ब्रह्मवेता याज्ञवल्क्य
महर्षि याज्ञवल्क्य का शास्त्र ज्ञान और ब्रह्मज्ञान अपूर्व है| यज्ञवल्क के वंशज होने के कारण इनका नाम याज्ञवल्क्य पड़ा| इनके पिता का नाम ब्रह्मा था|
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एक बार राजा जनक ने यज्ञ का आयोजन किया| उस यज्ञ में हज़ारों ऋषि पधारे| राजा जनक ने यह जानना चाहा कि उपस्थित ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी कौन है? इसके लिए राजा ने एक उपाय किया| उन्होंने एक हज़ार गौओं को गौशाला में रोक लिया| प्रत्येक गाय के सींगों में दस-दस पाद सुवर्ण बँधे हुए थे| राजा ने हाथ जोड़कर ऋषियों से कहा- ‘मैं आप लोगों की शरण में हूँ| आप सब-के-सब महान् है| मैं चाहता हूँ कि आप लोगों में जो सबसे बड़े ब्रह्मनिष्ठ हो, वे इन गौओं को ले जाएँ|’ सभी विद्वान थे, सभी ज्ञानी थे| प्रत्येक ने चाहा कि यह धन हमे मिले, किंतु किसी ब्राहमण का साहस नही हुआ| तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने ब्रहमचारी को आदेश दिया कि ‘इन गौओं को हाँक ले चलो|
यह सुनकर उपस्थित ब्रह्मणों में हलचल मच गई| सब कह रहे थे कि यह हम सब में अपने को ब्रह्मनिष्ठ कैसे कह रहा है? विदेहराज जनक के होता आश्वल ने पूछा- ‘याज्ञवल्क्य! ब्रह्मनिष्ठ को मैं नमस्कार करता हूँ| मैं तो गौओं की ही इच्छा करता हूँ|’ लोगों में क्रोध का संचार बढ़ता गया| याज्ञवल्क्य ने प्रसन्नता के साथ कहा- ‘आप लोग क्रोध न करे| जो चाहे, मुझसे प्रश्न करे|’
फिर तो एक ओर सारे ऋषि हो गये और दूसरी ओर अकेले याज्ञवल्क्य| एक-एक कर ऋषियों ने याज्ञवल्क्य से गहन-से-गहन प्रश्न पूछा| महर्षि याज्ञवल्क्य ने सबका सटीक उत्तर दिया| उसके बाद याज्ञवल्क्य जी की बारी आई| इन्होंने पृथक्-पृथक् प्रश्न पूछे, किंतु उनमें से एक ने भी कोई उत्तर नही दिया|
उनमें शाकल्य प्रधान थे| वे बहुत क्रुद्ध हुए और बोले- ‘तुम हम लोगों को तुच्छ समझकर सब धन अकेले हड़प लेना चाहते हो| मेरे प्रश्नों का तो उत्तर दो|’ महर्षि याज्ञवल्क्य ने उनके सभी प्रश्नों का सटीक उत्तर दिया| याज्ञवल्क्य जी उत्तर देते जाते और शाकल्य भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछते जाते| तब याज्ञवल्क्य जी ने कहा- ‘तुमने तो हज़ारों प्रश्न कर लिए, पर अब तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो|’ याज्ञवल्क्य जी के उस गहन प्रश्न का समाधान न हो सका, अतः शाकल्य वही ढेर हो गए| तब सब लोग डरकर चुप हो गए|
प्रश्नोत्तर समस्या के समाधान के लिए होना चाहिए, विवाद के लिए नही| शाकल्य को उत्तर पाकर संतुष्ट होकर सत्य वस्तु को मान लेना चाहिए था; क्योंकि वाद सत्य अर्थ के बोध के लिए ही होता है| इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि वाद से जब सत्य का पता लग जाए, तब झट उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, भले ही उससे अपना पुराना मत खंडित होता हो|