अंतरात्मा की आवाज
एक सेठ थे| उनके पास लाखों रुपए की संपत्ति थी| बड़े हवेली थी, देश-विदेश में फैला कारोबार था, तिजोरियां में बंद पैसा था| एक दिन एक महानुभाव उनसे मिलने आए| बातचीत में उन्होंने कहा – “सेठजी, अब तो महंगाई बेहिसाब बढ़ गई है| चीजों के दाम दुगने हो गए हैं| आपकी संपत्ति भी बढ़कर अब करोड़ों रुपए की हो गई है|”
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सेठ ने गंभीरता से उनकी ओर देखा, फिर बोले – “मेरी संपत्ति करोड़ों रुपए की!”
उन महानुभाव ने मुस्कराकर कहा – “सेठजी, आप घबराइए नहीं, मैं राजस्व विभाग का आदमी नहीं हूं| मैंने तो सहजभाव से कह दिया था कि चीजों के दाम बढ़े हैं तो आपकी जमीन-जायदाद के दाम भी बढ़ गए होंगे|”
सेठ बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे| विरक्त भाव से उन्होंने कहा – “मेरी संपत्ति है कहां! जिसे तुम मेरी संपत्ति कहते हो, वह मेरी कहां है? जिसे मैंने दूसरों की भलाई के लिए खर्च किया, वही संपत्ति मेरी थी| अब जो बची है, उसका मैं स्वामी नहीं, न्यासी हूं| वह संपत्ति समाज की है| उसमें से मैं जितना खर्च करूंगा उतनी मेरी हो जाएगी|”
महानुभाव आगे कुछ नहीं कह सके| सेठ ने जो कहा था, वह उनकी अंतरात्मा की आवाज थी|