अनाज के व्यापारी की कहानी
अनाज के मुसलमान व्यापारी ने अपनी कहानी सुनानी प्रारंभ की-
“अनाज के व्यापारी की कहानी” सुनने के लिए Play Button क्लिक करें | Listen Audio
कल मैं एक धनी व्यक्ति की पुत्री के विवाह में गया था| नगर के बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्ति उसमें शामिल थे| शादी की रस्में पूरी होने पर दावत हुई और नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए| एक थाल में एक मसालेदार स्वादिष्ट लहसुन का व्यंजन रखा था, जिन्हें उठाकर हर आदमी रुचिपूर्वक खा रहा था| परंतु एक आदमी उसे नही खा रहा था|
पूछने पर उस व्यक्ति ने बताया की एक बार लहसुन के कारण उसने ऐसा घोर कष्ट उठाया है कि अभी तक उसे नही भूल सका| इस पर सब लोगों की उत्कंठा और बढ़ी और सभी उसे लहसुन के व्यंजन को खाने के लिए ज़ोर डालने लगे| गृहस्वामी ने भी कहा, “यदि आप इसे नही खाएँगे तो मैं समझूँगा कि मेरे अन्न का आपने निरादर किया है|”
जब उस पर बहुत ज़ोर डाला गया तो उसने कहा, “मैं इसे चख तो लेता हूँ, किन्तु इसके बाद मैं चालीस बार फलां घास की राख से और सौ बार साबुन से हाथ धोऊँगा| मैंने यह सौगंध खाई है कि इसी प्रकार से लहसुन खा सकता हूँ| मैं अपनी प्रतिज्ञा को भंग नही कर सकता|”
गृहस्वामी ने उस विशेष घास की राख, साबुन और गर्म पानी का प्रबंध करा दिया| उस आदमी ने एक बार फिर इनकार किया, किन्तु सबके ज़ोर देने पर एक बार डरते-डरते एक दाना मुहँ में रख लिया| हम लोगों को उसकी हिचक से भी आश्चर्य हुआ और इस बात से भी कि उसने केवल चार ऊँगलियों से खाया, अँगूठे का प्रयोग नही किया| गृहस्वामी ने कहा, “आप अजीब तरह से खा रहे है| खाने में अँगूठे का प्रयोग का क्यों नही करते? इससे आपको आसानी होगी!”
उस आदमी ने हाथ फैलाकर दिखाया तो उसमें अँगूठा था ही नही| तब गृहस्वामी तथा अन्य अतिथियों ने उससे पूछा, “आपके अँगूठे का क्या हुआ?”
इस पर वह बोला, “एक बार मुझ पर ऐसी मुसीबत पड़ी, जिसे कहना मुश्किल है| उसी विपत्ति के कारण मेरे दोनों हाथों और पैरों के अँगूठे काट लिए गए|
इस पर हम लोगों ने उससे यह वृतांत सुनाने को कहा| उसने हमारी बात स्वीकार कर ली| पहले उसने एक सौ चालीस बार हाथ धोए और फिर अपनी कहानी सुनानी शुरू की|
दोस्तों! मेरा पिता बगदाद का रहने वाला था और खलीफ़ा हारून रशीद के ज़माने में था| मैं भी उसी समय पैदा हुआ| मेरा पिता यधपि धनवान तथा बड़े व्यापारियों में गिना जाता था, तथापि वह बहुत ही विलासी और व्यसनी था, इसलिए व्यापार की ठीक तरह देखभाल नही कर पाता था और इससे काफ़ी गड़बड़ होती थी| जब वह मरा तो मुझे मालूम हुआ कि न जाने कितने लोगों से उसने ऋण ले रखे है| मुझे कठिनाई तो बहुत हुई, किन्तु मैंने परिश्रम से व्यापार बढ़ाया और धीरे-धीरे सारे ऋणदाताओं का रुपया वापस कर दिया| अब मैं इत्मीनान से अपने कपड़े की दुकान पर बैठकर व्यापार किया करता था| एक दिन मैं दुकान पर बैठा था कि एक सुंदरी, जो खच्चर पर सवार थी और जिसके आगे एक नौकर और पीछे दो नौकरानियाँ चल रही थी, मेरी दुकान के पास आई| उसके नौकर ने उसे हाथ पकड़कर खच्चर से उतारा और कहा, “मालकिन! आप बेकार ही इतने सवेरे बाज़ार में आ गई| अभी तो कोई दुकान ही नही खुली है, आप कब तक प्रतीक्षा करेंगी?”
