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अंत भले का भला

अंत भले का भला

प्राचीन काल में तक्षशिला नगरी में चंद्रहास नाम का एक राजा राज्य करता था| उसके पुत्र सोमेश्वर और राज्य के प्रधानमंत्री के पुत्र सोमेश्वर और राज्य के प्रधानमंत्री के पुत्र इन्द्रदत्त में बहुत घनिष्टता थी|

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दोनों ने काशी में जाकर अनेक विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया था| राजकुमार सोमेश्वर ‘परकाया प्रवेश’ अर्थात किसी दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने की विद्या का जानकार था, जबकि उसका मित्र, मंत्री-पुत्र इन्द्रदत्त किसी भी मृत व्यक्ति में जान डाल सकता था|

राजकुमार सोमेश्वर का मगध की राजकुमारी चन्द्रबदन के साथ विवाह हो चुका था| नाम के अनुरूप ही चन्द्रबदन बहुत सुंदर थी और वह भी अनेक विद्याएं जानती थी| सोमेश्वर अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था|

एक दिन की बात है, सोमेश्वर ने जंगल में जाकर आखेट (शिखर) करने का निश्चय किया| उसने अपने मित्र इन्द्रदत्त को बुलवाया और उससे कहा – “मित्र इन्द्रदत्त! मेरा आज जंगल में जाकर शिकार करने का हो रहा है| तुम साथ दो तो दोनों साथ-साथ शिकार करने के लिए चलें|”

यह सुनकर इन्द्रदत्त बोला – “बात तो ठीक ही है मित्र! मेरा मन भी वन-विहार करने को कर रहा है| जब से हम काशी से विद्या प्राप्त करके लौटे हैं, कहीं गए नहीं हैं| चलो वन में चलते हैं| इसी बहाने सैर का मौका भी मिल जाएगा|”

अपने-अपने हथियारों से सुसज्जित होकर घोड़ों पर बैठकर दोनों जंगल की ओर चल पड़े| जब वे जंगल में पहुंचे तो एक स्थान पर दोनों ने एक सिंह का मृत शरीर देखा| दोनों घोड़ों से उतर पड़े और सिंह के मृत शरीर का निरीक्षण करने लगे|
सोमेश्वर बोला – “लगता है किसी शिकारी के बाण का निशाना बना है यह सिंह|”

“हां, इसके शरीर में बाण गहराई तक धंसा हुआ है| खून भी बह रहा है| लगता है, इसका ताजा-ताजा शिकार किया गया है|” इन्द्रदत्त ने भी राजकुमार की बात से सहमत होते हुए कहा|

कुछ देर वहीं ठहरकर दोनों इस बात की प्रतीक्षा करते रहे कि शायद आखेट करने वाला शिकारी वहां पहुंचे, किंतु जब काफी देर तक उन्हें कोई शिकारी आता न दिखाई दिया तो इन्द्रदत्त के मन में एक विचार पैदा हुआ| वह राजकुमार सोमेश्वर से कहने लगा – “मित्र सोमेश्वर! इस मृत सिंह को देखकर मुझे एक बात याद आ गई है| क्यों न हम अपने शिकार का कार्यक्रम स्थगित करके इस सिंह के मृत शरीर पर अपनी-अपनी विद्या का परीक्षण करें|”

“विचार तो बुरा नहीं!” राजकुमार सोमेश्वर बोला – “तुम अपनी विद्या से इसके मृत शरीर में प्राण डालो, तत्पश्चात मैं अपनी विद्या का प्रयोग कर इसके शरीर में प्रवेश कर अपने ज्ञान का परिचय दूंगा|”

फिर वैसा ही किया गया| इन्द्रदत्त ने अपनी विद्या के गुप्त मंत्र पढ़े| देखते-ही-देखते मृत सिंह जीवित हो उठा| उसकी दृष्टी सबसे पहले राजकुमार पर पड़ी, अत: वह उस पर झपट पड़ा| यह देखकर इन्द्रदत्त ने उसे सावधान किया – “सोमेश्वर! संभलो, सिंह तुम पर आक्रमण कर रहा है|”

राजकुमार सोमेश्वर सावधानी की मुद्रा में खड़ा हो गया| क्रोध से दहाड़ता सिंह जैसे ही उसके निकट पहुंचा, राजकुमार ने अपनी तलवार का एक भरपूर वार सिंह की गर्दन पर कर दिया| प्रचंड वेग से किए गए उस वार से सिंह की गर्दन कट गई और वह लहराकर भूमि पर जा गिरा|

