अपने-अपने कर्म
प्राचीन काल में हिमालय की तलहटी में विलासपुर नाम का एक नगर बसा हुआ था| उस नगर का राजा था – विनयशील! विनयशील की आयु जब ढलने लगी तो उसकी जवान रानियों ने उसकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी|
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इससे राजा बहुत चिंतित हुआ| वह अपना यौवन पुन: प्राप्त करने के लिए प्रयास करने लगा| एक दिन उसने अपने राजवैद्य तरुणचंद्र को बुलवाया और उससे कहा – “वैद्यराज! क्या आप कोई ऐसी दवा तैयार कर सकते हैं, जिससे मैं फिर से यौवनावस्था को प्राप्त कर सकूं?”
राजा का प्रश्न सुनकर वैद्य ने मन में सोचा – ‘कितना मूर्ख है यह राजा, जो यह जानते हुए भी कि एक बार बूढ़ा हो जाने के बाद व्यक्ति फिर से जवानी प्राप्त नहीं कर सकता, फिर भी यह जवान होने की दवा प्राप्त करने को उत्सुक है| इसे तो मूर्ख बनाकर इससे धन ऐंठना चाहिए|’
ऐसा विचार कर उसने राजा से कहा – “राजन! दवा तो मैं तैयार कर सकता हूं, लेकिन दवा से लाभ प्राप्त करने के लिए आपको मेरे निर्देशों के अनुसार कुछ दिन संयम बरतना होगा|”
“किस प्रकार का संयम?” राजा ने पूछा|
“आपको आठ महीने तक किसी गर्भागार (तहखाने) में रहना होगा|” वैद्य बोला|
“वह किसलिए?”
“राजन! सूर्य की रोशनी में वह दवा अपना वांछित प्रभाव नहीं पैदा कर पाती| वह दवा ऐसी जगह ही प्रभावकारी रहती है, जहां सूर्य की रोशनी न पहुंच सके|” वैद्य ने बताया|
“युवावस्था प्राप्त करने के लिए हम इतना-सा त्याग करने को तैयार हैं| मैं तहखाना बनवाता हूं, तुम दवाएं तैयार करो|” राजा ने कहा|
“राजन! मेरी एक प्रार्थना और भी है|” वैद्य बोला – “तहखाने में आपको अकेले ही रहना होगा| आपके सेवक तहखाने के अंदर न जा सकेंगे| वे आपको दरवाजे पर ही भोजन एवं दवाएं पहुंचा दिया करेंगे|”
राजा ने वैद्य का यह निवेदन भी स्वीकार कर लिया और आदेश देकर कुछ ही दिनों में एक भूगार्भागर (तहखाना) तैयार करा दिया|
तहखाना तैयार हो गया, यह जानकर वह धूर्त वैद्य मन-ही-मन बहुत खुश हुआ| वह सोचने लगा – ‘अब आएगा आनंद| कुछ ही दिनों में बूढ़ा राजा तहखाने में रहकर मर जाएगा, फिर सारा राजकार्य मेरी आज्ञानुसार ही चला करेगा|’
निश्चित अवधि पर उस वैद्य ने राजा को तहखाने में भेज दिया और उसका उपचार करने का ढोंग करने लगा| उसने राजा से कहा – “राजन! अब कुछ ही दिन बाद आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना आरंभ हो जाएगा| आपकी ढीली, झुर्रियों से भरी त्वचा (खाल) फिर से तनने लगेगी| आपका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो जाएगा| आप इतना शानदार शरीर प्राप्त कर लेंगे कि आपकी रानियां भी आपको एकाएक पहचान नहीं पाएंगी|”
सुनकर राजा खुश हो गया| वह बोला – “हम यही तो चाहते हैं वैद्यराज! यदि मुझे फिर से जवानी प्राप्त हो गई तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा|”
धूर्त वैद्य इधर तो राजा को जवान बनाने का ढोंग करता रहा, दूसरी ओर वह गुप-चुप एक षड्यंत्र को जन्म देने लगा| उसने कुछ ही दिनों में अपने कुछ विश्वस्त व्यक्तियों के द्वारा जंगल से तहखाने तक एक गुप्त सुरंग खुदवा दी| इसके बाद वह किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में रहने लगा, जो राजा की शक्ल से मिलता-जुलता, लेकिन जवान पुरुष हो| दैवयोग से कुछ ही दिन बाद नदी के तट पर स्नान करता हुआ एक ऐसा व्यक्ति उसे दिखाई दे गया, जिसकी शक्ल-सूरत बूढ़े राजा से काफी हद तक मिलती थी| वैद्य उस व्यक्ति के पास पहुंचा और उससे पूछा- “नौजवान! लगता है इस नगर में पहली बार आए हो| कहां के रहने वाले हो तुम?”
