Homeशिक्षाप्रद कथाएँऔर्ध्वदेहिक दान का महत्व

और्ध्वदेहिक दान का महत्व

मृतात्मा की सद्गति हेतु पिण्डदानादि श्रद्धा कर्म अत्यन्त आवश्यक हैं| पुन्नामक नरक से पिता को बचाने के कारण ही आत्मज पुत्र कहा जाता है| पुत्र का मुख देखकर पिता पैतृक ऋण से छूट जाता है और पौत्र के स्पर्शमात्र से यमलोक आदि का उल्लंघन कर जाता है|

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ब्रह्म-विवाह द्वारा परिणीता पत्नी से उत्पन्न पुत्र उर्ध्व-स्वर्गलोकादि में पहुँचाता है| यहाँ एक निःसंतान व्यक्ति के मरणोपरान्त प्रेत होने की कथा प्रस्तुत है, जो राजाद्वारा दिये गये पिण्ड-दान को प्राप्त कर स्वर्ग को प्राप्त हुआ था|

पहले त्रेतायुग में महोदयपुर (कन्नौज)-का निवासी बभ्रुवाहन नाम का राजा था| वह यज्ञ, दान, व्रत और तीर्थपरायण था| ब्राह्मणों तथा साधुओं का भक्त वह राजा शील-सदाचार से युक्त होकर प्रजा का तन-मन-धन से पालन करता था| एक दिन वह अपनी सेना के सहित शिकार खेलने गया| उसने नाना प्रकार के वृक्षों से युक्त एक सघन वन में प्रवेश किया| वहाँ उसने एक सुन्दर एवं स्वस्थ मृग को देखकर अपना अमोघ बाण चलाया| बाण से बिंधा वह मृग उस राजा के बाण को लेकर अदृश्य हो गया| राजा रुधिर से गीली घास देखता हुआ हिरण के पीछे-पीछे चला और दूसरे निर्जन प्रदेश में प्रवेश कर गया| भूख-प्यास से व्याकुल राजा ने वहाँ एक तालाब के पास पहुँचकर अश्वसहित स्नान किया तथा पानी पीया| वहाँ स्थित वटवृक्ष को देखकर छाया में वह विश्राम करने लगा| तभी उसने एक भयंकर प्रेत देखा, जिसका मैला, कुबड़ा, मांसरहित शरीर था, बाल ऊपर को उठे थे, इन्द्रियाँ व्याकुल थीं| घोर विकृत राक्षस को देखकर राजा डर गया और विस्मित हो गया| प्रेत भी निर्जन वन में राजा को देखकर विस्मित होकर उससे कहने लगा-‘पुण्यात्मा राजन! तुम्हारे शुभ दर्शनों से आज मैं धन्य हो गया हूँ और प्रेतभाव छोड़रहा हूँ|’ राजा ने कहा-‘भाई! तुमने यह भयानक अमंगलरूप प्रेतत्व किस कर्म के परिणामस्वरूप प्राप्त किया है? मुझे अपनी सब व्यथा बताओ तथा किस दान-धर्म करने से तुम्हारा उद्धार होगा, उसे कहो, मैं अवश्य करूँगा|’

प्रेत ने कहा-राजन! मैं पूर्व में विदिशा (भेलसा) नामक नगर में रहता था| जाति का मैं वैश्य था और मेरा नाम था-सुदेव| मैंने हव्य से देवताओं और कव्य से पितरों को सदा संतुष्ट किया| विविध दान देकर ब्राह्मण-दिन-दुर्बलों की सेवा की| वह सब दैवयोग से निष्फल हो गया| मेरे कोई पुत्र, मित्र अथवा बान्धव नहीं था| अतएव और्ध्वदेहिक क्रिया से वंचित होकर मैं प्रेत हो गया| जिनके षोडश मासिक श्राद्ध नहीं होते, वे प्रेत अवश्य बनते हैं, चाहे धर्मात्मा पुत्रवान ही क्यों न हों? राजन! सब वर्णों का बन्धु राजा ही होता है| तुम मेरी और्ध्वदेहिक क्रिया करके मेरा उद्धार करो| मैं तुम्हें मणिरत्न दूँगा| यद्यपि वन में निर्मल जल और सरस फलों अभाव नहीं है, तथापि मैं इनसे वंचित रहता हूँ| मैं प्रेतत्व से अत्यन्त दुःखी हूँ| तुम मेरे लिये वेदमन्त्रों से विष्णु की पूजा एवं नारायणबलि-कर्म करो| ब्रम्हा, विष्णु और शिवकी प्रतिमा बनवाकर उनका अर्चन तथा अग्नि में देवताओं का तृप्त करके घी, दही और दूध से विश्वेदेवों का पूजन करों| क्रोध-लोभ से  रहित होकर वृषोत्सर्ग करने का विधान है| पश्चात् ब्राह्मणों के लिये तेरह पदों का दान, शय्यादान एवं प्रेत के साथ राजा का इस प्रकार वार्तालाप चल ही रही था कि उसी समय हाथी-घोड़ों से युक्त राजाकी सेना पीछे से आ गयी| सेना के आने पर प्रेतने राजा को महामणि देकर प्रार्थना की और वहाँ से विदाई ली| वन से निकलकर राजा ने अपने नगर में जाते ही प्रेतद्वारा बतायी विधि से उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया, जिसके प्रभाव से वह प्रेतत्व छोड़कर स्वर्ग में चला गया| राजा के द्वारा किये गये श्राद्ध से प्रेत को उत्तम गति प्राप्त हुई| यदि पुत्र द्वारा किये श्राद्ध से पिता को सद्गति प्राप्त हो तो इसमें क्या आश्चर्य है?