“उफ्! बाल-बाल बचे|” इन्द्रदत्त के मुख से निकला – “यदि एक क्षण का भी विलंब हो जाता तो बड़ा अनिष्ट हो जाता|”

“मित्र इन्द्रदत्त!” राजकुमार ने आभार व्यक्त करते हुए इन्द्रदत्त से कहा – “सही समय पर तुमने मुझे सावधान कर दिया, अन्यथा यह सिंह आज मुझे काल का ग्रास बना देता|”

दोनों एक वृक्ष की छांव में जाकर विश्राम करने लगे| कुछ देर पश्चात राजकुमार सोमेश्वर ने इन्द्रदत्त से कहा – “इन्द्रदत्त! मुझ पर उपकार करके तुमने मेरे हृदय में और भी अधिक सम्मान बना लिया है, मित्र! मैं चाहता हूं, आज तुम्हें अपनी विद्या का ज्ञान कराऊं|”

“यह तो और भी अच्छा रहेगा मित्र!” इन्द्रदत्त बोला – “पर यह एकतरफा नहीं होगा, तुम्हारी विद्या जान लेने के पश्चात मैं भी तुम्हें अपनी विद्या का ज्ञान कराऊंगा|”

तत्पश्चात दोनों ने एक-दूसरे को अपनी-अपनी विद्याएं सिखाईं| राजकुमार ने इन्द्रदत्त को किसी मृत व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने की विद्या समझाई तो इन्द्रदत्त ने राजकुमार को समझाया कि किस प्रकार किसी मृत व्यक्ति को जीवित किया जा सकता है, फिर दोनों वापस नगर के लिए लौट पड़े|

संयोगवश उन्हीं दिनों सोमेश्वर के पिता राजा चंद्रहास का निधन हो गया, जिसके कारण शासन का भार सोमेश्वर के कंधों पर आ पड़ा| राजा के बूढ़े मंत्री, इन्द्रदत्त के पिता ने राजा के मरने के बाद संन्यास ले लिया, जिससे मंत्री पद की जिम्मेदारी इन्द्रदत्त पर आ पड़ी| इस प्रकार इन दोनों में अब मित्रता के अतिरिक्त स्वामी और सेवक का संबंध भी बन गया, लेकिन बाल्यकाल का साथी होने के कारण सोमेश्वर इन्द्रदत्त को सेवक न समझकर उसे मित्र का दर्जा ही देता रहा|

सत्ता और वैभव का सुख पाते ही इन्द्रदत्त के मन में बेईमानी की भावना जागने लगी| उसने मन में सोचा – ‘सत्ता और राजकीय सुख वैभव का आनंद तो कुछ और ही है| अब मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे कि ये सत्ता का सुख-वैभव मेरे लिए चिरस्थायी रह सके और यह सब तभी संभव है, जब किसी प्रकार सोमेश्वर को सत्ता से वंचित कर दिया जाए| तब यह राज्य मेरा होगा, सभी मेरे आदेशानुसार कार्य करेंगे| तब किसी दिन मैं अवसर पाकर रानी चन्द्रबदन को, जो परम सुंदरी है, अपनी पत्नी बनाकर राज्य का सुख भोग करूंगा|’

ऐसा कलुषित विचार मन में आते ही एक दिन उसने राजा सोमेश्वर से कहा – “राजन! आखेट पर गए हुए हमें बहुत दिन बीत गए हैं| मेरा मन आखेट करने के लिए कर रहा है| अगर आज्ञा हो तो किसी दिन समय निकालकर हम दोनों आखेट करने के लिए वन में चलें?”

राजा ने अपने मित्र का मन रखने के लिए उसका आग्रह स्वीकार कर लिया, फिर एक दिन दोनों मित्र आखेट करने के लिए वन की ओर चल पड़े|

इस बार जब वे दोनों जंगल के मध्य पहुंचे तो उन्हें एक वृक्ष के नीचे एक बंदर का मृत शरीर पड़ा हुआ दिखाई दिया| बंदर के मृत शरीर को देखकर इन्द्रदत्त के मन में कुटिल भावनाएं पनपने लगीं| वह सोचने लगा – ‘सौभाग्य से ही मुझे यह अवसर मिला है| मैं सोमेश्वर से आग्रह करता हूं कि इस बार वह अपनी विद्या का प्रयोग इस बंदर पर करे|’

ऐसा विचारकर उसने सोमेश्वर से निवेदन किया – “राजन! एक निवेदन करना चाहता हूं|”

