आदर्श बहू

एक सेठ था| उसके सात बेटे थे| उन सातों में छः का विवाह हो चूका था| अब सातवें बेटे का विवाह हुआ| उसका विवाह जिस लड़की से हुआ, वह अच्छे समझदार माँ-बाप की बेटी थी| माँ-बाप ने उसकी अच्छी शिक्षा दी हुई थी|

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उस घर में सबका भाव अच्छा था| सात भाई होने पर भी सभी एक साथ रहते थे| एक विलक्ष्ण बात यह थी घर की रसोई स्त्रियाँ ही बनाती थी| कोई रसोइया नही था|

स्त्रियाँ स्वयं रसोई बनाती है तो वे पति-पुत्र, सास-ससुर आदि को प्रेम से भोजन कराती हैं| परन्तु रसोइया रसोई बनाता है तो वह मजदूरी करता है| दूसरा न खाये अथवा कम खाये तो सोचना है कि रोटी थोड़ी बनानी पड़ेगी, आफत मिटी!

घर में छः जेठानियाँ थीं और सुबह-शाम बारी-बारी से रसोई बनाया करती थी| हरेक जेठानी की तीन दिन में बारी आया करती थीं| परन्तु उनमे खटपट रहती थी| कोई बीमार हो जाय तो दूसरी कहती कि मेरी बारी में तूने रसोई नही बनायीं, फिर तेरी बारी में मै क्यों बनाऊं? छोटी बहू आयी तो उसके भीतर बहुत उत्साह था| वह एक दिन स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर पहले ही रसोई में जा बैठी| जेठानी ने देखा तो कहा कि ‘बहू! तू रसोई क्यों बनाती है? रसोई बनाने के लिए हम कम है क्या?’ फिर भी छोटी बहू ने बड़े प्रेम से रसोई बनायी और सबको भोजन कराया| सब बड़े प्रसन्न हुए कि आज छोटी बहू ने बहुत बढ़िया रसोई बनायी!

सभी भाइयों के अलग-अलग कमरे थे| दिन में सास छोटी बहू के कमरे में गयी और उससे कहा कि ‘बहू! तू सबसे छोटी है, इसलिए सब तेरे से लाड़-प्यार रखते हैं| तू रसोई क्यों बनाती है? तेरी छहः जेठानियाँ हैं|’ छोटी बहू बोली-‘माँ जी! कोई भूखा अतिथि घर आ जाए तो उसको आप अन्न क्यों देते हो? सास बोली-बहू! इससे बड़ा पुण्य होता है| घर में कोई कोई भूखा आ जाय तो उसको भोजन कराना गृहस्थ का खास धर्म है|उसको तृप्ति होती है, सुख मिलता है तो देनेवाले को पुण्य होता है|’  छोटी बहू बोली- दूसरों को भोजन कराने से पुण्य होता है तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप होते हैं? मकान आपका, अन्न आपका, बर्तन आपके, सब चीजे आपकी हैं| मैं थोड़ी-से मेहनत करके रसोई बनाकर खिलाऊं तो मेरा पुण्य होगा कि नहीं होगा? सब भोजन करके तृप्त होंगे, प्रसन्न होंगे तो इससे कितना लाभ होगा! इसलिए माँजी, आप रसोई मेरे को बनाने दो|मै बैठी-बैठी करूंगी भी क्या? कुछ मेहनत करूंगी तो शरीर भी ठीक रहेगा, स्वास्थ्य ठीक रहेगा|’ सास ने ये बात सुनीं तो मन में सोचा कि बहू बात ठीक कहती है! हम इसको सबसे छोटी समझते हैं, पर इसकी बुद्धि भूत अच्छी है!

दूसरे दिन सुबह जल्दी ही सास रसोई बनाने बैठ गयी| बहुओं ने देखा तो बोलीं-माँजी! यह आप क्या करती हो? रसोई बनाने वाली बहुत हैं| आप परिश्रम क्यों करो?’ सास बोली-‘तुम्हारी अवस्था छोटी है, पर मेरी अवस्था बड़ी है| मेरे को जल्दी मरना है| मैं अभी पुण्य नहीं करूंगी तो फिर कब करुँगी?’ बहुएँ बोलीं-इसमें पुण्य क्या है? यह तो घरका काम है!’ सास बोली-‘घर का काम करने से पाप होता है क्या? जब भूखे व्यक्तियों को साधुओं, ब्राह्मणों को भोजन कराने से पुण्य होता है तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप होता है? उल्टे इसका तो व्यक्तिगत पुण्य होता है| घर की चीज सब घरवालों की होती हैं, इसलिए दान-पुण्य करने से सबको पुण्य होता है| परन्तु खुद मेहनत करके रसोई बनाई जाय तो अकेले रसोई बनाने वाले को पुण्य होता है| हमे बड़े-बूढ़े अभी पुण्य नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे?’ सास की बातें सुनकर सब बहुओं के भीतर उत्साह हुआ कि इस बात का हमने ख्याल ही नही किया कि घर  का काम करने से भोजन बनाकर सबको खिलाने से भी पुण्य होता है! यह युक्ति बहुत बढ़िया है! अब जो बहू पहले जग जाये, वही पहले रसोई बनाने बैठ जाय| आपस में खटपट होने लगी| एक कहती कि रसोई मैं बनाउँगी, दूसरी कहती कि मैं बनाउँगी! सेठ के पास यह बात पहुँची तो उसने कहा कि सब अपनी बारी बाँध लो और अपनी-अपनी बारी में रसोई  बनाओ|

