अंहकार
प्राचीन समय की बात है| महाविद्वान कवि कालिदास को अपनी विद्वता पर अहंकार हो गया| उन्होंने बहुत से अवसरों पर उसका प्रदर्शन भी किया|
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इस पर उन्हें उनके एक समकालीन कवि ने चेतावनी दी कि पहले मुझे हरा लो, फिर तुम्हें सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाएगा| कालिदास कई दिनों तक गहरे चिंतन में डूबे रहे| अंत में उनसे रहा न गया| अपने प्रतिद्वंदी को हराने के लिए वह पैदल चल पड़े| रास्ते में वह चलते-चलते थक गए| उन्होंने गाँव में कुएँ से पानी खींचती पनिहारिनों से पानी पिलाने को कहा| पनिहारिन पूछ बैठी- “कौन हो?”
कालिदास ने जवाब दिया- “मैं बलवान हूँ|”
पनिहारिन ने जवाब दिया- “अन्न और जल ही प्राणियों को शक्ति देते हैं असली बलवान वे ही हैं| तुममे- कौन सा बल है?”
कालिदास निरुत्तर होकर लौट आए| कुछ दिन बाद एक दूसरे रास्ते से अपने गंतव्य पर चले| फिर एक पनिहारिन ने परिचय पूछा| पिछले अनुभव का फायदा उठाकर कालिदास बोले- “मैं एक निर्बल आदमी हूँ|”
पनिहारिन ठठाकर हँसी| बोली- “तुम कैसे निर्बल हो? असल में निर्बल तो गाय और वनिता (महिला) होती है|”
कालिदास कुछ जवाब न दे सके| फिर अपने स्थान पर लौट गए| तीसरी बार अपने गंतव्य पर जाते हुए वह रास्ता भूलकर जंगल में भटक गए| एक झोपड़ी में एक वयोवृद्ध माता मिली| उसने कालिदास से पूछा- “भाई, क्यों जंगल में भटक रहे हो? कौन हो?”
कालिदास ने जवाब दिया- “एक मुसाफिर यात्री हूँ|”
बूढ़ी माँ बोल पड़ी- “तुम कैसे यात्री हो? असली यात्रा तो सूरज और चाँद हैं, जो कभी नहीं रुकते|”
कालिदास फिर निरूत्तर हो गए और अपने निवास स्थान पर लौट गए| उनका सारा अहंकार समाप्त हो गया था| उन्हें अनुभव हो गया था कि जब सामान्य महिलाओं को ही वह ठीक से उत्तर नहीं दे सके तो उस अज्ञान कुलशील कवि का कैसे मुकाबला करूँगा?
जीवन में विनम्र रहकर ही आदमी उन्नति कर सकता है| इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि अहंकारी मनुष्य को एक दिन नीचा देखन ही पड़ता है|