उसने कहा, “तुम ठीक कहती हो| केवल एक ही दुकान खुली है| चलो उसी में चले|”
इस प्रकार वह मेरी दुकान पर आकर बैठ गई| जब उसने देखा की मेरे और एक नौकर के अलावा मेरी दुकान पर और कोई नही है तो उसने हवा लेने के लिए अपना नकाब थोड़ा सा उठाया| नकाब उठाते ही मुझे उसका चेहरा नज़र आया| मैंने ऐसा अनुपम रूप कभी नही देखा था| मैं ठगा-सा टकटकी लगाकर उसे बराबर देखता रहा| उसने मेरी उत्कंठा देखकर पूरा नकाब उलट दिया| फलस्वरूप मैं जी भरकर उसके सौंदर्य का रसास्वादन करने लगा| कुछ ही देर में अन्य व्यापारी और ग्राहक आ गए और बाज़ार में भीड़ बढ़ गई तो उसने नकाब फिर से अपने चेहरे पर डाल लिया|
फिर उसने मुझसे कहा, “मैं जरी के कपड़े खरीदना चाहती हूँ| आपके पास ऐसे थान हो तो दिखाइए|”
मैंने कहा, “मैं तो सादा थान बेचता हूँ, लेकिन आप कहे तो अन्य दुकानदारों के यहाँ से खुद आपके लिए अच्छे-अच्छे थान ला सकता हूँ| इससे आपका दुकान-दुकान जाकर कपड़े देखने और खरीदने का कष्ट बच जाएगा|”
वह इस बात से बहुत प्रसन्न हुई देर तक मुझसे इधर-उधर की बातें करती रही| कुछ देर बाद मैं कई दुकानों में गया और जरी के थान मैंने उस स्त्री के आगे लाकर रख दिए| उसने उनमें से कुछ थान अपने सेवक को दे दिए| फिर उस स्त्री ने विदा ली| मैं उसके सौंदर्य के मोह में इतना किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था कि उससे थानों का मूल्य माँगा ही नही और उसने भी नही दिया| मैंने उससे यह भी नही पूछा कि तुम कहाँ रहती हो?
मुझे फिक्र हुई कि उससे रुपया न मिला तो मैं यह पौने पच्चीस हज़ार कहाँ से भरुँगा| मैंने दुकानदारों को दिलासा दे दिया कि मैं उस स्त्री को पहचानता हूँ और दाम मिल जाएँगे| लेकिन रात भर चिंता मैं मुझे नींद नही आई| दूसरे दिन मैंने व्यापारियों से एक हफ्ते में अदायगी करने का वादा किया और उन्होंने इसे मंजूर भी कर लिया| एक हफ्ते तक भी उस स्त्री का पता नही लगा|
आठवें दिन वह सुंदरी उस खच्चर पर उन्हीं सेवकों के साथ मेरी दुकान पर आई और बोली, “तुम रुपए लेने क्यों नही आए? अब मुझे खुद इन्हें लेकर आना पड़ा| अब मैं सारा पैसा ले आई हूँ| सर्राफ़ से परख वालो कि सिक्के ठीक है या नही?”
