भक्त विष्णुदास और चक्रवर्ती सम्राट् चोल
पहले कांचीपुर में चोल नाम के चक्रवर्ती राजा हो गये हैं| राजा चोल के राज्य में कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुःखी, पापी तथा रोगी नहीं था|
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एक समय की बात है-राजा चोल अनन्तशयन नामक तीर्थ में गये, वहाँ उन्होंने जगदीश्वर भगवान् विष्णु के दिव्य विग्रह की विधि पूर्वक पूजा की| दिव्य मणि, मुक्ताफल तथा स्वर्ण के बने हुए सुन्दर पुष्पों से पूजन करके राजा ने साषटागङ प्रणाम किया|
प्रणाम करके वे ज्यों ही बैठे, त्यों ही उनकी दृष्टि भगवान् के पास आते हुए एक ब्राह्मण पर पड़ी जो उन्हीं की कांची नगरी के निवासी थे| उनका नाम था विष्णुदास| उन्होंने भगवान् की पूजा के लिये अपने हाथ में तुलसीदल एवं जल ले रखा था| निकट आने पर उन ब्रम्हार्षि ने विष्णुसूक्त का पाठ करते हुए देवाधिदेव भगवान् को स्नान कराया और तुलसी की मंजरी तथा पत्तों से उनकी विधिवत् पूजा की| राजा चोलने, जो पहले, रत्नों से भगवान् की पूजा की थी, वह सब तुलसी-पूजा से ढक गयी| यह देखकर राजा कुपित होकर बोले-‘विष्णुदास! मैंने मणियों तथा स्वर्ण से भगवान् की पूजा की थी, वह कितनी शोभा पा रही थी| तुमने तुलसीदल चढ़ाकर उसे ढक दिया| मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम दरिद्र और गँवार हो| भगवान् विष्णु की भक्ति बिलकुल नहीं जानते|’ राजा की यह बात सुनकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास ने कहा-‘राजन! आपको भक्ति का कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मी के कारण आप घमंड कर रहे हैं|’ तब नृपश्रेष्ठ चोलने हँसकर कहा-‘तुम तो दरिद्र एवं निर्धन हो| तुम्हारी भगवान् विष्णु में भक्ति ही कितनी है? तुमने भगवान् विष्णु को संतुष्ट करने वाला कोई भी यज्ञ, दान आदि नहीं किया और न पहले कभी कोई देवमन्दिर ही बनवाया है| इतने पर भी तुम्हें अपनी भक्ति का इतना गर्व है| अच्छा, तो ये सभी ब्राह्मण मेरी बात सुन लें| भगवान् विष्णु का दर्शन पहले मैं करता हूँ या यह ब्राह्मण| इस बात को आप सब देखें, फिर हम दोनों में किसकी भक्ति कैसी है, यह सब लोग स्वतः जान लेंगे|’
ऐसा कहकर राजा अपने राजभवन को चले गये| वहाँ उन्होंने महर्षि मुद्गल को आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञ प्रारम्भ किया| उधर सदैव भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाले शास्त्रोक्त नियमों में तत्पर विष्णुदास भी व्रत का पालन करते हुए वहीं भगवान् विष्णु के मन्दिर में टिक गये| उन्होंने माघ और कार्तिक के उत्तम व्रत का अनुष्ठान, तुलसीवन की रक्षा, एकादशीव्रत, द्वादशाक्षर (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्र का जप, नृत्य, गीत आदि मंगलमय आयोजनों के साथ प्रतिदिन षोडशोपचार से भगवान् विष्णु की पूजा आदि नियमों का आचरण किया| वे प्रतिदिन चलते-फिरते और सोते-जागते सब समय भगवान् विष्णु को ही स्थित देखते थे| इस प्रकार राजा चोल एवं विष्णुदास दोनों ही भगवान् लक्ष्मीपति की आराधना में संलग्न थे| दोनों ही अपने-अपने व्रत में स्थित थे और दोनों की ही सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तथा समस्त कर्म भगवान् विष्णु को समर्पित हो चुके थे| इस अवस्था में उन दोनों ने दीर्घकाल व्यतीत किया| एक दिन की बात है कि विष्णुदास ने पूजा-पाठ आदि नित्यकर्म करने के पशचात भोजन तैयार किया, किंतु कोई अलक्षित रहकर उसे चुरा ले गया| विष्णुदास ने देखा-भोजन नहीं है, परंतु उन्होंने दोबारा भोजन नहीं बनाया, क्योंकि ऐसा करने पर सांयकाल की पूजा के लिये उन्हें अवकाश नहीं मिलता और प्रतिदिन के नियम का भंग हो जाने का भय था| दूसरे दिन पुनः उसी समय पर भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान् विष्णु को भोग अर्पण