अंतर की स्वच्छता
किसी कस्बे में दो आदमी रहते थे| एक का नाम था प्रेम दूसरे का नाम विनय| दोनों के घर आमने-सामने थे| एक दिन संयोग से किसी बात पर उनमें तनातनी हो गई| बात छोटी-सी थी, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ गई| दोनों ही बेहद उत्तेजित हो उठे| प्रेम आपे से बाहर हो गया| वह बोला – “शैतान के बच्चे, तेरी अकल घास चरने चली गई है|”
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इतना सुनना था कि विनय दांत पीसकर बोला – “तूने मेरे बाप को गाली दी है! तेरी इतनी हिम्मत!”
वह दौड़कर अपने घर से तलवार ले आया और प्रेम पर वार कर दिया| प्रेम ने वार रोकने की कोशिश की तो तलवार उसके हाथ में लग गई| जिससे घाव हो गया| खून बहने लगा, तभी मोहल्ले के लोगों ने आकर बीच-बचाव कर दिया| दोनों अपने-अपने घर चले गए|
कुछ दिन बीत गए| प्रेम के हाथ का घाव ठीक हो गया| वह उस घटना को भूल गया, पर विनय का मन साफ नहीं हुआ| वह जैसे ही प्रेम को देखता तो मुंह फेरकर निकल जाता|
एक दिन वे दोनों आमने-सामने आ गए| जब विनय बचकर जाने लगा तो प्रेम ने जी कड़ा करके उसका हाथ पकड़ लिया और कहा – “क्यों क्या बात है? यह देखो मेरा घाव ठीक हो गया|”
इतना कहकर उसने अपना हाथ विनय के आगे कर दिया| विनय ने उसे देखा नहीं| दूसरी ओर को मुंह करके कहा – “तलवार का घाव भर जाता है, पर बात का घाव कभी नहीं भरता| वह हमेशा टीसता रहता है|”
प्रेम की आंखें डबडबा आईं – “लेकिन जो सच्चे हृदय से अपनी भूल स्वीकार कर लेता है, उसे क्षमा मिलनी चाहिए|” विनय ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन प्रेम ने नहीं छोड़ा| अंतर के आवेग से उसका हाथ कांप रहा था| उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे| विनय का तनाव ढीला हो गया| प्रेम के हृदय की निर्मलता ने उसके भीतर की गांठ को खोल दिया| उसने अनुभव किया कि घाव तलवार का हो या बात का वह असाध्य अंदर के विष से बनता है| अंतर की स्वच्छता से बढ़कर और कुछ नहीं है|