सोमेश्वर ने उसकी ओर आंखें तरेरकर कृत्रिम क्रोध का प्रदर्शन किया| वह बोला – “इन्द्रदत्त! मैंने कितनी बार तुमसे कहा है कि सिर्फ राजदरबार में ही तुम मुझे ‘राजन’ कहकर संबोधित किया करो| राजदरबार से निकलने के बाद तो मैं तुम्हारा मित्र सोमेश्वर ही हूं, किंतु तुम हो कि अपनी आदत से बाज नहीं आते|

“गलती हो गई मित्र!” यह कहकर इन्द्रदत्त ने अपने कान पकड़े और फिर मुस्कराकर बोला – “मित्र सोमेश्वर! देख रहे हो इस मृत बंदर का शरीर| मैं चाहता हूं इस बार हम इस बंदर के मृत शरीर पर अपनी-अपनी विद्या का प्रयोग करें| इस प्रकार ये भी मालूम हो जाएगा कि राजकार्यों में व्यस्त रहकर हम अपनी विद्या को भूले नहीं हैं|”

“विचार तो उत्तम है|” सोमेश्वर बोला – “मैं अपनी विद्या द्वारा इस बंदर के शरीर में प्रवेश करता हूं| इस बीच तुम मेरे शरीर की हिफाजत करते रहना|”

“इसके शरीर में प्रवेश कैसे करोगे मित्र? यह तो अभी मृत है| तनिक रुको| पहले मुझे अपनी विद्या के द्वारा इसके मृत शरीर में प्राण तो डालने दो|” ऐसा कहकर इन्द्रदत्त ने मृत-संजीवनी विद्या के मंत्र पढ़ने आरंभ किए| देखते-ही-देखते मरे हुए बंदर की सांसें चलने लगीं|

अब बारी सोमेश्वर की थी| अपनी विद्या के द्वारा अपने शरीर से निकलकर वह बंदर के शरीर में प्रवेश कर गया| इन्द्रदत्त तो इसी अवसर की तलाश में था| जैसे ही सोमेश्वर का शरीर प्राणरहित हुआ, सोमेश्वर की ही दिखाई विद्या से वह अपने शरीर का त्याग कर सोमेश्वर के शरीर में प्रविष्ट हो गया और उसका शरीर प्राणरहित होकर भूमि पर गिर गया| यह देखकर सोमेश्वर, जो अब बंदर बन चुका था, चिल्ला उठा – “अरे-अरे इन्द्रदत्त! यह क्या करते हो! जल्दी से मेरा शरीर खाली करो, मैं अब पुन: अपने शरीर में लौटने वाला हूं|”

यह सुनकर इन्द्रदत्त, जो अब सोमेश्वर के शरीर पर कब्जा कर चुका था, ठहाका मारकर हंस पड़ा और क्रूर स्वर में बोला – “मूर्ख सोमेश्वर! अब मैं तुम्हारे शरीर को कभी खाली नहीं करूंगा| तुम्हारे शरीर का उपयोग करते हुए मैं राज-सिंहासन का सुख भोगूंगा और तुम्हें मिलेगी सिर्फ मौत!”

ऐसा कहकर सोमेश्वर बने इन्द्रदत्त ने अपनी तलवार निकाल ली और बंदर बने सोमेश्वर पर झपट पड़ा| जान बचाने के लिए बंदर भाग निकला| वह एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़ गया और एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर छलांगें लगाता हुआ घने जंगल में चला गया| जब उसने स्वयं को सुरक्षित महसूस कर लिया तो उसने सोचा – ‘मैं जिस इन्द्रदत्त को अपने प्राणों से भी प्रिय समझता था, वह तो बहुत कपटी निकला| मैंने बहुत बुरा किया, जो अपनी विद्या का ज्ञान उसे करा दिया| अब वह मित्रद्रोही पता नहीं राजमहल में जाकर कैसे-कैसे गुल खिलाएगा!’

