भक्ति से सर्वातिशायी सामर्थ्य
भगवान् शंकर की भक्ति से मनुष्य में इतनी सामर्थ्य आ जाती है कि वह देवों को भी अभिभूत कर सकता है| विप्र दधीच भगवान् शंकर के उत्तम भक्त थे| वे भस्म धारण करते थे और सदा भगवान शंकर का स्मरण किया करते थे| राजा क्षुप इनके मित्र थे| ये क्षुप कोई साधारण राजा नही थे| असुरों के युद्ध में इनसे इंद्र सहायता लेते रहते थे|
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क्षुप ने असुरों पर इतना पराक्रम दिखलाया कि इंद्र ने प्रसन्न होकर इन्हें व्रज दे दिया था| इस पुरुस्कार को पाकर राजा क्षुप का अहंकार बढ़ गया| वे अपने मित्र दधीच से बार-बार कहा करते थे कि मैं आठ लोकपालों के अंशों से बना हूँ, अतः मैं ईश्वर हूँ| आप भी मेरी पूजा किया करे|
दधीच को यह बात अच्छी नही लगी| धीरे-धीरे दोनों मित्रों में मनोमालिन्य बढ़ने लगा| एक दिन दधीच ने जब क्षुप के मस्तक पर मुष्टिक प्रहार किया, तब मदोन्मत क्षुप ने उन पर व्रज चला दिया|
व्रज से आहत होने पर दधीच ने महर्षि शुक्र का स्मरण किया| महर्षि शुक्र संजीवनी विद्या के विशेषज्ञ थे| योगबल से वहाँ पहुँचकर उन्होंने दधीच के क्षत-विक्षत शरीर को जोड़कर पूर्ववत् बना दिया| फिर उन्होंने दधीच को परामर्श दिया कि ‘तुम भगवान् शिव की आराधना कर अवध्य बन जाओ| वे परब्रह्मा है, आशुतोष है| उन्हीं की शरण लो| मैंने उन्हीं से मृत संजीवनी विधा प्राप्त की है|’
तत्पश्चात् दधीच ने आराधना कर भगवान् शंकर से अवध्यता प्राप्त कर ली| भगवान् शंकर ने दधीच की हड्डी को व्रज बना दिया और उन्हें कभी दीन-हीन न होने का वरदान दे दिया| दधीच समर्थ होकर राजा क्षुप के पास पुनः पहुँच गए| दोनों में अहंकार की मात्रा बढ़ी हुई थी| राजा क्षुप ने उन पर पुनः व्रज का प्रहार किया, किंतु इस बार दधीच का बाल भी बाँका न हुआ| उनमें दीन-भाव भी न आया|
इस पराभव से राजा क्षुप ने विष्णु देव की आराधना की| विष्णु देव ने प्रसन्न होकर राजा को समझाया कि ‘शिव के भक्त को किसी से भय नही होता| दधीच की तो बात ही निराली है|’ किंतु राजा क्षुप का आग्रह देख विष्णुदेव ब्राह्मण का रुप धारण कर दधीच के पास पहुँचे| शिव-भक्ति के प्रभाव से दधीच ने विष्णु देव को पहचान लिया और कहा की ‘मैं आपकी भक्त वत्सलता को जानता हूँ, किंतु भगवान् शंकर के प्रभाव से मुझे किसी का भय नही है|’ श्री विष्णु ने कहा- ‘दधीच! भगवान् शंकर की कृपा से तुम्हें सचमुच भय नही है और तुम सर्वज्ञ हो गए हो, किंतु झगड़ा मिटाने के लिए एक बार तुम कह दो कि मैं डरता हूँ|’ दधीच इसके लिए तैयार नही हुए, तब विवश होकर श्रीविष्णु को चक्र उठाना पड़ा| राजा क्षुप वही विद्यमान थे| चक्र को निस्तेज देखकर श्री विष्णु देव ने अपना सब अस्त्र-शस्त्र छोड़कर दधीच को अपना विश्वरुप दिखलाया| तब दधीच ने भगवान् की कृपा से अपने शरीर में हज़ारों ब्रह्मा, विष्णु, महेश दिखलाए|
राजा क्षुप दधीच का यह अद्धभुत सामर्थ्य देखकर चकित हो गए| तब भगवान् शंकर की भक्ति के महत्व को समझकर दधीच की पूजा की| इस तरह दधीच ने सिद्ध कर दिया कि भक्ति सबसे बढ़कर है- भक्ति नियन्ता से भी श्रेष्ठ है|