अंतत: उसे अपने दुष्कर्मो का फल भुगतना ही पड़ा
जहांगीर के राज्य में चंदूशाह नाम का एक सेठ था। उसने सिख गुरु अर्जुन देव के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे अपने पुत्र हरगोविंद का विवाह उसकी पुत्री के साथ कर दें। गुरु अर्जुन देव ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इस पर वह नाराज हो गया और बदले का अवसर खोजने लगा।
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चंदूशाह ने जहांगीर का नैकटच्य प्राप्त कर उनके कान भरे कि गुरुग्रंथ साहिब में बहुत-सी बातें इस्लाम के विरुद्ध हैं। जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव से उन अंशों को गुरुग्रंथ साहिब से निकालने का आदेश दिया। अर्जुनदेव जी ने कहा- गुरुग्रंथ में ईश्वर की प्रार्थना है। उसमें से कोई भी अंश निकालने का साहस नहीं कर सकता। जहांगीर ने उन पर दो लाख रुपए का जुर्माना किया। इस पर गुरु बोले- मेरे पास जो सिखों का ट्रस्ट है, उसमें से दंड भुगतान के लिए कुछ भी नहीं दिया जा सकता। तब गुरु अर्जुनदेव जी को जहांगीर ने लोहे के गर्म तवे पर बैठने की सजा सुनाई। ऊपर से गर्म रेत डाली गई।
यह देखकर उनके शुभचिंतक मियां मीर ने अपनी योग माया से गुरु को दंडित करने वालों को सजा देने का आग्रह किया, किंतु गुरु ने इसे ईश्वर की इच्छा बताकर मना कर दिया। स्वयं चंदूशाह की पतोहू द्रवित होकर गुरु के पास शर्बत लेकर पहुंची, किंतु उन्होंने इंकार कर दिया और उसे आशीष दिया। पांच दिन तक गुरु अर्जुनदेव जी यातना सहन करते रहे और फिर रावी नदी की धारा में विलुप्त हो गए। सुनते हैं कालांतर में लाहौर की गलियों में पागल की भांति भटकते हुए एक दिन चंदूशाह की मृत्यु हो गई। दरअसल, दुष्कर्मो का फल बुरा ही होता है। सत्कर्म सदैव शुभ फलदायक होते हैं, जबकि असत्य का मार्ग अंतत: असत्य मंजिल पर ही पहुंचाता है।