करने के लिये गये, त्यों ही किसी ने आकर फिर सारा भोजन हड़प लिया| इस प्रकार सात दिनों तक कोई आ-आकर उनके भोजन का अपहरण करता रहा| इससे विष्णुदास को बड़ा विस्मय हुआ| वे इस प्रकार मन-ही-मन विचारने लगे-‘अहो! कौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है| यदि दुबारा रसोई बनाकर भोजन करता हूँ तो सांयकल की पूजा छूट जाती है| यदि रसोई बनाकर तुरंत ही भोजन कर लेना उचित हो तो भी मुझसे यह न होगा, क्योंकि भगवान् विष्णु को सब कुछ अर्पण किये बिना कोई भी वैष्णव भोजन नहीं करता| आज उपवास करते मुझे सात दिन हो गये| इस प्रकार मैं व्रत में कबतक स्थिर रह सकता हूँ|’ ऐसा निश्चय करके भोजन बनाने के पश्चात् वे कहीं छिपकर खड़े हो गये| इतने में ही उन्हें एक चाण्डाल दिखायी दिया, जो रसोई का अन्न चुराकर ले जाने के लिये तैयार खड़ा था, भूख के मारे उसका शरीर दुर्बल हो गया था| मुख पर दीनता छा रही थी| शरीर में अस्थि और चर्म के सिवा और कुछ शेष नहीं बचा था| उसे देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णुदास का हृदय करुणा से भर आया| उन्होंने भोजन चुराने वाले चाण्डाल की ओर देखकर कहा-‘भैया! जरा ठहरो, ठहरो, क्यों रुखा-सूखा खाते हो, यह घी तो ले लो|’ यों कहते हुए विप्रवर विष्णुदास को आते देख वह चाण्डाल भय के मारे बड़े वेग से भागा और कुछ ही दूर पर मूर्क्षित होकर गिर पड़ा| चाण्डाल को भयभीत और मूर्क्षित देखकर विष्णुदास बड़े वेग से उसके पास आये तथा दयावश अपने वस्त्र के छोर से उसे हवा करने लगे| तदन्तर जब वह उठ कर खड़ा हुआ, तब विष्णुदास ने देखा कि वहाँ चाण्डाल नहीं है| साक्षात् भगवान् नारायण ही शंख, चक्र और गदा धारण किये सामने उपस्थित हैं| विष्णुदास अपने प्रभु को उपस्थित देखकर सात्त्विक भावों के वशीभूत हो गये| वे स्तुति और नमस्कार करने में भी समर्थ न हो सके| तब भगवान् विष्णु ने सात्त्विक व्रत का पालन करने वाले अपने भक्त विष्णुदास को छति से लगा लिया और उन्हें अपने-ही-जैसा रूप देकर वैकुण्ठ धाम को ले चले| उस समय यज्ञ में दीक्षित हुए राजा चोलने देखा-विष्णुदास एक श्रेष्ठ विमानपर बैठकर भगवान् विष्णु के समीप जा रहे हैं|
विष्णुदास को वैकुण्ठ धाम में जाते देख राजा ने शीघ्र ही अपने गुरु महर्षि मुद्गल को बुलाया और इस प्रकार कहा-‘जिसके साथ स्पर्धा करके मैंने इस यज्ञ, दान आदि कर्म का अनुष्ठान किया है, वह ब्राह्मण आज भगवान् विष्णु का रूप धारण करके मुझसे पहले वैकुण्ठधाम को जा रहा है| मैंने इस वैष्णवयाग में भलीभाँति दीक्षित होकर अग्नि में हवन किया और दान आदि के द्वारा ब्राह्मणों का मनोरथ पूर्ण किया तथापि अभी तक भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न नहीं हुए और विष्णुदास को केवल भक्ति के ही कारण श्रीहरि ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया है| अतः जान पड़ता है कि भगवान् विष्णु केवल दान एवं यज्ञों से ही प्रसन्न नहीं होते| उन प्रभु का दर्शन कराने में भक्ति ही प्रधान कारण है|’ यों कहकर राजा अपने भोजन को राज्य दे यज्ञशाला में गये और यज्ञकुण्ड के सामने खड़े होकर भगवान् विष्णु को सम्बोधित करते हुए तीन बार उच्चस्वर से बोले-‘भगवन्! आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा होने वाली अविचल भक्ति प्रदान कीजिये|’ इस प्रकार कहकर वे सबके देखते-देखते अग्निकुण्ड में कूद पड़े| बस, उसी समय भक्तवत्सल भगवान् विष्णु उन अग्निकुण्ड से प्रकट हो गये| उन्होंने राजा को छाती से लगाकर एक श्रेष्ठ विमान पर बैठाकर उन्हें साथ ले वैकुण्ठधाम को प्रस्थान किया|
इन दोनों की भक्तिपर ही भगवान् परम प्रसन्न हुए थे| भगवत्कृपा से ब्राह्मण विष्णुदास पुण्यशील और राजा चोल सुशील नाम से भगवान् के प्रसिद्ध पार्षद हुए| इन दोनों को अपने ही समान रूप देकर भगवान् लक्ष्मीपति ने पाना द्वारपाल बना लिया|