मैंने सर्राफ़ को दिखाया तो सब सिक्के खरे निकले| वह सुंदरी देर तक मुझसे बातें करती रही और बातचीत से मालूम हुआ है कि वह बहुत बुद्धिमती है| मैंने वस्त्र व्यापारियों को बुलाकर उनका रुपया दे दिया| वे सब बड़े प्रसन्न हुए और मेरे व्यवहार से बाज़ार में मेरी साख बढ़ गई|
उस सुंदरी ने कई और थान माँगे और मैंने व्यापारियों से लेकर उसे दे दिए| लेकिन फिर भी न उसका नाम पूछा न निवास स्थान| उसके जाने के बाद फिर मैं सोचने लगा की एक बार तो वह रुपये दे गई| अब अगर न दिए तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा| फिर सोचता रहा कि यह असंभव है कि वह धोखा करे| वह तो मेरे शील की परीक्षा ले रही है| उसे मेरे हानि-लाभ और प्रतिष्ठा का ख्याल ज़रुर होगा| वह तो जानती ही है कि मेरी साख पर ही व्यापारियों ने कपड़े के थान दिए है| कभी मुझे अपनी संभावित हानि पर ध्यान जाता और कभी उसके सौंदर्य का ध्यान करके सारा दुख भूल जाता|
इस बार उसने बहुत दिनों तक रपये न पहुँचाए और व्यापारी लोग बेसब्र होकर मुझसे रुपयों का तकाजा करने लगे| मैं अपनी आमदनी में से थोड़ा-थोड़ा भिजवाकर उनकी तसल्ली कर देता था| एक महीने के बाद वह फिर अपने सेवकों के साथ आई और उसने पिछली बार के खरीदे कपड़ो का मूल्य मुझे दे दिया| फिर उसने मुझसे पूछा, “तुम्हारा विवाह हो चुका है या नही?”
मैंने कहा, “अभी नही हुआ है|”
उसने अपने नौकर को इशारा किया और वह मुस्कुराता हुआ उठा और मुझे एक तरफ़ ले जाकर बोला, “तुम क्या समझते हो, मालकिन तुमसे कपड़े खरीदने के लिए आती है? मैं जानता हूँ कि तुम उस पर आसक्त हो, लेकिन तुमने सभी से यह बात छुपाई है| अब यह जान लो कि ये भी तुमसे प्रेम करती है, इसलिए तुम्हारे विवाह के बारे में पूछा| तुम इतने बुद्धू निकले कि उसका इशारा भी नही समझे|”
मैंने कहा, “भाई! मैंने तो जब पहली बार तुम्हारी मालकिन को देखा, तभी उस पर मर मिटा था| किंतु मुझे यह आशा नही थी कि वह भी मुझसे प्रेम करेगी| अब तुम इस मामले में अगर मेरी सहायता करोगे, तो मैं आजीवन तुम्हारा अहसान नही भूलूँगा|”
वह मेरे पास से उठकर अपनी मालकिन के पास पहुँचा और मेरी बात बताई| वह सुंदरी अपनी सेविकाओं को इशारा करके उठ खड़ी हुई और फिर मुझसे बोली, “मैं अपने नौकर को तुम्हारे पास भेजूँगी| वह जैसा कहे, वैसा करना|” यह कहकर वह चली गई|
मैं कुछ दिन तक नौकर की बाट देखता रहा| एक दिन मेरी दुकान पर आया| मैंने उससे उस सुंदरी की कुशल-क्षेम पूछी|
उसने कहा, “तुम बहुत भाग्यवान हो| वह तुम पर अत्यधिक मोहित है| उसका बस चलता तो अभी तुम्हारे पास पहुँच जाती|”
मैंने कहा, “वह बहुत ही शीलवती जान पड़ती है कि इतने संयम से काम लेती है|”
