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भगवान् श्रीराम का एकाग्र-क्षेत्रीय अश्वमेघ-यज्ञ

एक बार भगवान् श्रीराम ने अयोध्या की राजसभा में उपस्थित वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप आदि श्रेष्ठ ऋषियों से प्रश्न किया कि ‘इस विश्व में सर्वश्रेष्ठ एवं मोक्षदायक पवित्र तीर्थ कौन सा है, जिसका दर्शन करने से मनुष्य अपने पाप-राशि का क्षय और धर्म प्राप्त करता है|’

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इस पर वशिष्ठ जी ने कहा- ‘एकाम्र क्षेत्र (भुवनेश्वर) सभी स्थानों में श्रेष्ठ है, जहाँ भगवान् शिव स्वयं ही लिंग रुप में निवास करते है|’ यह सुनकर भगवान् राम अत्यंत प्रसन्न हुए और अपने भाईयों, ऋषियों तथा सीता के साथ चतुरंगिणी सेना लेकर एकाम्र क्षेत्र में गए| वहाँ उन्होंने सीताजी के साथ कृतिवासेश्वर लिंगराज का विधिवत दर्शन-पूजन किया| याचकों तथा द्विजों को दान देकर संतुष्ट किया और एक वर्ष तक निवास कर एक दिव्य मंदिर का निर्माण कराया| इस बीच वे प्रतिदिन पवित्र विन्दुसर में स्नान करके वेद-वर्णित विधि के द्वारा गौ, द्विज और ऋषियों का सम्मान करते हुए धर्मपूर्ण जीवन व्यतीत करते रहे|

एक बार जब भगवान् श्रीराम ऋषियों के साथ धर्म चर्चा में लीन थे, तभी आकाशवाणी हुई-‘हे राजन्! इस पवित्र शिव-स्थान में तुम अश्वमेघ यज्ञ करो, इससे तुम्हारी कीर्ति सदैव संसार में स्थिर रहेगी|’ वशिष्ठ आदि ऋषियों के अनुमोदन पर श्रीराम ने शुभ मुहूर्त में विद्वान् ऋत्विजों की अनुमति से एकाम्र क्षेत्र में अशवमेघ यज्ञ का शुभारंभ किया| मंत्र द्वारा समस्त लक्षण युक्त यज्ञीय अश्व दिग्विजय के लिए छोड़ा गया| चतुरंगिणी सेना के साथ श्री शत्रुघ्न जी उस यज्ञीय अश्व के रक्षक बने| यज्ञ-कार्य में दीक्षित श्री राम जी ने देवताओं तथा ऋषियों का आशीर्वाद ग्रहण करते हुए समस्त शुभ लक्षणों से युक्त उस अश्व को मंत्र पाठ करते हुए जाने की अनुमति प्रदान की|

उस घोड़े के साथ चलते हुए ससैन्य श्री शत्रुघ्न जी अनेक नदी-नद-सरोवर, वन एवं प्रदेशों को पार करते हुए श्री शैल नामक स्थान पर जा पहुँचे| जहाँ कज्जलगिरी-सा काला, राम का नित्यद्वेषी दुरात्मा कमठांग असुर निवास करता था| उसने श्री राम के यज्ञीय अश्व का हरण करके उसे लताओं से आच्छादित एक पर्वत की कंदरा में छिपा दिया| जब श्री शत्रुघ्न आदि वीरों ने यज्ञ के घोड़े को नही देखा, तब वे बड़े चिंतित हुए और चारों दिशाओं में घोड़े की खोज करने लगे| रात्रि भर किसी प्रकार चित्रावली नदी के किनारे चिंतामग्न उन वीरों को प्रत्येक क्षण कल्प के समान बीता| अश्व की रक्षा कर पाने में असमर्थ श्री शत्रुघ्न आदि वीरों ने अपने मरण को ही उचित समझा| इसी बीच देवर्षि नारद वीणा बजाते हुए वहाँ आ पहुँचे| सारी स्थिति जानकार उन्होंने श्री शत्रुघ्न से कहा- ‘आपके अश्व का अपहरण विकट राक्षस के भ्राता कमठ ने किया है| उसने उसे श्री शैल के पास प्लक्ष वन में छिपा दिया है| उस पापी का वधकर आप अपने अश्व को प्राप्त कर सकेंगे|’

