बड़प्पन

पंडित पुरचुरे शास्त्री महाराष्ट्र प्रदेश के शास्त्रों के बड़े पंडित थे, परंतु वह महारोग कोढ़ से पीड़ित हो गए थे, फलतः अपनी कुरुपती के बावजूद, परिवार, समाज, जनसमाज से लगभग उपेक्षित हो गए थे|

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कुष्ठ से इतने पीड़ित हो गए थे कि चिकित्सकों ने भी उनके ठीक होने की उम्मीद छोड़ दी थी| एक ओर से निराश होकर वह वर्धा जिले से गाँव, वर्तमान सेवाग्राम में आ गए| उन्होंने सोचा था कि जीवन की अंतिम घड़ियाँ वह बापू के आश्रम में बिताएँगे, और वही वह अपने प्राण छोड़ देंगे| गाँव के पास की एक निर्जन सड़क पर लेट गए|

यह खबर सब गाँव वालों को व आश्रमवालों को मिली तो दूर-दूर से आकर सबने पुरचुरे शास्त्री को तड़पते देखा, मगर कोई पास नहीं आया| अंत में बापू को भी सूचना मिली| जब बापू सूचना मिलते ही काम छोड़कर उस सड़क पर पहुँचे; शास्त्री को सहारा दिया और आश्रम ले आए| सब आश्रमवासी दूर-दूर ही रहे; कोई उनकी सेवा के लिए नहीं आया| स्वयं बापू ने ही शास्त्री जी के घाव धोए| उनकी मालिश की| महीनों तक वह उनकी सेवा में जुटे रहे| अंत में आश्रम के कार्यकर्ताओं में भी हिम्मत आई| वे भी मालिश और सेवा के काम में बापू की मदद करने लगे, परंतु बापू ने स्वयं किसी से उनकी सेवा के लिए एक बार नहीं कहा| यह था बापू का बड़प्पन| इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि छोटे काम करके ही व्यक्ति बड़ा बनता है|

चोर का ब