उसने कहा, “तुम्हें इसलिए उसके शील पर आश्चर्य हो रहा है कि तुम उसे जानते नही हो| वह खलीफ़ा हारुन रशीद की पत्नी जुबैदा की सहेली है| बीबी उसे बहुत प्यार करती है| उन्होंने उसे बचपन से ही पाला-पोसा है| वह जनानखाने की सारी व्यवस्था करती है| जुबैदा उससे कई बार विवाह करने को कह चुकी है| अब उसने कहा, ‘एक व्यापारी है, आप अनुमति दे तो मैं उससे विवाह कर लूँ|’ तब बीवी ने उससे कहा, ‘यह तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन एक बार उस व्यापारी को देखने के बाद ही मैं शादी के लिए अनुमति दूँगी|’ इसलिए मैं तुम्हें लेने आया हूँ|”
मैंने कहा, “मैं तैयार हूँ| जब भी चाहो, मुझे ले चलो|”
उसने कहा, “ठीक है, लेकिन तुम जानते हो की खलीफ़ा के महल में कोई बाहरी आदमी नही जा सकता| मैं तुम्हें और किसी तरकीब से ले जाऊँगा| तुम शाम को नदी के किनारे बनी फलां मस्जिद में मेरी राह देखना|”
मैंने बड़ी प्रसन्नता से उसकी बात को स्वीकार कर लिया| शाम को मैं मस्जिद में जाकर बैठ गया| थोड़ी ही देर में एक डोंगी आकर किनारे से लगी| उसमें कई संदूक थे| मल्लाहों ने डोंगी किनारे से बाँधी और एक काफ़ी लंबा संदूक लाकर मस्जिद में रख दिया और नाव पर चले गए| नाव पर आया हुआ एक नौकर वही रह गया| कुछ देर में वही सुंदरी वहाँ आई|
मैंने कहा, “मेरे लिए क्या हुक्म है?”
वह बोली, “बाद में बातें होंगी, इस समय बात करने की फुर्सत नही है| तुम सिर्फ़ इस लंबे संदूक में जाकर लेट जाओ|”
मैं संदूक में लेट गया तो उसने संदूक, जिसमें मैं था, नाव पर पहुँचा दिया| वह सुंदरी भी नाव पर बैठ गई| मैं संदूक के अंदर पड़ा-पड़ा अपने भाग्य को कोसने लगा कि अच्छी-खासी जिंदगी छोड़कर किस मुसीबत में फँस गया|
नाव खलीफ़ा के महल के मुख्य द्वार के समीप जा लगी| सारे संदूक द्वार पर पहुँचा दिए गए| द्वारपालों के पास सारी चाबियाँ थी और देखे-भाले बगैर कोई चीज़ अंदर नही जा सकती थी|
मैं मन ही मन डरा कि कही ऐसा न हो कि वह संदूकों को खोलकर देखे और भेद खुल जाए| लेकिन प्रधान द्वारपाल उस समय सो रहा था| उसे जगाया गया तो वह बहुत झुँझलाया और कहने लगा, “सारे संदूक द्वारपाल को दिखाए बगैर अंदर ले जाओ|”
किंतु द्वारपालों ने ऐसा नही होने दिया| वे सारे संदूक प्रधान द्वारपाल के पास ले गए| सबसे पहले वही संदूक रखा, जिसमें मैं था| सुंदरी की प्रधान द्वारपाल से बहस होने लगी| मैं इस बहस को सुनकर अंदर-ही-अंदर सूखा जा रहा था| यह तो स्पष्ट ही था कि अगर मुझे संदूक में पाया गया तो खलीफ़ा मुझे मृत्युदंड अवश्य देंगे| लेकिन मेरी प्रेमिका ने प्रधान द्वारपाल को संदूक नही खोलने दिया| वह बोली, “तुम अच्छी तरह जानते हो की बेगम जुबैदा की आज्ञा के बगैर कोई चीज़ अंदर नही ले जाई जाती| इस संदूक में बड़े व्यापारियों का खरीदा हुआ बहुत ही कीमती और नाजुक सामान रखा है| तुम उसे निकलोगे तो वो सारी चीजें टूट-फूट जाएँगी| इसके अतिरिक्त एक पतले काँच के घड़े में मक्का से लाया हुआ जमजम का पवित्र जल है| वह काँच का घड़ा अगर टूट गया और अन्य वस्तुएँ नष्ट हो गई तो तुम्हें इसकी जबाबदेही करनी पड़ेगी और बेगम जुबैदा के हाथों तुम्हें कठोर दंड मिलेगा|”
