भारत के कुमारिकाखंड की कथा
ऋषभ के पुत्र भरत थे, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा| भारत के पुत्र शतश्रृंग हुए, उनके आठ पुत्र और एक पुत्री थी| पुत्रों के नाम इंद्रद्वीप, कसेरु, ताम्रद्वीप, गभस्तिमान, नाग, सौम्य, गंधर्व और वरुण थे| राजर्षि शतश्रृंग की कन्या का मुख बकरी के मुख की तरह था| ऐसा होने का कारण उसका पुनर्जन्म में बकरी-शरीर का होना था|
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बकरी-शरीर में वह स्तम्भतीर्थ के पास उलझकर मर गई थी| उसका नीचे का भाग स्तम्भतीर्थ या खम्भार्क की खाड़ी में गिर गया था, इस कारण वह दिव्य देहवाली कुमारी बन गई, किन्तु मुख का आधा भाग लताओं में उलझा हुआ था, अतः उसका मुख बकरी का ही रह गया|
एक दिन उस कुमारी ने दर्पण में अपना मुख देखा| अपना बकरीका-सा मुख देखते ही उसे अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो आई| उसने अपने माता-पिता को अपने पूर्व जन्म का वृतांत बताकर खम्भार्क-क्षेत्र में जाने की आज्ञा ली| वहाँ पहुँचकर उसने अपने पूर्वजन्म के सिर को लताओं में से ढूँढ़ निकाला और उसका खम्भार्क तीर्थ में दाहकर हड्डियों को पवित्र जल में डाल दिया| फिर तो उसका मुख चंद्रमा की कांति के समान दीप्तिमान् हो उठा| इस बात का तीनों लोकों में प्रचार हो गया| ऐसा सुनकर देवता, गंधर्व और राजा लोग विवाह के लिए उसके पिता से याचना करने के हेतु आने लगे, किन्तु उस कुमारी ने किसी को अपना पति बनाना स्वीकार नही किया और वह दुष्कर तपस्या में लग गई| जब तपस्या करते हुए एक वर्ष पूरा हो गया, तब आशुतोष भगवान शंकर ने प्रकट होकर उसे अभीष्ट वर देने को कहा| राजकुमारी उनका पूजन करके बोली कि ‘यदि आप प्रसन्न है तो इस तीर्थ में सदा विराजे|’ भगवान शंकर ‘एवमस्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना को स्वीकार करके चले गए| वहाँ के शिव ‘बर्करेश्वर’ नाम से प्रसिद्ध हुए| जब यह समाचार चारों और फैल गया, तब पाताललोक के नागों का राजा स्वस्तिक उस कुमारी को देखने के लिए स्तम्भतीर्थ में आया| वह जिस मार्ग से पृथ्वी को विदीर्ण कर बाहर निकला था, वहाँ स्वस्तिक नामक कूप प्रसिद्ध हो गया| वह कूप भगवान् शंकर के ईशानकोण पर स्थित हे| उसमें गंगा जी का जल भरा रहता है|
इधर वह कुमारी भगवान शंकर से वर प्राप्त कर अपने माता-पिता के पास सिंघलद्वीप मैं लौट आई| राजा शतश्रृंग अपनी कन्या की बातों को सुनकर बहुत विस्मित हो गए| तत्पश्चात् उन्होंने देश को नौ भागों में विभक्त करके आठ भाग को क्रमशः आठों पुत्रों में बाँट दिया| नवाँ भाग उस लड़की को दिया| उन नवों खंडों के नाम है- इंद्रद्वीपखंड, कसेरुखंड, ताम्रद्वीपखंड, गभस्तिमानखंड, नागखंड, सौम्य-खंड, गंधर्वखंड, वरुणखंड और कुमारिकाखंड| उनमें सात कुलपर्वत भी है, उनके नाम है- महेंद्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान्, ऋच्छ, विन्ध्य और पारियात्र| पारियात्र दक्षिण भाग कुमारिकाखंड के नाम से जाना जाता है, जिसकी स्वामिनी वह कुमारी थी| कुमारी का स्वभाव अत्यंत उदार था| वह अपनी सारी आय को दान में लगाती हुई तपस्या करने लगी| कुछ समय के बाद कुमारी के आठों भाइयो के नौ-नौ पुत्र हुए, जो सभी बल, पराक्रम एवं उत्साह से संपन्न थे| एक दिन वे सभी मिलकर उसके पास आए और बोले कि ‘तुम हमारी कुलदेवी हो| इस समय हम लोग ७२ (बहत्तर) भाई हो गए है| पर हमारे पास कुल आठ ही खण्ड है, अतः तुम कृपा करके आठों खंडों को ७२ भागों में बाँट दो|’ तब कुमारी ने उनके बहत्तर भाग किए| इन सभी देशों के गाँवों की संख्या ९६ करोड़, ७२ लाख, ३६ हज़ार है| इस प्रकार उस कुमारी ने समुंद्र तक के सभी देश का विभाग करके उन सभी गाँवों को अपने भतीजों को दे दिया तथा अपने भाग को भी उन्हीं लोगों को सौंप दिया| यह कुमारिकाखंड चारों पुरुषार्थों को प्रदान करनेवाला है|
बाद में कुमारी गुप्तक्षेत्र में कुमारेश्वर का पूजन करती हुई भारी तपस्या करने लगी| उसने वहाँ कुमारेश्वर के एक विशाल स्वर्णमय मंदिर का निर्माण कराया| वहाँ भगवान शंकर प्रकट हुए| उनकी आज्ञा से उसने महाकाल को अपने पतिरुप में वरण किया और उनके साथ वह रुद्रलोक में चली गई| वहाँ पार्वती जी ने उसे ह्रदय से लगाया और चित्रलेखा नाम से अपनी सखी बना लिया| उसी ने उषा को चित्रद्वारा अनिरुद्ध का परिचय दिया था| कहते है कि रुद्र का विवाह उसी ने कराया था| इस प्रकार यहाँ पर मरे हुए मनुष्यों का दाह करना और हड्डियों को संगम के जल में डालना प्रयाग से भी अधिक उत्तम बताया गया है|