को कुछ लोग मिले जो किसी गंभीर विषय पर बात कर रहे थे|

“क्या बात है, मित्रो?” बिधु ने पूछा| “क्या मै कुछ मदद कर सकता हूं?”

“जमीन के हिस्से में सदा ही पानी जमा रहता है और हम इसमें कुछ भी उगा नहीं पाते| फिर भी हमें राजा का इसका लगान देना पड़ता है,” एक गांव वाला बोला|

बिधु कुछ देर सोचकर बोला, “अगर मै आपको यहां धान उगाने की तरकीब बताऊं तो मुझे क्या इनाम मिलेगा?”

“चांदी की सौ मुद्राएं,” गांव वालों ने खुशी से कहा|

बिधु तो बहुत निपुण किसान था, बोला, “गोबर और मिट्टी को मिलाकर उसके गोले बना लो| उन्हें गिला और नर्म रखो| फिर हर गोले में बीज दल दो और उन्हें सूखने दो|”

गांव वाले बहुत ध्यान से बिधु की बात सुन रहे थे|

“फिर?” उन्होंने पूछा|

“उन गोलों को इस जमीन में डाल दो| गोले जमीन में धंस जाएंगे और बीज भी फूट पड़ेगी|”

गांव वालों ने उसे धन्यवाद दिया और प्रसन्नतापूर्वक सौ मुद्राएं दे दीं, जिन्हें लेकर बिधु मंदिर लौट आया|

इधर, चलते-चलते राधु ने भी पेड़ के नीचे बैठे एक व्यक्ति को देखा, जो काफी दुखी लग रहा था| वैसे तो बहुत संपन्न दिखता था पर किसी वजह से परेशान था|

“किसी बात की चिंता है, मित्र?” राधु ने पुछा| “तुम उदास दिखते हो| क्या मै तुम्हारे किसी काम आ सकता हूं?”

“जी, अगर आप कर सके तो,” आदमी ठंडी सांस भरकर बोला, “हम चार भाई हैं,” वह कहने लगा| “मृत्यु से पहले हमारे पिता ने अपनी सारी संपत्ति हम चारों में बात दी थी| लेकिन एक काली बिल्ली थी जिसे बांटना बहुत मुश्किल था| हमने फैसला किया कि बिल्ली हम सबकी सांझी होगी लेकिन चारों भाई उसकी एक-एक टांग के मालिक होंगे,” कहते हुए वह रुका|

“बहुत अच्छा,” राधु बोला|

“तो…ओ…एक दिन बिल्ली छत से नीचे गिर गई और उसकी वही टांग टूट गई जो मेरे हिस्से आई थी|”

राधु को मामला बहुत रोचक लग रहा था|

“मैंने उसकी जख्मी टांग पर तेल में भीगी हुई पट्टी बांध दी| मेरी बिल्ली को आंच अच्छी लगती है, सो वह चूल्हे के पास जाकर सो गई|”

“तू तुम इस कारण से इतनी दुखी हो?” राधु इस अनोखी कथा का अंत जानने के लिए उत्सुक था|

“यहां से तो मेरे दुःख की कहानी शुरू होती है| एक चिंगारी उस तेल सने कपड़े पर पड़ी और उसने आग पकड़ ली,” वह रुक गया और राधु की ओर देखने लगा|

“फिर क्या हुआ?”

“वहां से आग आसपास के घरों में फैल गई और सब जलकर रख हो गया| पड़ोसियों ने सारा दोष मेरे सिर मढ़ दिया और मामला पंचायत में चला गया|”

“पंचायत में क्या हुआ?”

“पंचों ने कहा कि जिस टांग की वजह से आग लगी, वह मेरे हिस्से की थी| इस लिए पूरा नुकसान मुझे ही पूरा करना होगा| पर मेरे पास सबको देने लायक पैसे नहीं हैं|”

राधु वकील था, गहरी सोच में पड़ गया और जल्दी ही समस्या का बहुत सरल-सा हल ढूंढ़ लिया| उसने कहा, “चिंता न करो, मित्र| यदि मै तुम्हारी समस्या का समाधान कर दूं तो मुझे क्या मिलेगा?”

“चांदी के सौ सिक्के,” आदमी बोला|

“तो ठीक है जाओ और अपने पड़ोसियों और गांव के बड़े-बूढों को जमा करो| मै शीघ्र ही मिलता हूं|”

जब राधु गांव पहुंचा तो वटवृक्ष के नीचे अच्छी-खासी भीड़ जमा थी| सबकी बाते सुनने के बाद, राधु बोला, “क्या यह सच है कि सारा नुकसान बिल्ली ने किया है, और यह भी कि इसका कारण उसकी जख्मी टांग पर बंधी हुई पट्टी है…|”

“हां, हां,” गांव वालों ने कहा|

“क्या आप मानते है कि बिल्ली के भागने की वजह से ही आग लगी और घर जल गए?” राधु ने पूछा|