प्रधान द्वारपाल इस बात से डर गया| वह चुप हो गया| सुंदरी ने गुलामों से सारे संदूक अंदर पहुँचाने के लिए कहा और उन्होंने ऐसा ही किया| किंतु अंदर जाकर भी मेरी मुसीबत खत्म नही हुई| संदूक को खोलने से पहले ही अचानक खलीफ़ा आ गया| उसने बहुत से संदूक देखकर पूछा, “इनमें क्या है?” और न जाने उसे क्या सूझी कि हुक्म दिया, “सारे संदूकों का सामान मुझे दिखाया जाए|”
सुंदरी ने बड़े बहाने बनाए, लेकिन खलीफ़ा टस-से-मस नही हुआ| विवशतः उसने एक-एक संदूक खोलकर दिखाना शुरु किया| मेरा संदूक इस आशा से आख़िर में खोलने को रखा गया कि शायद दो-चार संदूकों का माल देखकर खलीफ़ा चला जाए, किंतु वह आखिर तक डटा रहा और उसने अंतिम संदूक, जिसमें मैं बंद था, खोलकर दिखाने का आदेश दिया|
मित्रों! आप लोग सोच सकते है कि उस समय भय से मेरी क्या दशा हुई होगी| अगर कोई मझे काटता तो बदन से खून न निकलता| किंतु उस सुंदरी ने बड़ी समझदारी से काम लिया| उसने हाथ जोड़कर कहा, “सरकार! इस संदूक को खुलवाने का आग्रह न करे| इसमें बेगम जुबैदा के काम की ख़ास चीजें है| बेगम जुबैदा की की अनुमति के बगैर मैं इसे नही खोल सकती|”
खलीफ़ा ने हँसकर कहा, “अच्छा फिर इसे न खोलो|” यह कहकर वह चला गया| अब मेरी जान में जान आई|
सुंदरी ने सेवकों से सारे संदूक निवास कक्ष में पहुँचाए| जब सारे नौकर चले गए तो उसने मेरा संदूक खोला और एक जीना दिखाकर कहा, “ऊपर के कमरे में बैठों, मैं थोड़ी ही देर में आऊँगी|”
मैं ऊपर गया तो जीने का ताला लगा दिया गया| ताला लगाए दो क्षण भी नही हुए थे कि खलीफ़ा वहाँ आ गया और उसी संदूक पर बैठकर उस स्त्री से बहुत देर तक नगर के बारे में पूछताछ करने लगा| वह सुंदरी काफ़ी देर तक खलीफ़ा से वार्तालाप करती रही| जब खलीफ़ा अपने शयनकक्ष में चला गया तो वह ऊपर आई और बोली, “तुम पर मेरे कारण बड़े कष्ट पड़े, किंतु अब तुम आराम से रहो| सुबह बेगम जुबैदा के पास ले चलूँगी|”
फिर हम दोनों ने भोजन किया और वह चली गई|
मैं बड़े आनंद से उस भव्य प्रासाद में सोया| मुझे बड़ी प्रसन्नता थी कि यधपि यहाँ तक पहुँचने में बड़ी कठिनाइयाँ और ख़तरे उठाए, किंतु अब तो किसी बात का खटका नही है| मुझे यह भी खुशी थी कि इतनी सुंदर और बुद्धिमान स्त्री स्वयं मेरे प्रेम में ग्रस्त है| सुबह वह मेरे पास आई और मुझसे बोली, “चलो, मैं तुम्हें जुबैदा के पास ले चलती हूँ|” इसके साथ उसने मुझे खलीफ़ा की पत्नी से बातचीत और व्यवहार करने के तौर-तरीके भी बताए| उसने वे सभी संभव प्रश्न, जो जुबैदा मुझसे पूछ सकती थी, बताए और यह भी बताया कि उसका क्या उत्तर दूँ| उसने मुझे एक स्थान पर ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा, “जुबैदा अपने शयनगार से निकलकर यही बैठती है|” यह कहकर वह चली गई| वह कमरा इतना शानदार था कि मैं चकराया-सा खड़ा रह गया और आँख फाड़-फाड़कर चारों ओर देखने लगा|
