ब्रम्हाजी का दर्पभंग
एक बार स्वर्ग अप्सरा मोहिनी ब्रम्हाजी पर अत्यन्त आसक्त हो गयी| वह एकान्त में उनके पास गयी और उनके अनुसार ही बैठकर उनसे प्रेमदान की प्रार्थना करने लगी| ब्रम्हाजी उस समय भगवान् की स्मृति हुई|
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भगवत्कृपा से उनका मन निर्विकार रहा| वे मोहिनी को ज्ञान की बातें समझाने लगे; पर वह उसे न सुनकर अवांछनीय चेष्टा करने लगी|
ब्रम्हाजी भगवान् का स्मरण करने लगे| तबतक सप्तर्षिगण सनकादि के साथ वहाँ पहुँच गये| पर दुर्दैववश अब ब्रम्हाजी को अपने क्रिया, भक्ति तथा शक्ति का गर्व हो गया| ऋषियों ने जब मोहिनी के साथ एकासन पर बैठने का कारण पूछा, तब ब्रम्हाजी ने गर्वपूर्वक हँसकर कहा-‘यह नाचते-नाचते थककर पुत्री के भाव से मेरे पास बैठ गयी है|’ ऋषिलोग समझ गये और थोड़ी देर बाद हँसते हुए चले गये| अब मोहिनी का क्रोध जाग्रत हुआ| उसने शाप दिया-‘तुम्हें अपनी निष्कामता का गर्व है और मुझे शरणागत का तुमने उपहास किया है, इसलिये संसार में न तो तुम्हारी कहीं पूजा होगी और न तुम्हारा यह गर्व ही रहेगा|’ फिर वह तुरंत वहाँ से चलती बनी|
अब ब्रम्हा जी को अपनी भूल का पता चला| वे दौड़े हुए भगवान् जनार्दन की शरण में वैकुण्ठ पहुँचे| वे अभी अपनी गाथा तथा शापादिकी बात सुना ही रहे थे, तबतक द्वारपाल ने प्रभु से निवेदन किया-‘प्रभो! बाहर दरवाजे पर अमुक ब्रह्माण्ड के स्वामी अष्टमुख ब्रम्हा आये है और श्रीचरणों का दर्शन करना चाहते हैं|’ प्रभु की अनुमति हुई| अष्टमुख ब्रम्हा ने आकर बड़ी श्रद्धा से अत्यन्त दिव्य स्तुति सुनायी| ब्रम्हाजी को इन ब्रम्हा के सामने अपनी विद्या, बुद्धि, शक्ति-सब नगण्य दीख पड़ी| तदन्तर ये अष्टमुख ब्रम्हा चले गये| इनके जाते ही दूसरे ही क्षण द्वारपाल ने कहा-‘प्रभो! अमुक दरवाजे पर अमुक ब्राह्मण के अधिनायक षोडशमुख ब्रम्हा उपस्थित हैं तथा चरणों का दर्शन करना चाहते हैं|’ भगवदाज्ञा से वे भी आये और उन्होंने पूर्वोक्त ब्रम्हा से भी उच्च श्रेणी की स्तुति सुनायी| इसी प्रकार एक-एक करके षोडशमुख से लेकर सहस्त्रमुख तक ब्रम्हा आते गये और उत्तरोत्तर उत्कृष्ट शब्दावलीयों में अपना स्रोत सुनाते गये| उनकी योग्यता और निरभिमानता देखकर अपने को प्रभु के तुल्य ही मनाने वाले ब्रम्हाजी का गर्व गलकर पानी हो गया| फिर भगवान् ने गंगास्नान कराकर उनके गर्वजनित पाप की शान्ति करायी|