असली दाता कौन
यह घटना मुगलकाल की है| रहीम खानखाना एक अच्छे योद्धा, हिंदी-प्रेमी और सबसे अधिक वह एक दानी व्यक्ति थे| उनका नियम था कि वह हर दिन गरीबों या याजकों को दान देते थे| उनका दूसरा नियम था की दान देते हुए वह कभी अपनी निगाह लेने वाले पर नहीं डालते थे| वह नीचे नजर कर रूपये-पैसों के ढेर से मुट्ठी भरकर गरीबों को दान करते थे|
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एक दिन जब वह गरीबों-फकीरों को दान दे रहे थे तब गंग कवि ने देखा- एक भिखारी कई बार ले चुका है, फिर भी रहीम उसके आने पर उसे मुट्ठी-भर-भरकर दिए जा रहे हैं| कवि गंग से नहीं रहा गया, वह बोल पड़े-
“सीखे कहाँ नवाबजू देनी ऐसी देन?
ज्यों-ज्यों कर ऊँचे चढ़े त्यों-त्यों नीचे नैन|”
-नवाब साहब, ऐसी सीख आपने कहाँ से ली? जैसे-जैसे आपका हाथ दान देने के लिए उठ रहा है, आपके नैन नीचे झुकते जा रहे हैं?
कवि रहीम ने कविता में ही उसका उत्तर दिया-
“देने हारा और है जो देता दिन रैन|
लोग भरम हम पै करें, या विधि नीचे नैन||”
-असल में दाता तो कोई दूसरा है, जो दिन-रात दे रहा है, हम पर व्यर्थ ही भ्रम होता है कि हम दाता है; इसलिए आँखें झुक जाती है| असली दान वही होता है जो एक हाथ से दे और दूसरे हाथ को पता ही न चले|