सबसे पहले बीस दासियाँ आई| वे उस तख्त के सामने, जो जुबैदा के बैठने के लिए बिछा था, दो पंक्तियों में खड़ी हो गई| फिर बीस अन्य दासियों के मध्य हंसनी जैसी चाल से चलती हुई जुबैदा आई और तख्त पर बैठ गई| वह गहने और भारी पोशाकों से इतनी लदी हुई थी कि मंद गति से ही चल सकती थी| वह उसी रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठ गई| सब दासियाँ अपने उचित स्थान पर खड़ी हो गई और मेरी प्रेमिका, जो जुबैदा की खास मुसाहिब थी, बड़ी आन-बान से जुबैदा की दाहिनी ओर खड़ी हो गई| अब एक दासी ने मुझे इशारा किया कि झुककर सलाम करो| मैंने तख्त के आगे जाकर अपने सिर को इतना झुकाया की वह जुबैदा के पाँव से लग गया| मैं बराबर इसी दशा में रहा और सिर तभी उठाया, जब जुबैदा ने मुझसे उठने के लिए कहा| उसने मेरा नाम, पेशा, कुटुंब आदि के बारे में प्रश्न किए, जिनका मैंने यथोचित उत्तर दिया| जुबैदा मेरी शक्ल-सूरत देखकर और मेरी बातें सुनकर प्रसन्न हुई| उसने कहा, “मैं चाहती हूँ कि तुम्हारा विवाह अपनी मुहँ बोली बेटी से कर दूँ| मैं विवाह की तैयारियों के लिए आदेश देती हूँ| दस दिन बाद तुम्हारा विवाह हो जाएगा| दस दिन तक तुम इसी तरह होशियारी से रहो| इसी अवधि में मैं खलीफ़ा से तुम्हारे विवाह के लिए आदेश भी ले लूँगी|”
मैं जुबैदा से विदा लेकर अपने कमरे मे चला गया| मेरी प्रेमिका कई बार मौका निकालकर मेरे पास आती और बातचीत करके चली जाती| मैं बड़ी सुख-सुविधा से वहाँ रहने लगा| जुबैदा ने इस अवधि में खलीफ़ा से विवाह की अनुमति भी ले ली और शादी के समानों के लिए बहुत-सा धन दिया| रोज़ ही वहाँ गाना-बजाना और तरह-तरह के खेल-तमाशे होने लगे| दसवें दिन हम दूल्हा-दुल्हन ने नहा-धोकर मूल्यवान वस्त्र पहने| शाम को दासियों ने हम लोगों के सामने नाना प्रकार के व्यंजन खाने के लिए परोसे| एक रकाबी में वही लहसुन का व्यंजन था, जो आप लोगों ने मुझे खिलाया है| मुझे वह बहुत अच्छा लगा और मैंने अन्य चीज़ों के बजाय उसे अधिक खाया| दुर्भाग्य से खाने के बाद मैंने अच्छी तरह से हाथ नही धोए| यूँ ही रुमाल से हाथ पोंछ लिए|
रात और बीती तो दासियों ने वहाँ बहुत से दिए ओर मोमबत्तियाँ जलाई और देर रात तक नाच और गाना-बजाना होता रहा| जब रात काफ़ी ढल गई तो दसियों ने हम दोनों को शयनगार में पहुँचा दिया| मैंने अपनी पत्नी को जब गोद में खींचना चाहा तो वह बड़े क्रद्ध स्वर में चीखने-चिल्लाने लगी| सारी दासियाँ यह देखने के लिए दौड़ी आई कि क्या बात हो गई?
