बाहर का दीया
एक आदमी था| वह रोज बड़े तड़के मंदिर में जाता था और एक दीपक जलाकर रख आता था| यह सिलसिला एक-दो महीने से नहीं, लंबे अर्से से चल रहा था|
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मंदिर के ठीक सामने घर की बैठक में बैठा एक नौजवान उसे बिना नागा आते देखकर चकित हो उठा|
एक दिन जब वह दीपक जलाकर जाने लगा तो उसने उसे रोककर पूछा – “भाई साहब, भगवान में तुम्ह्रारी बड़ी गहरी श्रद्धा मालूम होती है| न जाड़ा देखते हो, न गर्मी न बरसात, नित्य नियम से यहां आकर दीया जला जाते हो!”
वह आदमी हंसा और बोला – “सवाल श्रद्धा का नहीं दूसरा है| एक मरतबा मैं एक मुकदमे में पड़ गया| मैंने भगवान से प्रार्थना की कि मैं मुकदमा जीत जाने पर रोज मंदिर में आकर दीया जलाऊंगा| भगवान ने मेरी सुन ली| मेरी जीत हो गई| तब से ही मैं बराबर अपने वचन का पालन कर रहा हूं|”
नौजवान ने उत्सुकता से पूछा – “क्यों भाई, मुकदमा क्या था?”
“अरे क्या बताऊं!” गंभीर होकर वह आदमी बोला – “नीचे के लोगों को मिलाकर उसे अपने नाम करा लिया| पड़ोसी उस मामले को अदालत में ले गया भगवान ने कृपा करके पड़ोसी को हरा दिया| जमीन मेरी हो गई|”
नौजवान ने उस आदमी को कठोर दृष्टि से देखकर कहा – “हमने तो सुना था कि भगवान सदा न्याय में साथ देते हैं, अन्याय में नहीं|”
उस आदमी ने मुंह बनाते हुए बोला – “क्या बेतुकी बात करते हो!” और आगे बढ़ गया|
नौजवान ने समझा, वह आदमी बाहर दीया जलाता था, पर उसके अंदर का दीया बुझा पड़ा था|