भगवान् सूर्य का परिवार
भगवान् सूर्य उत्पत्ति के समय एक प्रकाशमय विशाल गोलाकार वृत के रुप में थे, उनका एक नाम मार्तण्ड है| देवशिल्पी विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा का विवाह उनके साथ कर दिया था|
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संज्ञा के सुरेणु, राज्ञी, घौ, त्वाष्ट्री एवं प्रभा आदि अनेक नाम है| सूर्य का प्रचंड तेज संज्ञा के लिए सर्वथा दुःसह था| तेज से उसकी आँखें मूँद जाती थी, फिर भी वह सभी प्रकार से अपने पति को संतुष्ट रखती थी| उसी स्थिति में संज्ञा से वैवस्वत मनु, यम और यमुना नाम की तीन संतानें उत्पन्न हुई|
संज्ञा के मन में अपने पति के सुंदर रुप के स्पष्ट न देखने का दुःख बना रहता था| उसने सोचा कि ‘तपस्या करने से मुझमें वह शक्ति आ सकती है, जिससे मैं उनके सुंदर रुप को अच्छी तरह देख सकूँ और उनके अर्थअंग स्पर्श को सह सकूँगी|’ ऐसा विचार कर उसने अपने शरीर से एक छाया प्रकट की और उसे उसने पति की सेवा में नियुक्त कर स्वयं कुछ दिन पिता के घर रहकर, बाद में उत्तर कुरु में तपस्या करने चली गई| अपने सतीत्व की रक्षा के लिए उसने अपना स्वरुप अश्वनी का बना लिया था|
छाया का दूसरा नाम विक्षुभा है| उसके प्रत्येक अंग, आकृति, बोल-चाल आदि संज्ञा के सदृश ही थे, इसलिए भगवान् सूर्य ने इस रहस्य की ओर ध्यान नही दिया| वे छाया को संज्ञा ही मानते रहे| उससे सावर्णि मनु, शनि और तपती तथा विष्टि (भद्रा) नाम की चार संतानें हुई| छाया अपनी संतानों को बहुत प्यार करती थी और वैवस्वत यम तथा यमुना से द्वेष करती थी| यह विषमता अंत में इतनी बढ़ी कि उसने विवाद का रुप धारण कर लिया|
छाया द्वारा निरंतर उत्पीड़ित होने पर यम को एक दिन क्रोध हो आया| माता को धमकाने के लिए उन्होंने अपना पैर उठा लिया| यह देख कर छाया कुपित हो उठी, उसने शाप दे दिया कि पितृ-भार्या पर उठाया यह पैर पृथ्वी पर गिर पड़ेगा|
इसी कलह के बीच भगवान् सूर्य आ गए| बालक यम ने पिता से कहा- ‘पिताजी! माता प्रतिदिन हम तीन भाई-बहनों को तंग किया करती है| वह हमें शनि, तपती आदि की तरह नही मानती| उसने हमें पृथ्वी पर पैर गिरने का शाप भी दे डाला है|’ यह सुनकर भगवान् सूर्य ने छाया से पूछा- ‘तुम्हारे लिए सभी संतानें बराबर है, फिर यह विषमता क्यों करती हो|’ भगवान् सूर्य ने छाया के शाप का परिहार करते हुए कहा कि ‘यम का पैर नही गिरेगा| तपती संवरण की पत्नी होगी| विंध्याचल के दक्षिण ‘तपती’ और उत्तर की ओर ‘यमुना’ बहेगी| ये दोनों नदियाँ जनता के पाप-ताप का नाश करती रहेगी|’ पुनः उन्होंने पुत्र को वरदान दिया कि ‘तुम लोकपाल बन जाओ|’
इसके बाद भगवान् सूर्य अपने ससुर त्वष्टा के पास गए| वे जानना चाहते थे कि मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर तप क्यों कर रही है? त्वष्टा ने ध्यान लगाकर सब बातें जान ली| उन्होंने बताया कि संज्ञा को आप का तेज असहा था| आप में इतना अधिक प्रकाश है कि आपका रुप उससे ढक जाता है| यदि आप चाहे तो प्रकाश को तराशकर कम कर दिया जाए| भगवान् सूर्य अपनी पत्नी की प्रसन्नता के लिए कष्ट सहने को तैयार हो गए, तब त्वष्टा (विश्वकर्मा)-ने भ्रमि (खराद)-पर चढ़ा कर उनके तेज को छाँट दिया|
भगवान् सूर्य को अपनी पत्नी के अनुरुप पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई| वे अपनी पत्नी के पास उत्तर कुरु चले गए| वहाँ उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अश्वनी-रुप में स्थित अपनी पत्नी को पहचान लिया और स्वयं अश्व का रुप धारण कर उससे मिले| बेचारी अश्विनी घबरा गई| वह डर गई की किसी दूसरे पुरुष ने मेरा स्पर्श न कर लिया हो| तब उसने दोनों नाकों से सूर्य के तेज को फेंक दिया| उसी से अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई| तेज के अंतिम अंश से रेवन्त की उत्पत्ति हुई| बड़े होने पर दोनों अश्वनी कुमार देवताओं के वैध हुए और रेवन्त को गुहों को एवं अश्वों का अधिपत्य प्राप्त हुआ|
इस तरह भगवान् सूर्य को संज्ञा से वैवस्वत मनु, यम, यमुना, अश्वनी कुमार और रेवन्त तथा छाया से शनि, तपती, विष्टि और सावर्णि मनु ये दस संतानें हुई| विषमता अच्छी नही होती| भगवान् छोटे-बड़े सबमें समान रुप से विद्यमान है| अतः सदा सम व्यवहार ही करना चाहिए| यही साम्ययोग है| इस कथा से व्यक्त होता है कि विषमता के व्यवहार से कोई लाभ नही है|