“आपने ठीक पहचाना श्रीमान!” उस युवक ने कहा – “मैं इस नगर में पहली बार ही आया हूं, पर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?”
वैद्य ने अपने स्वर को यथासंभव मृदु बनाते हुए कहा – “नौजवान! तुम मुझे अपना मित्र ही समझो| अगर तुम मेरे कहने के अनुसार काम करने के लिए तैयार हो जाओ तो मैं तुम्हें इस नगर का राजा भी बना सकता हूं|”
“राजा! आप तो बड़ी आश्चर्यजनक बात बता रहे हैं श्रीमान|” युवक ने आश्चर्य से पूछा – “आपका नाम क्या है?”
“मुझे वैद्य तरुणचंद्र कहते हैं| राजा पर मेरा बहुत प्रभाव है|” वैद्य ने कहा|
“ओह! यह तो बड़ी खुशी की बात है कि आप इतने प्रभावशाली व्यक्ति हैं| वैसे मुझे राजा बनने के लिए क्या करना पड़ेगा?” युवक ने पूछा|
“बस सिर्फ कुछ दिन तुम्हें तहखाने में रहना पड़ेगा, फिर जब तुम तहखाने से बाहर आओगे तो राजसिंहासन पर बैठने के हकदार बन जाओगे|”
“मुझे आपका यह प्रस्ताव स्वीकार है श्रीमान! अब ये भी बता दीजिए कि मुझे कितने दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी? मेरा मतलब है मुझे कितने दिन तक तहखाने में रहना पड़ेगा?”
“ज्यादा दिन नहीं रहना पड़ेगा|” वैद्य ने कहा – “ज्यादा-से-ज्यादा चार दिन| तब तक मैं अपनी योजना को क्रियान्वित कर लूंगा|”
“ठीक है| मैं नदी किनारे एक धर्मशाला में ठहरा हुआ हूं| जब भी आप मुझसे मिलना चाहें, वहां चले आना|” यह कहकर वह युवक अपने ठहरने के स्थान पर चला गया|
वैद्य और भी तत्परता से अपनी योजना में व्यस्त हो गया| एक रात उसने बूढ़े राजा को दवा में जहर मिलाकर दे दिया, जिसके कारण उसके मृत्यु हो गई| वैद्य ने उसकी लाश कंधे पर लादी और सुरंग के रास्ते बाहर ले जाकर एक अंधे कुएं में फेंक दी| उसी रात वह धूर्त वैद्य धर्मशाला से सुरंग के रास्ते से उस युवक को तहखाने में ले आया और युवक से बोला – “तुम्हें यहां कुछ ही दिन का कष्ट सहना पड़ेगा| जैसे ही तुम्हारी दाढ़ी मूंछें बढ़ जाएंगी, मैं तुम्हें इस तहखाने से निकालकर राजभवन में ले चलूंगा| तुम ऐसे जाहिर करना, जैसे बुढ़ापे से छुटकारा पाकर नए-नए जवान हुए हो|”
“अगर राजभवन में मुझे किसी ने पहचानकर शंका प्रकट की तो?” युवक ने आशंका प्रकट की|
“वह सब मुझ पर छोड़ दो| मैं सब संभाल लूंगा|” वैद्य बोला – “तुम सिर्फ एक ही बात का ध्यान रखना कि मैं जैसा कहूं, उसी के अनुसार काम करते रहना|”
“ठीक है| मैं वैसा ही करूंगा|” युवक ने आश्वासन दिया|
तत्पश्चात वैद्य वहां से निकलकर राजदरबार में पहुंचा| उसने सभी सभासदों के समक्ष कहा – “तुम सभी लोगों के लिए एक शुभ समाचार है| मेरी दवाओं से महाराज अवधि से पहले ही युवा हो गए हैं| कल वह महल में पधारेंगे| आप लोग उनके स्वागत के लिए तैयार रहना|”
“हम अपने स्वामी के नवरूप का भरपूर स्वागत करेंगे|” सभी सभासदों ने एक स्वर में कहा|
यही बात वैद्य ने रनिवास में पहुंचकर भी दोहराई| सुनकर रानियां प्रसन्न हो गईं| उन्होंने वैद्य को राजसी कोष से धन दिलाने का आश्वासन दिया|
योजनानुसार अगले दिन वैद्य ने तहखाने से उस युवक को लाकर राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया| इतना ही नहीं उसने राजा बने युवक से यह भी कहा – “महाराज! बुढ़ापा समाप्त होकर आपने नया रूप पाया है| क्यों न अब अपने पुराने नाम को छोड़कर आप अपना कोई नया नाम रख लें?”
