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भीष्म पितामह

भीष्म पितामह

युद्ध के नौ दिन व्यतीत हो चुके थे| अनेक वीर अपने प्राण न्योछावर कर चुके थे| अभी ऐसा प्रतीत होता कि पांडवों की विजय होगी तो कभी लगता था कि कौरव अधिक शक्तिशाली थे|

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राजा विराट के दोनों पुत्र, उत्तर कुमार और श्वेतकुमार युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए जिससे पांडवों के शिविर में शोक की लहर फैल गई थी| हर रात, जब सेनाएँ विश्राम के लिए वापस जातीं, दुखी और हताश मन से अपने पीछे रणभूमि में हजारों मृतक शरीर छोड़ जातीं| रणभूमि रक्त से लाल हो चुकी थी| परन्तु भीष्म अब भी जीवित थे|

युद्ध भूमि में कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “तुम्हें भीष्म का वध करना ही होगा, अन्यथा इस युद्ध को जितना असंभव है| यदि यह कार्य तुम नहीं कर सकते तो मैं स्वयं उन्हें मृत्युलोक पहुँचाऊँगा| शायद इसके लिए मुझे अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर युद्ध में स्वयं भाग लेना पड़ेगा|” इतना कहते हुए कृष्ण रथ से कूद पड़े| अर्जुन ने उन्हें रोकते हुए कहा, “नहीं! नहीं! मैं आपको शपथ नहीं तोड़ने दूँगा| आप युद्ध न करें| कृपया कल तक प्रतीक्षा करें, कल मैं स्वयं उनका वध करूँगा|”

हर रात युधिष्ठिर जागते रहते और भारी मन से कहा कि वे पांचाल कुमार शिखंडी को अर्जुन का सारथी बनाएँ| भीष्म ने जब शिखंडी को सामने देखा, उन्होंने धनुष-बाण उठाने से मना कर दिया| वे जानते थे कि शिखंडी वास्तव में राजकुमारी अंबा थी, जिसने भीष्म का विनाश करने की शपथ ली थी| भीष्म ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए कहा, “मैं उस व्यक्ति से युद्ध नहीं करूँगा जिसने नारी के रूप में जन्म लिया हो|” भीष्म जानते थे कि शिखंडी उनकी मृत्यु में सहायक होगा| वे यह भी जानते थे कि पृथ्वी पर उनकी लंबी यात्रा समाप्त होने को है|

अर्जुन ने अनुभव किया कि भीष्म की मृत्यु का समय आ गया है| उन्होंने शिखंडी की ओट से प्रहार किया| तीर एक के बाद एक हवा में जाते और वेग से भीष्म के शरीर में भिद जाते| भीष्म ने साहस से उन बाणों की पीड़ा और सहन किया| उन्होंने कहा, “ये अर्जुन के बाण है| केवल अर्जुन ही मुझे मार सकता है|” गर्दन से लेकर पैरों तक सैकड़ों बाण भीष्म के शरीर में बिंधते जा रहे थे| भीष्म गिरे, परंतु रणभूमि पर नहीं, बल्कि बाणों की शैया पर| बाणों की शैया ने उनके सम्पूर्ण शरीर को सहारा दिया| उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर था, केवल सिर लुड़क रहा था| पीड़ा से कराहते हुए वे बोले, “मेरे सिर को सहारे की आवश्यकता है|”

अर्जुन जानते थे कि भीष्म को किस सिरहाने की आवश्कता है| शीघ्र ही उन्होंने भीष्म के सिर के नीचे, धरती पर तीन बाण चला दिए| इन बाणों ने भीष्म के शीश को सहारा दिया|

सभी सैनिक आश्चर्य से, चुप्पी साधे, भीष्म की ओर देख रहे थे| कौरवों का महान योद्धा घायल हो चूका था| देवी गंगा का पराक्रमी पुत्र, शिखंडी और अर्जुन द्वारा धराशायी कर दिया गया था| दसवें दिन का कुरुक्षेत्र-युद्ध सहसा रुक गया था| भीष्म पितामह अत्यधिक पीड़ा में भी बाणों की शैया पर लेते रहे| वे घायल थे, फिर भी संतुष्ट थे|

दुर्योधन घबराकर उस स्थान पर दौड़ा आया जहाँ भीष्म लेते थे| एक क्षण को उसे लगा कि युद्ध में कौरवों की पराजय होगी| भीष्म ने कहा, “दुर्योधन, अब भी पांडवों से समझौता कर लो और उनका राज्य उन्हें लौटा दो|” पर दुर्योधन भला कहाँ माननेवाला था!