दासियों ने पूछा, “मालकिन! ऐसी क्या बात हो गई कि आप इतनी नाराज है? हमसे कुछ भूल हो गई हो तो बताएँ|”
मेरी पत्नी चीखकर बोली, “इस अभागे को मेरे पास से हटाओ|”
मैंने डरते हुए पूछा, “सुंदरी! ऐसा क्या अपराध मुझसे हुआ कि आप मुझे अपने पास से ही हटा रही है?”
उसने कहा, “तुम दुष्ट हो और असभ्य भी| तुमने लहसुन का पुलाव खाया है और हाथ भी अच्छी तरह नही धोए| ऐसे गंदे आदमी से मुझे हार्दिक घृणा है, तुम्हारे हाथों की बदबू से अभी तक मेरा दिमाग फटा जा रहा है|” यह कहकर उसने दासियों को आज्ञा दी कि मुझे ज़मीन पर गिराकर दबाए रहे|
दसियों ने ऐसा ही किया| उस सुंदरी ने हाथ में चमड़े का चाबुक लेकर मुझे मारना शुरू किया और तब तक मारती रही, जब तक खुद पसीने-पसीने न हो गई| फिर उसने दसियों से कहा, “इसे दरोगा के पास ले जाओ, ताकि वह इसका दाहिना हाथ, जिससे इसने पुलाव खाया था, काट डाले|”
मैं अपने मन में पश्चाताप करने लगा कि इतने छोटे से अपराध पर मेरा हाथ काट डाला जाएगा| इतनी मार मेरे लिए यथेष्ठ नही समझी गई| वह बावर्ची, जिसने उसे पकाया था और वह दासी, जिसने मेरे सामने वह रकाबी रखी थी, ऐसा करने के पहले ही क्यों न मर गए|
मेरी पत्नी की निष्ठुरता तो जैसी की तैसी रही, किंतु हर एक बांदी मेरी दशा से दुखी होने लगी| उन सभी ने मेरी पत्नी से कहा, “मालकिन! आप गुस्सा थूक दो| इसके अपराध और मूर्खता में संदेह नही, किंतु यह बेचारा तुम्हारी प्रतिष्ठा और तुम्हारी सुरुचि को क्या जाने| इसे काफ़ी की सज़ा मिल चुकी है| अब इसके अपराध क्षमा करो|”
वह बोली, “हरगिज़ नही| इसे ऐसी सज़ा मिलनी चाहिए कि यह हमेशा याद रखे कि लहसुन खाने के बाद हाथ धोना ज़रुरी होता है| इसके पास कुछ ऐसी निशानी होनी चाहिए, जिससे यह अपने अपराध को हमेशा याद रखे और फिर यह अपराध न करे|”
सारी दासियाँ भी उसके पीछे चली गई| मुझे उसी कमरे में बंद कर दिया गया| दस दिन तक मैं वहाँ बंद रहा| कोई दासी या नौकर-चाकर मेरी पत्नी के क्रोध के डर से मेरे पास फटकता भी नही था| सिर्फ़ एक बुढ़िया दिन में दो-एक बार आकर मुझे खाने-पीने के लिए कुछ दे जाती थी| एक दीन उससे मैंने अपनी पत्नी का हाल पूछा|
उसने कहा, “वह तो बीमार पड़ी है| तुम्हारे हाथ की लहसुन की बदबू उससे बर्दाश्त नही हुई| तुमने लहसुन का पुलाव खाकर हाथ क्यों नही धोए?”
