भटकते दार्शनिक को साधु ने दी सही दिशा
एक दार्शनिक ने पढ़ा- वास्तव में सौंदर्य ही विश्व की सबसे बड़ी विभूति है। भक्ति, ज्ञान, कर्म और उपासना आदि परमात्मा को पाने के तुच्छ मार्ग हैं। सही मार्ग तो सौंदर्य ही है।
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पर्वतों की रम्य कंदराओं और नदियों के सुहावने संगम पर साधक परम तत्व को प्राप्त कर सकता है। यह पढ़कर वह दार्शनिक सौंदर्य की खोज में निकल पड़ा। उसका अपना घर रेगिस्तान में था। अत: उसे अपने घर के प्रति रुचि नहीं रही।
लंबे समय तक वह नदी-पहाड़ों के सुरम्य वातावरण में भ्रमण करता रहा। फिर एक दिन घर आया, किंतु कुछ दिन रुकने के बाद उसका मन उस सौंदर्यहीन स्थान से उकता गया। उसने वहां से चल देने की तैयारी की। यह देख उसके नगर के एक संत ने उससे पूछा- अब कहां जा रहे हो? वह बोला- यहां से कहीं दूर जहां सौंदर्य के दर्शन हो सकें, जो मन और आत्मा को शांति दे सके।
संत ने पूछा- तुम आज तक सौंदर्य की खोज में फिरते रहे हो। जरा यह तो बताओ कि तुमने खुद कितने सौंदर्य की सृष्टि की है? तुम बार-बार अपने घर और स्थान से भाग जाते हो। एक दिन भगवान तुमसे पूछेगा कि मेरे इतने सौंदर्य को देखने के बाद तूने मेरे एक सौंदर्यहीन स्थान को सुंदर बनाने का प्रयास क्यों नहीं किया? कभी सोचा है, इस रेगिस्तान में फूल का एक पौधा या घास की एक बाली लगाने से यह स्थान भी सौंदर्यपूर्ण हो सकता है। मात्र स्वकल्याण की ही सोचते हो? दार्शनिक को बात सही लगी, वह वहीं सौंदर्य सृष्टि में जुट गया और आत्मसंतोष पा लिया।
वस्तुत: सच्च सुख स्वार्थ का हनन करके लोक कल्याण में निहित है। यदि हम अकेले सुखी हैं और दूसरे दुखी तो यह सुख अधूरा होगा।