“पानी! मुझे पीने के लिए पानी  दो, मेरा गला सुख रहा है, अर्जुन” भीष्म ने कराहते हुए कहा| अर्जुन उनका संकेत समझ गए और शीघ्रता से एक बाण चलाया| स्वच्छ, शीतल जल की एक धारा पृथ्वी से फूटी और सीधी भीष्म के मुँह में जा गिरी| सब कहने लगे, “यह गंगा है, भीष्म की माता, जो उनकी प्यास बुझाने आई हैं|”

भीष्म ने कहा, “मैं इसी शैया पर कुछ समय तक पड़ा रहूंगा और युद्ध की गतिविधियाँ देखूँगा-अपनी मृत्यु का समय आने तक|” सब भीष्म के निकट आकर खड़े हो गए थे| कुछ चुप थे, कुछ रो रहे थे| पराक्रमी, महारथी भीष्म बाणों की शैया पर पड़े हुए थे| भविष्यवाणी के अनुरूप, शिखंडी उनकी मृत्यु का कारण बना|

कर्ण ने जब भीष्म के घायल होने का समाचार सुना, वे शीघ्रता से उनके पास आये और घुटनों के बल बैठकर भारी स्वर में बोले, “कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए, मैंने आवेग और क्रोध में आकर आपके साथ अशिष्ट व्यवहार किया|”

भीष्म ने उत्तर दिया, “मै जानता हूँ, तुम कुंती-पुत्र हो और इसलिए पांडवों की तरह तुम्हें भी स्नेह करता हूँ| परन्तु मैंने शपथ ली थी कि इस भेद को गुप्त रखूँगा| कर्ण, स्मरण रहे तुम पांडवों में ज्येष्ठ हो| अपने अनुजों से युद्ध मत करो|”

कर्ण गिड़गिड़ाया, “मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने दुर्योधन की सहायता और अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा ली है, मैं क्या करूँ?”

“तुम वही करो जिसे अपना कर्तव्य समझते हो, परन्तु यह कभी न भूलना कि तुम एक क्षत्रिय राजकुमार हो,” भीष्म ने कर्ण को आशीर्वाद देते हुए कहा|

दुर्योधन ने कर्ण को सेना का संचालन करने को कहा| परंतु कर्ण बोले, “द्रोण मुझसे अधिक अनुभवी हैं|” अतः द्रोण को कौरवों का सेनापति नियुक्त किया गया|

दुर्योधन ने द्रोण से कहा, “आप युधिष्ठिर को जीवित ही बंदी बनाएँ| मैं उसे जीवित चाहता हूँ|” गुप्त रूप से वह सोच रहा था कि यदि युधिष्ठिर को बंदी बना लिया जाये तो युद्ध समाप्त कर वह फिर पांडु-पुत्र को द्युत के खेल के लिए उकसाएगा और पुनः युधिष्ठिर अपना सर्वस्व गँवा देंगे| उसने सोचा कि यह कार्य युद्ध से अधिक सहज होगा| द्रोण को यह जानकर प्रसन्नता हुई कि दुर्योधन युधिष्ठिर को जीवित बंदी बनाना चाहता है| द्रोण भी पांडव से स्नेह करते थे और नहीं चाहते थे कि पांडव मारे जाएँ|

द्रोण युद्ध के ग्यारहवें और बारहवें दिन युधिष्ठिर को बंदी बनाने की असफल चेष्टा करते रहे| परन्तु अर्जुन छाया की तरह अपने भ्राताश्री के साथ बने रहते और कौरवों के प्रयत्न विफल कर देते| द्रोण ने दुर्योधन से कहा, “मैं युधिष्ठिर को तभी बंदी बना सकूँगा जब अर्जुन को दूसरी ओर व्यस्त किया जाए|”