उधर, जब सोमेश्वर बना इन्द्रदत्त बंदर को पकड़ने में नाकाम हो गया तो वह सोचने लगा – ‘आज अपने सौभाग्य से यह बंदर मेरे हाथों से बच निकला है, किंतु मैं चुप नहीं बैठूंगा|नगर पहुंचकर कोई ऐसे व्यवस्था करूंगा, जिससे कि यह बंदर मेरे हाथों से बचने न पाए|’
यही सोचता हुआ सोमेश्वर बना इन्द्रदत्त वापस महल में पहुंचा| महल के किसी भी व्यक्ति को उस पर संदेह न हुआ| सभी ने उसे राजा सोमेश्वर ही समझा| महल में पहुंचने से पूर्व इन्द्रदत्त ने एक होशियारी यह की थी कि वह अपने (इन्द्रदत्त के) शरीर को एक सूखे कुएं में फेंक आया था| यह काम उसने सुरक्षा की दृष्टि से किया था| उसे भय था कि कहीं उसके जाने के पश्चात बंदर बना सोमेश्वर वहां न आ पहुंचे और इन्द्रदत्त के खाली शरीर को देखकर अपनी विद्या से इन्द्रदत्त का शरीर पा जाए| बहरहाल, जब राजमहल में उस पर किसी ने संदेह न किया तो वह ठाठ से राज सिंहासन पर आकर बैठ गया| उसने नगर-भर में प्रचारित करवा दिया कि उसका मंत्री इन्द्रदत्त तो वन में एक सिंह से मुठभेड़ हो जाने के कारण सिंह द्वारा मार डाला गया| अपने राजा की बात पर इन्द्रदत्त के घर वालों ने विश्वास कर लिया| कुछ दिन वे उसके शोक में रोते-बिलखते रहे, अंतत: अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहाकर शांत हो गए|

यद्यपि सोमेश्वर के रूप में इन्द्रदत्त की हर आज्ञा का भली-भांति पालन हो रहा था, किंतु मन-ही-मन वह बेहद डरा हुआ था| उसे आशंका थी कि कहीं किसी प्रकार बंदर बना सोमेश्वर नगर में न आ धमके और अपनी पत्नी चन्द्रबदन अथवा अपने विश्वासी सेनापति से सारी बातें बताकर उसका भंडा-फोड़ न कर दे, अत: उसने सभासदों को बुलाकर कहा – “हमें ऐसी सूचना मिली है कि आजकल हमारे राज्य में बंदरों ने बहुत आतंक मचा रखा है| ये बंदर फसलों को चौपट किए दे रहे हैं| हमारी आज्ञा है राज्य के समस्त बंदर पकड़कर मार दिए जाएं| जो भी व्यक्ति जितने बंदर मारेगा, उसे सरकारी कोष से प्रति बंदर मारने के एवज में दो सौ चांदी की मुद्राएं पुरस्कारस्वरूप प्रदान की जाएंगी| इसके अतिरिक्त उस व्यक्ति को विशेष रूप से पुरस्कृत किया जाएगा, जो व्यक्ति कोई मानवी भाषा में बोलने वाला जीवित बंदर पकड़कर लाएगा|”

घोषणा की देर थी कि अनेक बहेलिए (शिकारी) पुरस्कार के लालच में इस कार्य में जुट गए| बंदरों की शामत आ गई| झुंड-के-झुंड बंदर पकड़े और मारे जाने लगे|

बंदर बना सोमेश्वर भी कब तक बचता| एक दिन संध्या के समय जब वह अपना आहार चुन रहा था, एक बहेलिए ने उसे घात लगाकर पकड़ लिया| बहेलिया उसे बांधकर अपने घर ले चला| बहेलिया नगर में नहीं रहता था, अत: उसने राजा की यह घोषणा नहीं सुनी थी कि राजा ने बोलने वाले बंदर को पकड़ने के लिए विशेष पुरस्कार की घोषणा कर रखी है| रास्ते में वह बहेलिया सोचने लगा – ‘कल इस बंदर को राजदरबार में ले जाऊंगा और इसे राजा को सौंपकर दो सौ चांदी की मुद्राएं हासिल कर लूंगा|’ बहेलिए के मनोभाव जैसे बंदर ने पढ़ लिए, वह उससे मानवी भाषा में बोला – “मित्र बहेलिए! तुम पुरस्कार पाने के लालच में ही मुझे राजा को सौंपना चाहते हो न! मेरी बात सुनो| यदि तुम मुझे किसी तरह रानी चन्द्रबदन के पास पहुंचा दो तो मैं तुम्हें ढेर सारा धन दिलवा दूंगा, तब तुम्हें आगे किसी चीज का अभाव नहीं रहेगा|”

एक बंदर को मानवी भाषा में बोलते देखकर बहेलिया अचंभित रह गया| उसने आश्चर्य से पूछा – “क्यों भाई! कौन हो तुम? बंदर या इसके वेश में कोई जिन्न? मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम हमारी भाषा कैसे बोल लेते हो?”