“हम मानते हैं,” गांव वाले बोले|

“बिल्ली अपनी जख्मी टांग पर तो भाग नहीं सकती थी| उसकी तीन टांगे, जो ठीक थी, उनकी वजह से ही वह भाग सकी…,” राधु अपने शब्दों का असर देखने के लिए थोड़ा-सा रुका|

“हां, सच है| अपनी तीन टांगों पर ही वह भाग सकी|”

“तो फिर…पंचायत फैसला करे कि आग लगने का नुकसान कौन चुकाएगा?” राधु की बुद्धि ने सबको अचंभे में डाल दिया और सभी हामी में अपना  सिर हिलाने लगे| फैसला हुआ कि तीन ठीक टांगों के मालिक ही हर्जाना भरेंगे| जख्मी टांग का मालिक बहुत खुश हुआ और वादे के मुताबिक उसने राधु को चांदी की पांच सौ मुद्राएं दे दीं|

राधु पैसे लेकर मंदिर लौट आया|

इस बीच, साधु-जो सबसे बड़ा था, ने भी चलते-चलते एक घर से किसी के रोने की आवाज सुनी| वह घर बहुत बड़ा था और उसके बाहर एक दरबान भी खड़ा था|

“ऐसे आलीशान घर में रहने वाला रो क्यों रहा है? कौन रहता है यहां?” उसने दरबान से पूछा|

“श्रीमान, यहां राजा के मंत्री महोदय रहते है,” दरबान बोला|

“क्या आप मुझे उनके पास ले चलेंगे?”

दरबान मन्त्री से आज्ञा लेकर साधु को घर के भीतर ले गया| स्वयं मंत्री महोदय अश्रुपूर्ण हो रहे  थे|

“क्या बात है, मन्त्रिवर,” साधु ने पूछा| “यदि आप मुझे अपना कष्ट बताएं तो शायद मै कुछ सहायता कर सकूं|”

“राजा लोग भी अजीब सनकी होते हैं,” मंत्री ने साधु को देखकर और उसके शब्दों से अनुमान लगाया कि वह एक विद्वान पुरुष है| “हमारे राजा ने मुझे उनके  हाथी का वजन पता करने के लिए कहा है| अगर मैं ऐसा करने में असफल रहा तो मेरा सिर धड़ से अलग करवा दिया जाएगा|” इतना कहकर मंत्री फिर रोने लगा|

कुछ देर सोचने के बाद साधु बोला, “चिंता न करें, पूज्यवर| यदि हाथी का वजन पता लगाने में मै आपकी सहायता करूं तो मेरा पुरस्कार क्या होगा?”

मंत्री तो मंत्री था, उसने भी अपने रुतबे को ध्यान में रखकर जवाब दिया| “एक हजार स्वर्ण मुद्राएं,” वह शान से बोला|

साधु ने मंत्री से कहा कि उसे हाथी के पास ले जाए| वहां से हाथी को ऐसी नदी के किनारे ले जाया गया, जहां बहुत-सी नौकाएं खड़ी थीं|

“कृपया महावत से कहिए कि हाथी को नाव में खड़ा करे,” साधु ने कहा| ऐसा करते ही नौका पानी में धंसने लगी और धंसना रुक गया| “जहां तक नौका धंसी है, कृपया वहां निशान लगाइए,” उसने वहां खड़े अफसरों से कहा, जो उसे बहुत हैरानी से देख रहे थे| “अब हाथी को बाहर खड़े अफसरों से कहा, जो उसे बहुत हैरानी से देख रहे थे| “अब हाथी को बाहर निकालकर, उसे बड़े-बड़े पत्थरों से भर दीजिए और तब तक भरते रहिये, जब तक नाव पुराने लगे हुए निशान तक धंस न जाए,” वह बोला|

ऐसा होते ही, वह बोला, “इन पत्थरों को तौलिये| इनका वजन हाथी के वजन के बराबर होगा|”

मंत्री महोदय इस कदर खुश हुए कि हजार स्वर्ण मुद्राओं के साथ-साथ उन्होंने साधु को कुछ और भी वस्तुए भेंट कीं|

साधु उन्हें लेकर मंदिर लौटा, जहां सब लोग उसका इंतजार कर रहे थे| उन्होंने छककर भोजन किया और चलने की तैयारी करने लगे| तभी माँ ने पैसों की वह गुमी हुई थैली निकालकर अपने बेटों और बहुओं को दिखाई|

“मैंने जानबूझकर इसे छिपा दिया था,” उसका स्वर गंभीर था| “मै तुम्हें सिर्फ यह दिखाना चाहती थी कि हर काम अच्छा  है और हर काम का अपना महत्व है| बिधु, मुझे आशा है कि तुम समझ गये होगे कि तुम्हारे भाई भी बहुत कमाते हैं, जो सारे परिवार के भरण-पोषण के काम आते हैं|”

बिधु और उसकी पत्नी को बहुत ग्लानी हुई कि उन्होंने परिवार को बांटने की बात सोची| फिर सब घर लौट आये और कई वर्षों तक एकजुट होकर रहे|

बुद्धिमान माँ को संतोष था कि उसके परिवार में जो छोटी-सी दरार पड़ गई थी, वह अब भर चुकी है|