“विचार बुरा नहीं वैद्यराज! तुम्हीं कोई अच्छा-सा नाम सुझा दो|” राजा बने युवक ने कहा|
“मेरे विचार से तो आपका नया नाम ‘अजर’ ठीक रहेगा| यह नाम आपके बिल्कुल अनुरूप भी है|” वैद्य ने नाम सुझाया|
वहां उपस्थित सभी सभासदों को भी राजा का नया नाम पसंद आया और उन्होंने ‘महाराज अजर की जय हो…महाराज अजर जिंदाबाद’ के नारों से आकाश गुंजायमान कर दिया|
कुछ दिन तो राजा अजर वैद्य तरुणचंद्र के इशारों पर काम करता रहा, फिर परिस्थितियां उसके अनुकूल हो गईं और सब कुछ सामान्य हो गया तो उसने वैद्य की उपेक्षा करनी आरंभ कर दी| यह देखकर वैद्य हतप्रभ हो उठा| एक दिन उसने एकांत में राजा अजर से कहा – “क्यों राजन! सिंहासन प्राप्त करते ही मेरी उपेक्षा करनी आरंभ कर दी| आपको याद है, क्या वचन दिया था आपने मुझको?”
“किस वचन की बात कर रहे हो वैद्यराज?” राजा के अनजान बनते हुए पूछा|
“उसी वचन की महाराज!” वैद्य बोला – “जिसमें आपने मुझसे वादा किया था कि आप भविष्य में राज-काज मेरे परामर्श से ही किया करेंगे|”
“राज-कार्य तो मैं अब भी मंत्रियों के परामर्श से ही करता हूं, वैद्यराज!” राजा बोला – “तुम वैद्यराज हो, मंत्री नहीं, इसलिए तुम्हारा परामर्श लेना मेरे लिए आवश्यक नहीं है|” यह सुनकर वैद्य की त्योरियां चढ़ गईं| वह चेतावनी भरे स्वर में बोला – “राजन! यह मत भूलिए कि इस सिंहासन पर मैंने आपको बिठाया है| मेरे ही प्रयास स्वरूप आज आप सिंहासन पर विराजमान हैं|”
“झूठ बोल रहे हो तुम|” राजा गरजा – “तुम मुझे राजसिंहासन पर बैठाने वाले कौन होते हो? यह सिंहासन मैंने अपने पूर्व जन्मों के तप और त्याग स्वरूप प्राप्त किया है|”
“क्या प्रमाण है इस बात का कि यह सिंहासन आपको अपने पूर्व जन्मों के तप और त्याग के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है?” वैद्य ने प्रतिवाद किया|
“समय आने दो|” राजा ने कहा – “प्रमाण भी तुम्हें मिल जाएगा|”
राजा की बात सुनकर वैद्य तरुणचंद्र असंतुष्ट भाव से वहां से चल दिया| वह मन-ही-मन राजा कोसने लगा – ‘धोखेबाज…कृतघ्न! कहता है मेरे पूर्व जन्म के तप स्वरूप यह सिंहासन मुझे मिला है| समय आने दे, देख लूंगा तेरे तप और त्याग को भी|’
समय गुजरता गया| एक दिन राजा नौका विहार के लिए अपने मंत्रियों एवं तरुणचंद्र वैद्य के साथ नदी किनारे पहुंचा| वहां उसने नदी के जल में बहते पांच कमल पुष्प देखे| उसने आदेश देकर वह पांचों फूल नदी में से निकलवाए, फिर गौर से उन्हें देखता हुआ बोला – “आश्चर्य है! ये फूल तो बिल्कुल सोने के लगते हैं| जीवन में मैंने कभी इतने अद्भुत कमल के फूल नहीं देखे|”
“हां राजन!” मंत्री ने भी राजा की बात से सहमत होते हुए कहा – “ऐसे फूल तो मैंने भी पहली बार देखे हैं| देखिए तो इनमे कैसी सुंदर पीली किरणें निकल रही हैं| इन्हें तो आप अपने सरोवर में उगवाइए|”