“मित्र बहेलिए!” बंदर बोला – “न तो मैं कोई जिन्न हूं और न कोई अन्य बुरी आत्मा| मैं अभागा तो भाग्य का मारा हुआ एक साधारण-सा प्राणी हूं| खैर, तुम्हें ये जानने की कोई आवश्यकता भी नहीं है| मैंने तुम्हारे सामने एक प्रस्ताव रखा है, यदि तुम उसके अनुसार मुझे रानी चन्द्रबदन के पास पहुंचा दो तो मैं तुम्हारा बहुत ही उपकार मानूंगा| मेरा विश्वास करो| मैं तुम्हें करोड़पति बनवा दूंगा|”

धन के लालच में बहेलिए ने बंदर का प्रस्ताव मान लिया| वह बोला – “मुझे तुम्हारा प्रस्ताव मंजूर है| अब मैं तुम्हें न तो मारूंगा और न ही तुम्हें राजा को सौपूंगा| बताओ और क्या चाहते हो मुझसे?”

“तुम मुझे कागज, कलम और दवात ला दो|” बंदर बोला – “मैं तुम्हें रानी के नाम एक संदेश लिखकर दे दूंगा| तुम किसी तरह मेरे उस संदेश को रानी चन्द्रबदन तक पहुंचा दोगे तो रानी तुम्हें भरपूर उपहार दे देंगी|”

“और अगर रानी ने मुझे मेरा मनचाहा पुरस्कार न दिया तो?” बहेलिए ने आशंकित स्वर में पूछा|

“तब तुम लौटकर मेरे साथ जैसा व्यवहार करना चाहो, कर लेना| मैं तो तुम्हारे बंधनों में बंधा हूं|” बंदर ने कहा|

तब बहेलिए ने कहीं से कागज, कलम और दवात का प्रबंध किया| बंदर बने राजा ने रानी चन्द्रबदन के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें इन्द्रदत्त ने जो कुछ भी उसके साथ किया था, वे सारी बातें विस्तार से लिख दीं| साथ ही वह यह लिखना भी न भूला कि इस समय मैं इस पत्रवाहक के बंधन में हूं| इसे भरपूर धन देकर मुझे छुड़ा लेना|

लेकिन यहां बहेलिए से एक भयंकर भूल हो गई| जिस पड़ोसी बहेलिए के यहां से वह लेखन सामग्री लेकर आया था, उसे उस बहेलिए पर संदेह हो गया कि यह बहेलिया तो बिना पढ़ा-लिखा आदमी है| तब यह लेखन सामग्री किस प्रयोजन से मांगकर ले जा रहा है, अत: उसके जाने के बाद, पड़ोसी बहेलिया धीरे-से अपने घर से बाहर निकला और खिड़की के साथ सटकर खड़ा हो गया, फिर जब उसने बंदर और बहेलिए का वार्तालाप सुना तो राजा की घोषणा उसके जेहन में कौंध गई| वह विचार करने लगा – ‘यह तो वही बोलने वाला बंदर मालूम होता है, जिसको पकड़ने के लिए राजा ने विशेष इनाम की घोषणा कर रखी है| कल इस बहेलिए से इस बंदर को खरीद लेना चाहिए, फिर जब इसे राजा के पास ले जाकर उसे भेंट करूंगा तो मुझे राजा के विशेष पुरस्कार की राशि प्राप्त हो जाएगी|’

ऐसा विचार कर अगले दिन प्रात: जब बहेलिया बंदर का पत्र लेकर राजमहल जाने के लिए घर से बाहर निकला तो पड़ोसी बहेलिए ने उसे रोककर पूछा – “मित्र! कल तुमने जो बंदर पकड़ा था, वह मुझे बहुत पसंद है| तुम चाहो तो मैं उसे खरीद सकता हूं?”

बहेलिए के मन में लालच पैदा हो गया| मोल-भाव हुआ तो बहेलिए ने दो सौ स्वर्णमुद्राओं के बदले में वह बंदर पड़ोसी बहेलिए को सौंप दिया| उसी दिन दोनों व्यक्ति अलग-अलग समय पर अलग-अलग उद्देश्यों से राजमहल की और चल पड़े| उस बहेलिए के, जिसने बंदर पकड़ा था, मन में कुछ इस प्रकार के विचार उठ रहे थे – ‘अच्छा हुआ, जो मैंने अपने पड़ोसी बहेलिए से बंदर द्वारा लिखे पत्र का जिक्र नहीं किया| अब यह पात्र रानी को सौंप दूंगा और उससे मनचाहा पुरस्कार प्राप्त कर लूंगा|’

