अंतर ज्योति

किसी नगर में एक सेठ रहता था| उसके पास अपार धन-संपत्ति थी, विशाल हवेली थी, नौकर-चाकर थे, सब तरह का आराम था, फिर भी उसका मन अशांत रहता था| हर घड़ी उसे कोई-न-कोई चिंता घेरे रहती थी| सेठ उदास रहता|

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जब उसकी हालत बहुत खराब होने लगी तो एक दिन उसके एक मित्र ने उसे शहर से कुछ दूर आश्रम में रहने वाले साधु के पास जाने की सलाह दी| कहा – “वह पहुंचा हुआ साधु है| कैसा भी दुख लेकर जाओ, दूर कर देता है|”

सेठ साधु के पास गया| अपनी सारी मुसीबत सुनाकर बोला – “स्वामीजी, मैं जिंदगी से बेजार हो गया हूं| मुझे बचाइए|”

साधु ने कहा – “घबराओ नहीं| तुम्हारी सारी अशांति दूर हो जाएगी| प्रभु के चरणों में लौ लगाओ|”

उसने तब ध्यान करने की सलाह दी और उसकी विधि भी समझा दी, लेकिन सेठ का मन उसमें नहीं रमा| वह ज्योंही जप का ध्यान करने बैठता, उसका मन कुरंग-चौकड़ी भरने लगता| इस तरह कई दिन बीत गए| उसने साधु को अपनी परेशानी बताई, पर साधु ने कुछ नहीं कहा| चुप रह गए|

एक दिन सेठ साधु के साथ आश्रम में घूम रहा था कि उसके पैर में एक कांटा चुभ गया| सेठ वहीं बैठ गया और पैर पकड़कर चिल्लाने लगा – “स्वामीजी, मैं क्या करूं? बड़ा दर्द हो रहा है|”

साधु ने कहा – “चिल्लाते क्यों हो? कांटे को निकाल दो|”

सेठ ने जी कड़ा करके कांटे को निकाल दिया| उसे चैन पड़ गया|

साधु ने तब गंभीर होकर कहा – “सेठ तुम्हारे पैर में जरा-सा कांटा चुभा कि तुम बेहाल हो गए, लेकिन यह तो सोचो कि तुम्हारे भीतर कितने बड़े-बड़े कांटे चुभे हुए हैं| लोभ के, मोह के, क्रोध के, ईर्ष्या के, देश के और न जाने किस-किस के| जब तक तुम उन्हें नहीं उखाड़ोगे, तुम्हें शांति कैसे मिलेगी?”

साधु के इन शब्दों ने सेठ के अंतर में ज्योति जला दी| उसके अज्ञान का अंधकार दूर हो गया| ज्ञान का प्रकाश फैल गया| उसे शांति का रास्ता मिल गया|