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अठारह-दिवसीय युद्ध

अठारह-दिवसीय युद्ध

कुरुक्षेत्र की रणभूमि में युद्ध के पहले दिन, सूर्योदय होने के बाद सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं|

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वयोवृद्ध भीष्म कौरवों की तरफ से और अर्जुन पांडवों की ओर से आगे आए| अकस्मात युधिष्ठिर शस्त्र फेंककर भीष्म की ओर बढ़े| चारों ओर निस्तब्धता छा गई| अब क्या वे शान्ति का समझौता करने के लिए आगे बढ़े थे? परन्तु नहीं, युधिष्ठिर बड़ों का सम्मान करना कभी नहीं भूलते थे| वे आशीर्वाद लेने के लिए भीष्म के सम्मुख झुके| भीष्म ने कहा, “भगवान तुम्हारी रक्षा करें| तुम न्यायप्रिय और सत्यवादी हो और तुम्हारा स्थान उन सत्यनिष्ठ लोगों में है जो सदा विजयी होते हैं| मै किसी भी तरह इस युद्ध को नही रोक पाया| अब मेरा कर्तव्य है कि मै कौरवों के साथ रहूँ|” [quote width=”auto” align=”left” border=”grey” color=”grey” title=”Submit your story to publish in this portal”] अपनी आप बीती, आध्यात्मिक या शिक्षाप्रद कहानी को अपने नाम के साथ इस पोर्टल में सम्मलित करने हेतु हमें ई-मेल करें । (Email your story with your name, city, state & country to: [email protected]) [/quote]

कृष्ण अर्जुन के सारथी थे| रणभूमि के बीच पहुँचकर अचानक अर्जुन का मन बोझिल हो उठा| उसने देखा कि परिवार और वंश के सभी महारथी, मित्र, सखा और गुरुजन वहाँ उपस्थित थे| अर्जुन दुबिधा में पड़ गए| भीष्म, द्रोण, शल्य-सभी तो वहां थे| भला उनमे से युद्ध करना कैसे संभव होगा? वे सोचने लगे, “ऐसे राज्य से क्या लाभ जो अपने ही सम्बन्धियों को मार कर प्राप्त हो? वैसे, कौरव भी तो हमारे चचेरे भाई हैं| नहीं, नहीं, मैं अपने आदरणीय और प्रियजनों के साथ युद्ध नहीं कर सकता|” शिथिल होकर अर्जुन ने गांडीव नीचे रख दिया|

कृष्ण बोले, “अर्जुन, इस संसार में सभी तरह के लोग हैं, अनेक प्रकार के धर्म और उनके प्रतिनिधि हैं| यहाँ लोभी, लालची, क्षुद्र-बुद्धि आदि सब प्रवृत्तियों के लोग हैं| इसी पृथ्वी पर दयालु और वीर जन भी हैं| तुम क्षत्रिय हो| क्या आज अपना क्षात्रधर्म भूल गए? यह तुम अपने आदर्शों, सिद्धांतो और धर्म का साथ छोड़ दोगे तो फिर उनकी रक्षा कौन करेगा? मुझे देखो, मै यथार्थ में जीवित आत्मा हूँ, मै प्रकाश हूँ| हर जीव मुझमें ही वापस आता है| मनुष्य के जीवन में कर्तव्य का स्थान सदैव ऊंचा रहता है| सत्य के लिए संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता| तुम अपना मन मुझमें स्थिर करो| जब-जब धर्म का पतन होता है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मै शरीर का धारण करता हूँ-पाप और अनिष्ट के विनाश के लिए|

“धर्म के रक्षक के रूप में और धर्म का आधार-स्थल दृढ़ बनाने के लिए मैं समय-समय पर जन्म लेता हूँ| अतः मेरा चिंतन करो और अपने कर्तव्य का पालन करो| कर्म करो परन्तु फल की प्राप्ति की इछा मत रखो| पुरस्कार की आशा के बिना, निस्स्वार्थ भाव से युद्ध करो| उठो अर्जुन और युद्ध करो|”