बंदर को खरीदने वाला बहेलिया कुछ अलग ही ढंग से सोच रहा था – ‘अच्छा ही हुआ, जो इस बहेलिए को राजा की विशेष घोषणा का पता नहीं चला| यदि इसे पता चल गया होता तो यह कभी भी इस बंदर को मेरे हाथ बेचने के लिए राजी नहीं होता|’

बंदर बना राजा कुछ और ही ढंग से सोच रहा था – ‘उस बहेलिए ने मुझे इस बहेलिए के हाथ बेच तो जरूर दिया है, किंतु उसने मेरे पत्र का इससे कोई जिक्र नहीं किया| ईश्वर करे वह पत्र सही सलामत मेरी पत्नी के पास पहुंच जाए, किंतु यदि उस बहेलिए के मन में कोई खोट आ गया, तब फिर मेरी मुक्ति असंभव है| इन्द्रदत्त निश्चय ही मुझे मरवा डालेगा|’

तीनों ऐसे ही विचार सोचते हुए नगर में जा पहुंचे| सबसे पहले वह बहेलिया महल में पहुंचा, जिसने बंदर को पकड़ा था| उसने रानी को बंदर का पत्र सौंपा और इनाम हासिल कर वहां से चलता बना| रानी ने अपने पति की लिखावट को तुरंत पहचान लिया| उसने बड़ी तन्मयता से पूरा पत्र पढ़ा| पत्र पढ़कर बुद्धिमान रानी तुरंत ही सब समझ गई| तब उसने अपने मन में सोचा – ‘तो यह सारा छल-कपट इन्द्रदत्त का पैदा किया हुआ है| अब मैं समझ गई कि जब से वह वन से लौटा है, क्यों उसके स्वभाव में बदलाव पैदा हो गया है| मेरे स्वामी को बंदर बनाकर यह दुष्ट स्वयं राजा बनकर शासन कर रहा है, लेकिन मेरा नाम भी चन्द्रबदन है| इन्द्रदत्त को ऐसा कठोर दंड दूंगी कि उसकी सात पीढ़ियां तक याद रखेंगी|’

ऐसा निश्चय कर रानी ने अपनी विश्वस्त सेविका को बुलाया और उसे आदेश दिया – “चंद्रिका! तुम तत्काल बाजार जाओ और मेरे लिए दो चीजें खरीद लाओ|”

“कौन-सी दो चीजें महारानी?” सेविका ने पूछा|

“एक तो पिंजरे सहित एक तोता तथा दूसरा एक मेमना|” रानी ने कहा और उसे स्वर्णमुद्राओं से भरी एक थैली पकड़ा दी| सेविका चंद्रिका रानी द्वारा मंगाई चीजें लेने के लिए तत्काल बाजार के लिए चली गई| जाते-जाते रानी ने उसे हिदायत कर दी कि यह काम वह राजा के कर्मचारियों की नजर बचाकर करे, अन्यथा जिस काम को वह अंजाम देना चाहती है, उसमें विघ्न पड़ने का भय है|

जल्दी ही दासी चंद्रिका ने दोनों चीजें लाकर रानी के सुपुर्द कर दीं| रानी ने जिस योजना के तहत वह दोनों चीजें मंगवाई थीं, उस योजना को पूरा करने में जुग गई|

उधर वह बहेलिया, जो पत्र सौंपकर रानी से पुरस्कार ले गया था, नगर से बाहर आया| शीघ्र ही उसे पता लग गया कि राजा ने बोलने वाले बंदर को पकड़कर लाने वाले व्यक्ति के लिए विशेष पुरस्कार की घोषणा की हुई है| यह सुनकर उसके दिमाग में एक विचार कौंध उठा| उसने सोचा – ‘रानी से पत्र पहुंचाने के बदले तो धन मिल ही गया है, लगे हाथ क्यों न राजा को उस बंदर की सूचना देकर कुछ धन पुरस्कार के रूप में उधर से ले भी ले लूं|’

ऐसा विचार कर वह राजा के दरबार में पहुंचा| वहां उसने राजा के सम्मुख कहा – “अन्नदाता! जिस बोलने वाले बंदर को पकड़ने के लिए आपने विशेष पुरस्कार की घोषणा की हुई है, उस पुरस्कार को प्राप्त करने का सच्चा अधिकारी मैं हूं|”
“तुम कैसे अधिकारी हो सकते हो?” राजा ने पूछा – “वह बंदर तो तुम्हारे पास है ही नहीं|”

