अंतर की ललकार
एक राक्षस था| उसने एक आदमी को अपनी चाकरी में रखा आदमी बड़ा भला था, राक्षस जो भी कहता वह फौरन कर देता, लेकिन राक्षस तो राक्षस ठहरा! उसे इतने से ही संतोष न होता| वह बात-बात पर आंखें फाड़कर कहता – “काम में जरा-भी ढील हुई तो मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा|”
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बेचारा आदमी मारे डर के सहम जाता| एक घड़ी भी चैन से न बैठ पाता| उसके अंदर आशंका बनी रहती कि कहीं वह दुष्ट उसे मार न डाले, पर वह करता क्या! राक्षस के चंगुल में बुरी तरह फंस गया था|
इसी प्रकार कुछ दिन निकल गए|
एक दिन काम करते-करते वह इतना थक गया कि हाथ हिलाना भी उसके लिए दूभर हो गया लाचार होकर वह सुस्ताने के लिए बैठ गया| राक्षस ने जैसे ही उसे बैठा देखा तो चीख उठा – “तूने क्या समझ रखा है! मैं तुझे खा जाऊंगा|”
राक्षस की फटकार सुनकर वह डरे कि उसकी अंदर की आत्मा अचानक बड़े जोर से ललकार उठी – ‘मूर्ख तू आदमी है| गीदड़ क्यों बन गया है? याद रख जब तक तू दब्बू बना रहेगा, यह राक्षस शेर बनकर तेरे ऊपर सवार रहेगा|’
इस ललकार को सुनते ही उस आदमी का सोता पौरुष जाग उठा| उसने कठोर आवाज में कहा – “तू धमकाता किसे है? खाना है तो आ, ले खा ले|”
राक्षस ने उसकी आवाज से समझ लिया कि अब धमकी देकर उसे दबाए रखना संभव नहीं है और अगर वह उसे खा भी डालेगा तो उस जैसा दूसरा आदमी उसको कहां मिलेगा|
उस दिन से राक्षस का सारा व्यवहार बदल गया|
खाने की बाट फिर उसने कभी अपने मुंह से नहीं निकाली इसलिए कहा जाता है कि जो जितना दबता है, लोग उसे उतना ही दबाते हैं|