पहले जब ‘रसोई तू बना, तू बना’-भाव था, तब छः बारी बंधी थी| अब ‘मैं बनाऊं’-यह भाव हुआ तो आठ बार बाँध गयी| दो और बढ़ गये-सास और छोटी बहू| काम करने में ‘तू कर, तू कर’- इससे काम बढ़ जाता है और आदमी कम हो जाते हैं, पर ‘मैं करूं मै करूँ’-इससे काम हलका हो जाता है और आदमी बढ़ जाते हैं| धनी आदमी घर के काम धंधे के लिए नौकर रखते हैं| नौकर कोई साधु-सन्यासी थोड़े ही होता है! उसका भी अपना कुटुम्ब होता है| वह अपने घर का काम करता है और  आपके घर का भी काम करके पैसे ले जाता है| परन्तु आप अपने घर का भी काम नही कर सकते है और बड़े कहलाते हो! आप बड़े हुए कि नौकर बड़ा हुआ?

छोटी बहू ने सोचा कि अब तो चौथे दिन बारी आती है, क्या किया जाय? घर में आटा पीसने की पुरानी  चक्की पड़ी थी| वह उसको अपने कमरे में ले आयी और आटा पीसना शुरू कर दिया| मशीन की चक्की का आटा गरम होता है और गरम-गरम ही बोरी में भर देने से जल जाता है, जिससे उसकी रोटी स्वादिष्ट नहीं होती| परन्तु हाथ से पिसा गया आटा ठंडा होता है और उसकी रोटी स्वादिष्ट होती है| चोटी बहू ने हाथ से आटा पीसकर उसीसे रोटी बनायी तो सब कहने लगे कि आज तो फूलके का जायका बड़ा विलक्ष्ण है!

सास ने छोटी बहू के पास जाकर कहा कि ‘बहू! तू आटा क्यों पिसती है? अपने पास पैसों की कमी नहीं है| भगवान् ने भूत दिया है!’ बहू ने कहा-माँजी! भले ही पैसा बहुत हो, पर आटा तो रोजाना मैं ही पीसूँगी| हाथ से आटा पीसने से शरीर ठीक रहता है| व्यायाम स्वतः हो जाता है| बीमारी नहीं आती| वैद्यों-डाक्टरों के चक्कर नहीं काटने पड़ते| दूसरी बात, रसोई बनाने से भी ज्यादा पुण्य आटा पीसने का है| रसोई चाहे कोई भी बनाये, आटा तो मेरा पिसा हुआ ही सब खायेंगे!’ सास ने और जेठानियों ने ये बातें सुनीं तो विचार किया कि छोटी बहू ठीक कहती है| उन्होंने अपने-अपने पतियों से कहा कि घर में चक्की ले आओ, हम सब आटा पीसेंगी| सब चक्की ले आये| सभी चक्की में रोजाना दो-ढाई सेर आटा पीसने लगीं|  आटा अधिक हो गया| अब अधिक आटे का क्या करें? छोटी बहू ने कहा कि अपनी दूकान में आटे की बिक्री कर दो| छोटी बहू की बात सबने मान ली यह जो कहती है, ठीक कहती है|

अब छोटी बहू के विचार करने लगी कि आटा पीसने का काम तो मेरे हाथ से गया, अब क्या करूँ? घर में कुआँ था| रोजाना सुबह एक नौकर पानी  भरने के लिए आता था| छोटी बहू ने सुबह जल्दी उठकर स्नान करके कुएँ से सब पानी भर दिया| नौकर आया तो उसने देखा कि सब बर्तनों में पानी भरा हुआ है| वह बैठ गया| सेठ आया तो बोला कि ‘बैठा क्यों है? पानी क्यों नहीं भरता?’ नौकर बोला-‘आप देखो, सब पानी पहले से ही भरा हुआ, मैं क्या करूँ?’ सेठ बोला कि पता लगाओ, पानी किसने भरा?’ सास ने छोटी बहू से पास जाकर कहा-‘बहू! पानी तूने भरा? बहू बोली-‘माँजी! आप चुप रहो, बोलो मत! आपके बोलने से मेरी कमाई चली जाती है! आपने बैशाख-माहात्म्य सुना है कि नही? बैशाख के महीने में पानी पिलाने का बड़ा ही माहात्म्य है| पानी पिलाने का जितना पुण्य हैं, उतना अन्न देने का नहीं है; क्योंकि की अन्न  तो दिन में एक-दो बार खाते हैं, पर पानी दिन में कई बार पीते हैं| पानी से स्नान करते हैं, कुल्ला करते हैं, हाथ-पैर धोते हैं| पानी ज्यादा काम में आता है|’