“अन्नदाता! मैंने उस बंदर को पकड़ लिया था, किंतु मुझसे मेरे एक पड़ोसी ने वह बंदर जबरदस्ती छीन लिया| मैं आपसे न्याय मांगने आया हूं, अन्नदाता या तो मेरे पड़ोसी से छीनकर वह बंदर मुझे दिलाया जाए या फिर बंदर पकड़कर लाने के लिए पुरस्कार की जो राशि नियुक्त की गई है, वह मुझे ही दो जानी चाहिए|”

“तुम हमें अपने पड़ोसी का पता बता दो|” राजा बोला – “पहले हम उसे दरबार में बुलाकर उससे पूछताछ करेंगे कि तुम्हारी बात सही है या झूठ! तत्पश्चात ही सच और झूठ का निर्णय कर कोई फैसला देंगे|”

बहेलिए ने अपने पड़ोसी का पता बता दिया और राजा से किसी प्रकार का कोई पुरस्कार न मिलने के कारण निराश होकर वहां से चला आया| बहेलिए के जाते ही राजा ने अपने कुछ सैनिक बुलाए और बहेलिए द्वारा बताए पते पर रवाना कर दिए, ताकि वे उस व्यक्ति, जिसके अधिकार में बोलने वाला बंदर है, को पकड़कर दरबार में ले आएं|

उधर, इन सब बातों से अनभिज्ञ दूसरा बहेलिया बंदर के गले में रस्सी बांधकर नगर में पहुंचा| जब वह बहेलिया महल के नीचे से गुजरकर राजदरबार की ओर जा रहा था, बंदर ने आशा भरी दृष्टि से महल के ऊपर की ओर देखा| रानी चन्द्रबदन उसे दिखाई दे गई| मुंडेर पर एक तोते का खाली पिंजरा भी उसे दिखाई दिया और यह भी उसे दिखाई दे गया कि रानी ने उस समय एक तोता अपने हाथों में पकड़ा हुआ था| रानी ने भी नीचे झांका तो बहेलिया और बंदर उसे दिखाई दे गए| बस फिर क्या था, रानी ने संकेतात्मक सीटी बजा दी| सीटी बजाने के साथ ही उसने तोते की गर्दन मरोड़ दी| सीटी का स्वर सुनते ही बंदर समझ गया कि रानी ने अपना काम कर दिया है, तब तत्काल उसने अपनी विद्या के प्रभाव से बंदर का शरीर छोड़ दिया| ऊपर जैसे ही तोता मरा, विद्या के प्रभाव से बंदर के शरीर से निकलकर राजा के प्राण तोते के शरीर में प्रविष्ट हो गए| रानी ने तोते को पिंजरे में बंद किया और अपने कक्ष में आ गई|

उधर, महल के नीचे बंदर के इस प्रकार अचानक मर जाने के कारण बहेलिया हतप्रभ रह गया| वहां से आने-जाने वाले नगरवासी भी रुककर इस दृश्य को देखने लगे| किसी ने दरबार में जाकर यह बात राजा को बता दी तो वह भी वहां पहुंच गया| बंदर के मृत शरीर को देखते ही पलक झपकते राजा की समझ में आ गया कि सोमेश्वर बड़ी चालाकी से अपना बंदर का चोला त्यागकर किसी दूसरे जीव के शरीर में प्रविष्ट हो गया है, लेकिन किसके शरीर में? बहुत सोच-विचार के पश्चात सोमेश्वर बने इन्द्रदत्त की समझ में कहीं आया कि जिस भी नए प्राणी के शरीर में सोमेश्वर ने प्रवेश किया है, वह महल के आसपास ही कहीं पर मौजूद है| तब उसने सैनिकों को वहां मौजूद सभी पशु-पक्षियों को पकड़कर लाने का आदेश दे दिया और स्वयं महल के भीतर चला गया|

सबसे पहले वह रानी चन्द्रबदन के कक्ष में पहुंचकर बोला – “रानी चन्द्रबदन! आज मैं तुम्हारा एक भी बहाना नहीं सुनूंगा| तुम्हें मुझे बताना होगा कि किस कारण तुम मुझसे मिलने से हिचकिचाती रही हो? क्या तुम्हें मुझसे प्रीति नहीं रही है?”