अर्जुन ने कृष्ण के आलोकित मुख मंडल की ओर देखा, जिससे ज्ञानलोक प्रस्फुटित हो रहा था| अर्जुन ने नतमस्तक होकर कहा, “मुझे वही स्वीकार होगा, जो आपकी आज्ञा होगी|” और अपने रथ पर बैठकर अर्जुन वेग से भीष्म की ओर आशीर्वाद लेने चल दिए|

पहले दिन के युद्ध में पांडवों और कौरवों ने शक्ति और साहस के साथ युद्ध किया| भीष्म ने अनेक लोगों के घाट उतार दिया| सांयकाल उनकी शंख ध्वनि के साथ युद्ध समाप्त हुआ| पांडवों के अनेक योध्या वीरगति को प्राप्त हुए| विराट के पुत्र राजकुमार उत्तर भी युद्धभूमि में काम आये| हताश स्वर में युधिष्ठिर ने कहा, “हम यह युद्ध क्यों कर रहे हैं? भीष्म इतने प्रबल है कि सर्व-शक्तिशाली परशुराम भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते| मैं युद्ध से घृणा करता हूँ| हमें इसके लिए कभी भी सहमत नहीं होना चाहिए था|” परन्तु कृष्णा ने उन्हें सांत्वना दी, “तुम दुखी न हो युधिष्ठिर, अंत में सत्य की विजय होगी और सब कुशल होगा|”

युद्ध भीषण रूप धारण करता जा रहा था| पांडव जानते थे कि जब तक पराक्रमी भीष्म जीवित रहेंगे तब तक कौरवों पर विजय पाना असम्भव है| भीष्म प्रबल और शक्तिमान थे और सभी उनसे स्नेह करते थे, विशेषकर अर्जुन| गंगा-पुत्र को इच्छा मृत्यु का वरदान था| प्रतिदिन अर्जुन भीष्म के वध का प्रयत्न करते, परन्तु अंतिम क्षण उनका साहस डोल जाता|

हजारों की संख्या में कौरवो और पांडव सैनिक हताहत हो चुके थे| कभी पांडवों का पलड़ा भारी होता तो कभी कौरवों का|

युद्ध का छठवाँ दिन था और भीष्म अब भी जीवित थे| घटोत्कच, अभिमन्यु और भीम भूखे शेरोन की तरह युद्ध कर रहे थे और कौरवों की सेना के व्यापक विनाश का कारण बन गए थे| दुर्योधन ने क्रोधित होकर भीष्म पर यह आरोप लगाया कि उन्हीं के कारण सैनिकों की क्षति हुई है| उसने झुँझलाते हुए कहा, “आप सदैव ही पांडवों से स्नेह करते रहे हैं, इसलिए यह नहीं चाहते कि वे युद्ध में पराजित हों|”

भीष्म ने उत्तर दिया, “निस्संदेह पांडवों से मुझे स्नेह है क्योंकि वे मेरे प्रिय भतीजे पांडु के पुत्र हैं| परन्तु  सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पांडव न्यायप्रिय और सत्यवादी हैं और मैं जानता हूं कि सत्य की ही सदा जीत होती है| मैं केवल अपने कर्तव्य के कारण तुम्हारी ओर हूँ और इसलिए युद्ध कर रहा हूँ| चिंता न करो, कल मैं अपने ‘नारायण अस्त्र’ का प्रयोग करूँगा|”

अत्यधिक शक्तिमान ‘नारायण अस्त्र’ केवल भीष्म के पास ही था| जो भी इसके पथ पर आता, इससे बच नहीं पाता था| अगले दिन भीष्म ने अस्त्र का प्रयोग किया तब कृष्ण ने पांडव सेना को आज्ञा दी कि सभी सैनिक अपने अस्त्र नीचे रख दें| कृष्ण जानते थे कि वह अस्त्र निहत्थे लोगों का अनिष्ट नहीं करता| केवल भीम ने युद्ध जारी रखा इसलिए कृष्ण भीम के सामने जाकर खड़े हो गए और शस्त्र की भयंकर शक्ति और तीव्रता को अपने पर ग्रहण कर लिया| कृष्ण स्वयं नारायण थे अतः वह शक्ति उनमें पार हो गई और पांडव संहार से बच गए|