राजा ने वैद्य तरुणचंद्र की ओर देखा और उससे कहा – “वैद्यराज! आप तो वनस्पति विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते हैं| बहुत-सी जड़ी-बूटियों को आप देखते ही पहचान लेते हैं| हमें भी आप ही के कारण नवयौवन मिला है| आप नदी के उद्गम स्थल पर जाकर उस स्थान का पता तो लगाइए, जहां से ये फूल नदी में बहकर आए हैं और यदि हो सके तो इनके कुछ बीज भी ले आइए| मैं इन्हें अपने सरोवर में लगवाना चाहता हूं|”
कोई और अवसर होता तो वैद्य तरुणचंद्र जाने से इन्कार कर देता, किंतु इतने मंत्रियों की उपस्थिति में वह इन्कार न कर सका| इन्कार करता तो उसकी योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता| सब यही सोचते कि इस वैद्य को वनस्पति शास्त्र का कोई ज्ञान नहीं है, यह तो यूं ही डींगे हांकता रहता है, अत: जग हंसाई के भय से वह जाने के लिए तैयार हो गया|
नदी के बहाव की विपरीत दिशा में चलता हुआ वैद्य नदी के उद्गम स्थल (निकास) पर पहुंचा| वहां उसने एक बहुत पुराना ऐसा शिव मंदिर देखा, जो खंडहर में तब्दील हो चुका था| उस मंदिर का अधिकांश हिस्सा ध्वस्त हो चुका था| सिर्फ वही कक्ष कुछ अच्छी हालत में शेष बचा था, जिसमें भगवान शिव की मूर्ति शिवलिंग के रूप में स्थापित थी| वैद्य ने भगवान शिव को नमन किया, फिर कक्ष से बाहर निकलकर मंदिर के प्रांगण में पहुंच इधर-उधर निगाहें दौड़ने लगा, तभी उसकी निगाहें एक बरगद के वृक्ष पर केन्द्रित हो गईं| बरगद का वह विशाल वृक्ष नदी के एक किनारे पर उगा हुआ था| उसकी कुछ शाखाएं तो नदी के जल के ऊपर फैली हुई थीं और कुछ शाखाएं भूमि पर, तभी उसकी नजर वृक्ष की शाखा पर लटके एक नर कंकाल पर जाकर अटक गई| नर कंकाल बरगद की एक मोटी-सी शाखा पर उल्टा लटका हुआ था| उसकी टांगें आकाश की ओर थीं और सिर नदी के जल के कुछ ऊपर| उत्सुकतावश वैद्य उस नर कंकाल के समीप पहुंचा और यह सोचने लगा कि यह नर कंकाल किसका है और क्यों विपरीत अवस्था में लटका हुआ है? क्या इसके उल्टा लटकने में कोई रहस्य छुपा हुआ है?
वैद्य यह सब बातें सोच ही रहा था कि अचानक मौसम का मिजाज बदलने लगा| आकाश पर घने एवं काले-काले बादल घिर आए, वायु का प्रवाह तेज होने लगा| देखते-ही-देखते तेज अंधड़ के साथ घनघोर वर्षा आरंभ हो गई| वर्षा में भीगने से बचने के लिए वैद्य बरगद के मोटे तने से सटकर खड़ा हो गया|
अकस्मात भटकती हुई उसकी नजरें फिर उस नर कंकाल पर जा टिकीं| वर्षा की बूंदें उस नर कंकाल को भिगो रही थीं और जब उस कंकाल का स्पर्श कर वर्षा का जल नीचे नदी में गिरता तो उससे स्वर्ण कमल पैदा हो जाते थे| यह देखकर वैद्य तरुणचंद्र आश्चर्य से भर उठा| वर्षा जब थमी तो वह बरगद की शाखा पर चढ़ गया और उत्सुकतावश हाथ बढ़ाकर नर कंकाल को उतारने का प्रयास करने लगा| तभी अचानक नर कंकाल शाखा से अलग होकर नदी के जल में जा गिरा और गहरे जल में विलीन हो गया|
