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अध्यात्म के लिए अहं त्यागें

बाइबिल में एक कथा है। एक कपूत घर छोड़कर भाग जाता है। उसके पिता के घर में सभी प्रकार की सुविधाएँ बहुलता से प्राप्त थीं। लालसा की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सब कुछ उपलब्ध था।

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एक बार जब उसके हृदय में और लालसा का प्रवेश हुआ तो वह दूर देश में चला गया और अभावों से ग्रस्त रहने लगा। जब भूखो मरने की नौबत आई, तब उसे पिता के घर लौटने की प्रेरणा हुई।

इस कथा का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य लालसा के दलदल में इतना बुरी तरह से फँस जाता है कि वह बेचैनी, असंतोष, अभावग्रस्त और पीड़ाग्रस्त हो जाता है। इसका एकमात्र उपचार है पितृ-गृह को लौटना। लालसा का परित्याग कर यथार्थ जीवन को प्राप्त करना।

वह मनुष्य इस स्थिति को तब तक प्राप्त नहीं कर सकता है, जब तक वह आध्यात्मिक दृष्टि से नाकारा नहीं हो जाता है। पहले लालसा के फलस्वरूप पीड़ा और दुःख भोगने के बाद शांति और आध्यात्मिक समृद्धि का जीवन पाने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। तब वह भौतिक इच्छाओं से मुँह मोड़कर बड़ी लगन और परिश्रम से यात्रा कर अपने घर की दिशा में वापस आ जाता है।

यदि आपको किसी भौतिक पदार्थ की आवश्यकता होती है- जैसे भोजन, वस्त्र, फर्नीचर या अन्य वस्तुएँ, तो आप किसी दुकानदार से यूँ ही नहीं माँग लेते हैं। पहले आप उसका मूल्य पूछते हैं और फिर उसे चुकाते हैं, तब कहीं जाकर वह चीज आपको मिल पाती है।

जितने मूल्य की चीज आपको लेनी है, उसी के अनुपात से मूल्य चुकाकर आप चीज को अपनाते हैं, वैसे नहीं। ठीक यही नियम आध्यात्मिक पदार्थों पर भी लागू होता है। यदि आपको किसी आत्मिक वस्तु की आवश्यकता है, जैसे आनंद, विश्वास, शांति या इसी तरह की कोई अन्य वस्तु आप प्राप्त करना चाहते हैं तो आप उसके समतुल्य अन्य कोई चीज देकर ही उसे प्राप्त कर सकते हैं।

आपको उसका मूल्य आवश्यक रूप से चुकाना ही होगा। जैसे हम किसी भौतिक पदार्थ को प्राप्त करने के लिए बदले में रुपया आदि देते हैं, उसी प्रकार आपको किसी आध्यात्मिक वस्तु की प्राप्ति के लिए कोई सूक्ष्म वस्तु मूल्य के रूप में चुकानी होगी।

अतः हमें लालसा, लालच, अहंकार या विलासिता को किसी हद तक इसके बदले में छोड़ना होगा, तभी जाकर आध्यात्मिक वस्तु की प्राप्ति होगी। कंजूस अपने धन से चिपटा रहता है। वह उसे किसी को नहीं देता, क्योंकि अपने धन को संभालने में उसे जितना सुख मिलता है, उतना किसी वस्तु को प्राप्त करने में नहीं मिलता है। अपार धन-संपदा होने पर भी वह निरंतर अभाव और कष्ट का जीवन व्यतीत करता है।

यक्ष का
धीरज