देवर्षि नारद की बात से श्री शत्रुघ्न प्रसन्न होकर कमठ राक्षस का वध करने के लिए अपनी सेना के साथ प्राची वेत्रवती नदी के किनारे जा पहुँचे| इधर देवर्षि नारद श्री शैल पर स्थित असुरराज कमठांग के महल में पहुँच गए और उसे यह सूचना दी कि यज्ञीय अश्व को मुक्त कराने के लिए रामानुज शत्रुघ्न अपनी विशाल सेना के साथ आ रहे है और उनके द्वारा तुम्हारा वध होगा| तब कमठ ने कहा- ‘मुने! राम हो या राम का भाई हो या कोई अन्य हो, मैं युद्ध में सम्मुख इंद्र से भी नही डरता, सामान्य मनुष्यों की क्या स्थिति है| मैं अश्वमेघ का घोड़ा कभी न दूँगा|’ यह कहकर वह भी अपनी सेना सजाकर युद्ध के लिए चल पड़ा| दोनों ओर से भयानक युद्ध छिड़ गया| अनेक हाथी, घोड़े, सारथि आदि देवासुर-संग्राम की तरह उस युद्ध में कट-कटकर गिरने लगे| रक्त की नदी बह चली| वीरवर श्री शत्रुघ्न की बाण-वर्षा से पीड़ित होकर कमठ की सेना भाग चली| कमठ के कहने पर उसके सारथि ने रथ को शत्रुघ्न के सामने खड़ा किया| उन दोनों योद्धाओं का द्वंद युद्ध देखने के लिए संपूर्ण देवता, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग आदि आकाश में स्थित हो गए| कमठ के द्वारा छोड़े गए पिशाचास्त्र को श्री शत्रुघ्न ने गंधर्वास्त्र से काट गिराया| इससे सभी दानव भयभीत होकर भाग चले| कमठ ने अपनी भागती हुई सेना का लौटाया और तिमिरास्त्र का प्रयोग किया| इससे दसों दिशाओं में इतना अंधकार छा गया कि किसी को अपना हाथ तक नही दिखाई पड़ता था| तत्पश्चात् शत्रुघ्न ने सूर्यास्त्र चलाकर उस अंधकार को दूर करते हुए अष्टशूलमय तीक्ष्ण बाण से उसके रथ के चारों घोड़ों और सारथि को मार डाला| इस पर वह क्रूरकर्मा राक्षस वृक्ष लेकर शत्रुघ्न पर झपट पड़ा| तब श्री शत्रुघ्न जी ने अर्धचन्द्रास्त्र से उसका मस्तक काट गिराया कमठ की मृत्यु से प्रसन्न होकर देवों ने शत्रुघ्न जी की स्तुति करते हुए उन पर पुष्पवृष्टि की| इसके पश्चात् शत्रुघ्न जी यज्ञ का घोड़ा लेकर भुवनेश्वर लौट आये|

यज्ञीय अश्व प्राप्त कर भगवान् श्रीराम ने विधिवत् अपना अश्वमेघ-यज्ञ पूर्ण किया| इस यज्ञ के किए जाने से भगवान् शंकर अत्यंत प्रसन्न हुए और वे भगवान् श्री राम की प्राथना पर एकाम्र क्षेत्र में रामेश्वर रुप से प्रतिष्ठित हुए| इस रामेश्वर-तीर्थ में शिवोपासना करने से ऋद्धि, सिद्धि, स्वर्ग सुख, क्षेम, आरोग्य एवं समस्त ऐश्वर्य व्यक्ति को उपलब्ध होते है|

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