“प्रीति तो मुझे अपने पति से अब भी है|” रानी चन्द्रबदन स्पष्ट स्वर में बोली – “किंतु तुमसे मुझे कोई प्रीति नहीं है| इसके विपरीत मुझे तो संदेह है कि तुम कोई बहुरूपिए हो, जिसने मेरे पति का अहित करके उनका ये रूप धारण कर लिया है|”

“तुम्हारा संदेह निराधार है, रानी चन्द्रबदन! हम तुम्हारे पति सोमेश्वर ही हैं|” सोमेश्वर बना इन्द्रदत्त बोला – “हमारे साथ ही तुम्हारा विवाह हुआ था|”

“हरगिज नहीं|” रानी दृढ़तापूर्वक बोली – “तुम मेरे पति कैसे हो सकते हो, तुममें तो एक भी लक्षण नहीं है मेरे पति जैसा, सिवाय तुम्हारे इस शरीर के| अच्छा बताओ, क्या तुम ‘परकाया प्रवेश’ नाम की उस विद्या जो जानते हो, जिसके द्वारा किसी भी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश किया जा सकता है?”

“ओह! तो यह बात है रानी चन्द्रबदन! अब अपना संदेह समाप्त कर दो, हम तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि हम यह विद्या जानते हैं|” राजा बने इन्द्रदत्त ने मुस्कराकर उत्तर दिया|

“सिर्फ कह देने से काम नहीं चले वाला|” रानी बोली – “क्या तुम इस बात का प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हो?”

“हां-हां, क्यों नहीं|”

“ठीक है, मैंने एक मेमना मंगवाया हुआ है| मैं उसका वध करती हूं| आप उसके शरीर में प्रवेश करके दिखाइए, तभी मैं आप पर विश्वास करूंगी|” रानी ने कहा|

राजा बना इन्द्रदत्त सहर्ष तैयार हो गया|

तब रानी ने अपनी सेविका को भेजकर मेमने को मंगवाया और उस मेमने का सिर काट दिया, फिर वह राजा से बोली – “राजन! अब इस मेमने के शरीर में प्रवेश कर अपनी बात का प्रमाण दीजिए|”

“यह क्या मुश्किल है|” ऐसा कहकर सोमेश्वर के बताए ज्ञान से राजा बने इन्द्रदत्त ने मंत्र पढ़ने आरंभ किए| मंत्रों का प्रभाव होते ही मेमने का कता हुआ सिर जुड़ गया, फिर उसके शरीर में हरकत पैदा हुई और वह जीवित हो उठा| इसके साथ ही राजा का शरीर निष्प्राण होकर भूमि पर गिर गया|

यह देखकर रानी जोर से चिल्ला पड़ी – “स्वामी! मैदान साफ है, शीघ्रता से अपने खाली शरीर में प्रवेश कर जाइए|”

तोता बना सोमेश्वर तो पहले से ही तैयार बैठा था| वह तेजी से पिंजरे से निकला और मंत्र पढ़ता हुआ तोते का शरीर छोड़कर अपने शरीर में प्रवेश कर गया| फिर दो बातें एक साथ हुईं| अपना स्वरूप फिर से पाकर सोमेश्वर ने तत्परता से मेमने का सिर काट डाला| उधर रानी ने तोते की गर्दन मरोड़ दी|

राजा द्वारा तोते की गर्दन मरोड़कर एक ओर फेंकते ही इन्द्रदत्त की आत्मा शून्य में भटकने लगी| उसे न तो मेमने के शरीर में स्थान मिला और न ही तोते के शरीर में| तब सोमेश्वर ने जोर-जोर से मंत्रों का जाप करना आरंभ कर दिया| मंत्रों के प्रभाव से आकाश मार्ग से एक अग्निशिखा प्रकट हुई| देखते-ही-देखते उस अग्निशिखा ने शून्य में भटकती इन्द्रदत्त की आत्मा को अपने घेरे में ले लिया| सोमेश्वर जैसे-जैसे मंत्रों का जाप करता गया, अग्नि का घेरा उतना ही विशाल होता गया| कुछ ही देर में उस अग्नि के घेरे ने इन्द्रदत्त की आत्मा को लील लिया, फिर वह अग्निशिखा जिस प्रकार अचानक प्रकट हुई थी, उसी प्रकार अदृश्य भी हो गई|

इस प्रकार बुद्धिमान और पतिव्रता रानी चन्द्रबदन की सूझ-बूझ से राजा सोमेश्वर ने पुन: अपना शरीर प्राप्त कर लिया| किसी कवि ने सच ही कहा है –

धीरज-धर्म-मित्र अरु नारी,

आपद्काल परखिए चारी|

अर्थात धैर्य, धर्म, मित्र और नारी की आपात काल में ही पहचान होती है| रानी चन्द्रबदन इस कसौटी पर खरी उतरी| तदुपरांत वे दोनों अनेक वर्षों तक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहे|

गौरव की