अन्न का असर

एक संत किसी गांव में पहुंचे। गांव के लोगों के आग्रह पर वह वहीं एक कुटिया बनाकर रहने लगे। उनका खाना जमींदार के घर से आता था। एक दिन जमींदार की पत्नी ने उन्हें अपने घर ठहरने को कहा।

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शाम को संत हवेली पहुंचे। एक कमरे में उनके लिए विश्राम की व्यवस्था की गई। संत के पलंग के पास एक संदूक था। संत ने ढक्कन उठाकर देखा तो हैरान रह गए। उसमें बेशकीमती आभूषण थे। संत को लालच आ गया। उन्होंने एक कीमती हार निकाल कर अपनी जटा में छिपा लिया और वहां से चले गए। सुबह लोगों ने देखा तो कुटिया बंद पड़ी थी। जमींदार और गांव के लोगों ने संत को दूर तक खोजा लेकिन वह नहीं मिले। एक महीने के बाद अचानक संत जमींदार के पास आए और उन्हें हार सौंपते हुए बोले, ‘इसे मैं चुरा कर ले गया था। वापस करने आया हूं।’ जमींदार ने पूछा, ‘पर आप ने ऐसा क्यों किया? क्या आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी?’

संत ने कहा, ‘हां, मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। उसी का कारण जानने आया हूं। यह बताओ तुम्हारी कमाई का साधन क्या है? मुझ जैसे संत से सच-सच बता दो।’ जमींदार ने कुछ देर चुप रहने के बाद बता दिया कि उसने डकैतों को संरक्षण दे रखा है और उनसे हिस्सा लेता है। संत ने कहा, ‘मेरी बुद्धि इसलिए भ्रष्ट हो गई थी, क्योंकि मैंने नीच कर्म की कमाई का अन्न खाया। उसका मेरे मन पर ऐसा बुरा असर पड़ा और मैं चोरी जैसा पाप करने पर उतारू हो गया। मगर यहां से जाने के बाद जंगल में कंद- मूल फल खाकर मन का मैल धुल गया और सद्बुद्घि आ गई, तभी मन में हार वापस करने का विचार आया। इसीलिए कहा गया है कि जैसा अन्न खाओगे, बुद्धि भी उसी तरह काम करेगी।’ जमींदार ने अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी और सुधरने का संकल्प किया।