Homeशिक्षाप्रद कथाएँआसक्ति से विजेता भी पराजित

आसक्ति से विजेता भी पराजित

राजा दुर्जय सभी शास्त्रों में निष्णात हो चुके थे और शत्रुओं को भी जीत लिये थे, किंतु अपनी इन्द्रियों पर विजय नहीं प्राप्त कर सके थे| जो मन से हार जाय उस पराक्रमी को पराक्रमी कैसे कहा जा सकता है?

“आसक्ति से विजेता भी पराजित” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio

राजा दुर्जय तो मन को नहीं जीत सके थे, किन्तु इनकी पतिव्रता पत्नी आध्यात्मिक तेज से सम्पन्न थीं| वे पति के प्रेम में इतनी तन्मय रहती थीं कि संसार के सुख-दुःख का कोई प्रभाव उन पर नहीं पड़ता था| सारी इन्द्रियाँ उनकी दासी थीं|

राजा दुर्जय जयध्वज के पवित्र वंश में उत्पन्न हुए थे| एक दिन दुर्जय यमुना के तट पर घूम रहे थे| वहाँ उर्वशी संगीत से अपना मनोरंजन कर रही थी| उसके कलकण्ठ से निकली हुई स्वर-लहरियाँ कण-कण को आप्लावित कर रही थीं| राजा दुर्जय का अपने मन पर कोई अधिकार तो था नहीं| वे उर्वशी के दिव्य सौन्दर्य और दिव्य स्वर-लहरियों से आकृष्ट हो गये| अपनी पतिप्राणा पत्नी के प्रति उनका क्या कर्तव्य है, इसका ध्यान भी न रहा| उन्होंने उर्वशी से प्रणय-याचना की| उर्वशी तो अप्सरा थी| वासना ही उसका जीवन था| कामदेव के सामान सुन्दर युवक राजा दुर्जय उसे जँच गये| फिर तो दिन-रात आते-जाते रहे| राजा को इसका भान ही नहीं होता था| बहुत दिनों के बाद राजा का मोह भंग हुआ| उन्हें अपनी नगरी याद आयी| उन्होंने उर्वशी से कहा-‘मुझे अपने नगर की व्यवस्था देखनी है| व्यवस्था सँभालकर शीघ्र लौट आऊँगा| अतः कुछ समय के लिये अवकाश चाहता हूँ|’ उर्वशी ने कहा-‘यदि एक वर्ष और ठहर जाते तो अच्छा होता|’ राजा ने कहा-‘मैं तुम्हारे बिना स्वयं नहीं रह सकता| इसलिये शीघ्र ही आऊँगा| थोड़ी प्रतीक्षा करो| उर्वशी ने स्वीकृति दे दी| राजा जब राजमहल में पहुँचे तब उन्हें प्रतीक्षा करती हुई अपनी धर्मभार्या मिली| राजा उसे देखते ही अपराधी की तरह भय से काँप उठे| लज्जा से उनकी आँखें झुक गयीं थीं| पत्नी तो पतिपरायण थी| पति के इस झेंप को सहन नहीं कर सकी| बोली-‘स्वामिन्! आप तो किसी से नहीं डरते थे| आज भय से काँप क्यों रहे हैं? अपनी यह दुर्बलता और किसी के सामने व्यक्त न कीजियेगा|’ किंतु दुर्जय के मुख पर ताला लग गया था; वे कुछ बोल न सके| पतिव्रता ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति से उर्वशी वाली घटना जान ली| वह बोली -‘स्वामिन्! मैं सब कुछ जान चुकी हूँ| मेरा सुख आपके सुख में ही निहित है| मैं आपसे अप्रसन्न नहीं हूँ, किंतु आपसे पाप तो हो ही गया है| उसका प्रायश्चित्त होना आवश्यक है, नहीं तो पाप अगले दुःख का कारण बन सकता है|’

अपनी पत्नी का उदात्त आश्वासन पाकर राजा दुर्जय का मन हलका हो गया| वे महर्षि कण्व के आश्रम में गये| उन्होंने महर्षि कण्व से पाने इस पाप का प्रायश्चित्त पूछा| महर्षि ने प्रायश्चित्त के विधान बता दिये| प्रायश्चित्त जानकर वे हिमालय पर पहुँचे| वहाँ उनकी दृष्टि एक गन्धर्व पर पड़ी, जिसने एक दिव्य माला पहन रखी थी| उस माला से उसका सारा शरीर शोभा से जगमगा रहा था| राजा के मन में आया कि यह माला उर्वशी के अनुरूप है| इस माला से वह खिल उठेगी| यह विचार आते ही वे माला लेने के लिये उतावले हो गये| राजा मन के दास तो थे ही| बस लुटेरे की तरह गन्धर्व पर टूट पड़े| उसे मार-पीटकर माला ले लिये| अब न तो धर्मभार्या की बाते याद थीं और न प्रायश्चित्त की ही|

दुर्जय माला लेकर यमुना-तटपर पहुँच गये| किंतु वहाँ उर्वशी नहीं थी| उन्होंने विह्वल होकर पृथ्वी का चप्पा-चप्पा छान डाला, किंतु उर्वशी का कहीं पता न था| विह्वलता ने उनकी दशा दयनीय बना दी थी| फिर वे हेमकूट पर पहुँचे, वहाँ भी उर्वशी का पता नहीं था| तब वे देवलोक पहुँचे| वहाँ उन्होंने मानसरोवर के दिव्य तट पर उर्वशी को देखा| राजा को बहुत शान्ति मिली| उन्होंने माला से अपने प्रेयसी का श्रृंगार किया और पाने को कृतार्थ माना|

यह राजा दुर्जय के पतनकी पराकाष्ठा थी| कहाँ तो अपनी पत्नी के निर्देश से सत्पथ की ओर अग्रसर हुए थे और कहाँ फिर आ गिरे| उन्हें न अपनी पत्नी का ध्यान था, न कण्व ऋषि से पाप-निवारण हेतु प्रायश्चित्त पूछने का ही|

उर्वशी का जीवन वासनामय तो अवश्य था, किंतु वह आगे-पीछे सोच सकती थी| उसने आँक लिया कि इसकी पतिव्रता स्त्री एक-न-एक दिन मुझे अवश्य शाप देगी; क्योंकि मैं उस पतिव्रता की लगातार अवहेलना कर रही हूँ| यह सोचकर उर्वशी ने अपना रूप उत्कट बना लिया| उसका प्रत्येक अंग रोष से  भर गया| आँखें पीली-पीली हो गयीं| दुर्जय का मन उर्वशी की ओर से फिर गया| वासना का भूत उनके सिर से उतर चूका था| अब वे आत्मनिरिक्षण कर सकते थे| उन्होंने अपने को बहुत धिक्कारा और कण्व ऋषि के बताये पथ पर आ गये| वे घोर तपस्या कर फिर कण्व के आश्रम पर पहुँचे और विनम्रता से अपनी पतन-कहानी ख सुनायी| महर्षि कण्व ने राजा को काशी जाने का आदेश दिया और कहा -‘गंगा में स्नान और तर्पण कर बाबा विश्वनाथ का दर्शन करो|’ राजा दुर्जय ने काशी में गंगा-स्नान तथा तर्पण कर विधि-विधान से बाबा विश्वनाथ का दर्शन किया तथा पापों से मुक्ति पा ली|’