मैंने कहा, “अब तो जो हो गया, वह हो ही गया|”
मैं सोचने लगा कि इन स्त्रियों की नजाकत की भी हद है और क्रोध की भी| फिर भी आश्चर्य यह था कि मेरे मन से उसका प्रेम न गया और मैं उसकी एक झलक पाने के लिए तड़पने लगा|
दस दिन बाद बुढ़िया ने बताया, “तुम्हारी पत्नी स्वस्थ हो गई है और नहाने के लिए हमाम को गई है| उसने कहा कि स्नान के बाद वह यहाँ आएगी| शायद आज न आ सके, लेकिन कल ज़रुर आएगी|”
दूसरे दिन वह मेरे पास आई, किंतु उसका क्रोध शांत न हुआ| वह बोली, “मैं तुझे प्यार करने को नही, दंड देने के लिए आई हूँ|” यह कहकर उसने फिर दासियों को आज्ञा दी कि मुझे ज़मीन पर गिरा दे| उन्होंने मुझे ज़मीन पर गिराकर अच्छी तरह दबा दिया और मेरी निर्दयी पत्नी ने छुरी लेकर मेरे दोनों हाथों और पाँवों के अँगूठे काट डाले| एक दासी ने तुरंत ही किसी विशेष वृक्ष की पिसी हुई जड़ी मेरे घावों पर लगा दी, जिससे खून बहना बंद हो गया, किंतु पीड़ा के कारण मैं अचेत हो गया| जब मुझे होश आया तो उन्होंने मुझे थोड़ी मदिरा पिलाई, जिससे मेरे शरीर में शक्ति आ गई|
मुझे फिर भी अपनी पत्नी की खुशामत करनी ही थी, क्योंकि उसकी कृपा के बगैर मेरी जान न बचती| मैंने उससे कहा, “अब मैं कभी ऐसा दुर्गंधयुक्त भोजन नही करूँगा और करूँगा भी तो एक सौ चालीस बार हाथ धोऊँगा|”
उसने कहा, “फिर मैं भी उस कष्ट को, जो तुम्हारे कारण मुझे हुआ है भूल जाऊँगी|”
अततः हम लोग आनंदपूर्वक पति-पत्नी की तरह रहने लगे| किंतु मुझे यह बड़ा कष्ट था कि शाही महल में मुझे छुपकर रहना पड़ता था| मेरी पत्नी मेरे कहे बगैर ही मेरे दुख को समझ गई और उसने एक दिन जुबैदा से यह बात कही तो उसने मुझे अलग घर में रहने के लिए पचास हज़ार अशर्फियाँ दी| मेरी पत्नी ने मुझे दस हज़ार अशर्फी देकर कहा कि नगर में कोई अच्छा-सा मकान खरीद लो, ताकि हम वहाँ आराम से रहे| मैंने शहर में एक अच्छा मकान खरीदकर उसे बहुमूल्य वस्तुओं से सजाया और कुछ दास-दासियाँ भी मोल लिए| फिर हम दोनों सुखपूर्वक रहने लगे|
कुछ समय के बाद मेरी पत्नी बीमार होकर मर गई| मैंने दूसरा विवाह किया| कुछ दिनों के बाद वह स्त्री भी मर गई| फिर मैंने तीसरा विवाह किया, किंतु मेरी तीसरी पत्नी भी काल-कवलित हो गई| तब मैंने विचार किया कि यह घर ही मनहूस है, इसमें नही रहना चाहिए| इसके अलावा लगातार तीन पत्नियों की मौत से मैं खिन्न भी था, इसलिए मैं इसमें रहना भी नही चाहता था| अतः मैं मकान बेच-बाचकर देश-विदेश के व्यापार को निकल गया| पहले फारस गया, वहाँ से समरकंद पहुँचा|
अनाज के व्यापारी ने यह कहकर बादशाह से पूछा, “कहानी कैसी है?”
बादशाह ने कहा, “तुम्हारी कहानी, पहले वाली कहानी से अच्छी है|”
तदुपरांत यहूदी हकीम ने कहानी शुरु की|