भक्ति बड़ी या शक्ति?
‘मुनिप्रवर! आप तो पृथ्वी पर निवास करने वाले श्रेष्ठ ऋषि प्रतीत होते हैं|रसातल में आपके पधारने का क्या कोई विशेष प्रयोजन है?’-महातेजस्वी प्रह्वादने अमित तेजस्वी च्यवन ऋषि का यथायोग्य पूजनकर विनम्रतापूर्वक प्रश्न किया|
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तब नर्मदा-तट पर ‘नकुलिश्वर-तीर्थ’ में स्नानार्थ आये ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महातपस्वी च्यवन ने एक भूरे रंग के विषधर द्वारा उन्हें पकड़कर यहाँ लानेतक का सम्पूर्ण वृत्तान्त उन्हें सुना दिया|
‘महामुने! कष्ट के लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, पर इस रूप में मेरा कल्याण ही हुआ कि मुझे आपके दर्शन और आतिथ्य का सुअवसर अनायास प्राप्त हो गया| भगवन्! बहुत दिनों से पृथ्वी के किसी महान् तीर्थ पर भ्रमण की आकांक्षा मेरे मन में उठ रही है| इस विषय में आप मेरा मार्गदर्शन करें|’
ऋषि च्यवन से नैमिषारण्य का वर्णन सुनकर दैत्यराज प्रह्वाद महाबलवान दितिपुत्रों एवं दानवों सहित यहाँ आये| तीर्थ-स्नान के पश्चात् प्रह्वाद ने वन में घूमते हुए एक अदभुत दृश्य देखा-कृष्ण मृगचर्म धारण किये दो जटाजूटधारी मुनि तपस्या में निरत हैं| यह कैसी तपस्या? जिस विशाल शालवृक्ष के नीचे बैठे वे तपस्या कर रहे हैं, वह तो बाणों से पूर्णतया आच्छादित है| यही नहीं, इन मुनियों के पार्श्व में ‘शार्गङ’ तथा ‘आजगव’ नामक दो दिव्य धनुष और अक्षय तुणीर भी रखे हैं| दैत्यराज इस विरोधभास को देखकर मुनियों को दम्भी मान बैठे और उनके निकट जाकर बोले-‘आप दोनों यह दम्भपूर्ण धर्मविनाशक कार्य क्यों कर रहे हैं? एक ओर जटाजूट का भार तो दूसरी ओर श्रेष्ठ अस्त्र भी?’
‘दैत्येश्वर! तुम इससे चिन्तित क्यों हो गये? सामर्थ्यवान जो भी कार्य करता है, उसे वही शोभा देने वाला बन जाता है|’ तपस्वियों ने समझाया|
‘नहीं, धर्मसेतु के स्थापित करने वाले मुझ दैत्येन्द्र के रहते आपका यह अहंभाव मात्र प्रवंचना है|’ प्रह्वाद ने आवेश में कहा|
नर-नारायण नामक दोनों मुनियों ने प्रह्वाद को समझाया, पर अहंभाववश प्रह्वाद ने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा कर ली कि ‘मैं युद्ध में आप दोनों को परास्त करूँगा|’
ब्रम्हास्त्र एवं माहेश्वरास्त्र-जैसे अस्त्रों का परस्पर प्रयोग भी हुआ, पर प्रह्वाद निरन्तर पीछे हटते चले गये| उन्होंने मुदगर, प्रास, परिघ, शक्ति आदि अनेक अस्त्रों का प्रयोग किया, फिर भी वे उनमें से पुरातन ऋषि महापराक्रमी लोकपति नारायण की पराजित न कर सके|
निराश प्रह्वाद जी ने वैकुण्ठ धाम में जाकर भगवान् विष्णु की शरण ली और उनसे अपनी पराजय का कारण जानना चाहा|
भगवान् ने कहा-‘प्रह्वाद! महाबाहु धर्मपुत्र नारायण तुम्हारे द्वारा अजेय हैं| वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ परमज्ञानी ऋषि हैं| वे सभी देवता एवं असुरों से भी अजेय हैं|’
‘पर भगवन्! मैंने तो उनके वेष को देखकर आवेश में जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसका क्या होगा?’ प्रह्वाद ने विनयपूर्वक पूछा|
भगवान् बोले-‘दानवश्रेष्ठ! जहाँ शक्ति पराजित हो जाती हैं, वहाँ भक्ति विजयी होती है| नारायण पर विजय चाहते हो तो भक्ति से उनकी आराधना करो| इसी से वे सुसाध्य हैं| नारायण रूप में मैं ही तो वहाँ विश्व-मंगल की कामना से तपस्यारत हूँ’-
सोऽहं दानवशार्दूल लोकानां हितकाम्यया|
धर्मं प्रवर्तापयितुं तपश्चर्यां समास्थितः||
तस्माद्यदीच्छसि जयं तमाराधय दानव|
तं पराजेष्यसे भक्त्या तस्माच्छुश्रूष धर्मजम्||
भगवान् विष्णु के कथानुसार प्रह्वाद जी ने बदरिकाश्रम में जाकर भगवान् नर-नारायण को अपनी श्रद्धा-भक्ति से वश में किया और उनसे वरदान के रूप यह माँगा-‘अधोक्षज! मैं महापराक्रमी के रूप में नहीं, अपितु आप के भक्त के रूप में संसार में चर्चित होऊँ|’-
‘त्वत्पादपकङजाभ्यां हि ख्यातिरस्तू सदा मम|’