वैद्य वापस लौटकर आया तो उसने सारी बातें राजा अजर को बताईं| सुनकर राजा अजर के चेहरे पर मुस्कान तैर गई| उसने वैद्य से कहा – “वैद्य तरुणचंद्र! जिस नर कंकाल को तुम देखकर आ रहे हो, वह पूर्व जन्म का मेरा ही प्रतिरूप है| अपने पूर्व जन्म में वृक्ष पर उल्टा लटककर मैं वर्षा तक शिव की तपस्या करता रहा था| मैं योगी था| तपस्या के दौरान ही मेरी मृत्यु हुई थी| वर्षों तक उल्टा लटका रहने से मेरे शरीर का मांस-मज्जा सूख गया और मेरा शरीर नर कंकाल बन गया और अब तो वह नर कंकाल भी शेष नहीं रहा| अच्छा ही हुआ जो मेरे पूर्व शरीर को मुक्ति मिल गई|”
“वह सब तो ठीक है राजन!” सुनकर वैद्य ने कहा – “पर मेरी शिकायत अब भी अपनी जगह पर है| मेरे प्रयासों से आप राजा बने और अब आप मेरी ही उपेक्षा कर रहे हैं|”
“यही तो तुम्हारा भ्रम है|” राजा ने कहा – “मैंने तुम्हें बताया तो है कि यह राज्य पद मुझे मेरे पूर्व जन्म के कर्मफल के कारण मिला है|”
“तो क्या मेरे प्रयासों का कोई मूल्य नहीं है?” वैद्य ने पूछा|
राजा कहने लगा – “तुमने जितने कार्य किए, सब अपने स्वार्थ के कारण किए| मैं तो तुम्हारे कुछ ऐसे कुकृत्यों को भी जानता हूं, जिनके कारण तुम्हें सूली पर भी लटकाया जा सकता है|”
यह सुनकर वैद्य तरुणचंद्र भय से कांप उठा| राजा ने अब उसे कांपते देखा तो कहने लगा – “तुम्हें मुझसे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, वैद्य तरुणचंद्र! विश्वास रखो, मैं तुम्हें सूली पर लटकाने का आदेश नहीं दूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं कि हानि-लाभ, जीवन-मरण ये चारों बातें प्रभु की इच्छा से ही होती हैं| अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल मैं इस जीवन में राजा बनकर भोग रहा हूं| तुम अपने कुकृत्यों का कर्मफल अपने अगले जन्म में भोगोगे| यह भी संभव है कि तुम्हें तुम्हारे कुकृत्यों का प्रतिफल इस जन्म में ही प्राप्त हो जाए| अब जाओ और उस दिन की प्रतीक्षा करो, जब तुम्हें तुम्हारे कर्मों का प्रतिफल प्राप्त होगा|”
वैद्य थके कदमों से उदास भाव से वहां से चला आया|
राजा का कथन यही सिद्ध हुआ| कुछ दिन बाद वैद्य तरुणचंद्र जंगल में बूटियां खोजने के लिए गया| संयोगवश वह उसी कुएं के पास पहुंचा, जिसमें उसने वृद्ध राजा विनयशील की लाश फेंकी थी| उस कुएं में अब एक ऐसी झाड़ी उग आई थी, जिसकी टहनियां कुएं से बाहर तक फैली हुई थीं| उन टहनियों में पीले रंग के इतने सुंदर फूल उगे हुए थे कि वैद्य उन फूलों को तोड़ने का लोभ-संवरण न कर सका| वह कुएं की जगत पर पहुंचा और नीचे झुककर झाड़ी से फूल तोड़ने का प्रयास करने लगा| अकस्मात उसका पैर फिसला और वह अंधे कुएं में जा गिरा| वैद्य ने सहायता की गुहार लगाई, किंतु उस वीराने में उसकी मदद कौन आता? परिणाम यह निकला कि वैद्य भूखा-प्यासा उसी कुएं में तड़पकर मर गया|
किसी ने सच ही कहा है – ‘अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल प्रत्येक व्यक्ति को एक-न-एक दिन भोगना अवश्य पड़ता है|’ इसलिए ज्ञानी पुरुष कहा करते हैं – ‘सत्कर्म करो| न तो किसी का बुरा सोचो और न बुरा आचरण करो| सदाचारी व्यक्ति की ही जीवन में हमेशा जीत होती है| सत्कर्मी को ही हमेशा मान-सम्मान, यश, कीर्ति की प्राप्ति होती है| सदाचार ही सच्चा जीवन है|’