दूसरे दिन सास जल्दी उठकर कुएँ पर चली गयी और पानी खींचने लगी| दूसरी बहुओं ने देखा तो बोलीं-माँजी! यह आप क्या कर रही है? लोगों में हमारा मुँह काला होगा कि घर में इतनी बहुएँ  बैठी हैं और सास पानी भरती है!’ सास बोली-‘बूढ़ों को जल्दी मरना है, इसलिए उनको पहले काम करके पुण्य कमाना चाहिए| तुम लोग तो पीछे भी कर लोगी|’ अब सब बहुओं ने भी पानी भरना शुरू कर दिया| सेठ ने देखा तो कहा कि ‘नौकर निकम्मा बैठा है, इसको छुट्टी  दे दो|’ यह बात छोटी बहू ने सुनी तो सास के पास गयी और बोली-‘मेरी प्रार्थना सुनो, पिताजी से कहो कि नौकर को छुट्टी न दें| यह गृहस्थी आदमी है| बेचारे की कमाई होती है| इसको छुट्टी ने देकर दूसरे काम में लगा दें|’ इस बात का सास पर असर पड़ा कि छोटी बहू का कितना अच्छा भाव है! यह कितनी समझदार है!

अब छोटी बहू ने विचार किया कि रसोई भी सब बनाने लगीं, आटा भी सब पीसने लगीं, पानी भी सब भरने लगीं, अब मैं क्या करूँ? घर में जूठे बर्तन माँजने के लिए एक नौकरानी आया करती थी| छोटी बहू राख लेकर कोने में बैठ गयी और अपने सब बर्तन माँज दिये| नौकरानी दूर बैठी थी| सास ने देखा तो बोली-‘बहू! विचार तो कर| बर्तन माँजने से तेरा गहना  घिस जायेगा, कपड़े खराब हो जायेंगे, फायदा क्या होगा?’ छोटी बहू बोली-‘माँजी! ऐसी बात नही है| आप चुप रहो! सास बोली-बता तो सही, क्या बात है?’ बहू बोली-‘माँजी! जूठन उठाने का बड़ा माहात्म्य है| आपने महाभारत में कथा नहीं सुनीं? पांडवों ने यज्ञ किया तो सबसे पहले भगवान् कृष्ण का पूजन हुआ| उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण ने सबकी जूठी पत्तलें उठाने का काम किया| जितना छोटा काम होता है, उतना ही उसको करने का ज्यादा माहात्म्य होता है| अगर जूठन उठाने का ज्यादा माहात्म्य नहीं होता तो भगवान् यह काम क्यों करते?’

दूसरे दिन सास बर्तन माँजने के लिए बैठ गयी तो छोटी बहू ने कहा-‘माँजी! मेरी बात सुनो| इस  थाली-कटोरी-गिलास पर तो मेरा हक लगता है; क्योंकि ये मेरे पतिदेव के हैं| अतः इनको मै माँजूँगी|’ सास बोली-‘जा, तेरा पति तो पीछे है, मेरा  बेटा पहले है, इसलिए मैं माँजूँगी|’ इस तरह बर्तन माँजने के लिए खटपट होने लगी| आखिर सब बहुओं ने बर्तन माँजने शुरू कर दिये|

छोटी बहू विचार करने लगी कि अब मैं क्या काम करूँ? सुबह रोजाना झाड़ू लगाने के लिए  नौकर आया करता था| छोटी बहू ने सुबह जल्दी उठकर सब जगह झाड़ू लगा दिया|नौकर ने आकर देखा कि सब जगह झाड़ू लगा हुआ है तो वह बैठ गया| सास छोटी बहू के पास गयी और बोली कि ‘झाड़ू तूने लगाया है क्या?’ छोटी बहू बोली-‘माँजी! आप चुप रहो, बोलो मत| आप बोलती हो तो मेरे हाथ से काम चला जाता है!’ सास ने कहा-‘झाड़ू देने का काम तो नौकर का है, तू झाड़ू क्यों देती है?’ छोटी बहू ने कहा-‘माँजी! आपने रामायण नहीं सुनी क्या? वन में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि रहते थे, पर भगवान् उनकी कुटिया में न जाकर पहले शबरी की कुटिया में गये| कारण क्या था? शबरी रोजाना रात में झाड़ू देती थी, पम्पासर का रास्ता साफ करती थी, जिससे ऋषि-मुनियों के पैर में कंकड़ न चुभें| इसलिए  इस सेवा का बड़ा माहात्म्य है|’ सास ने देखा कि यह छोटी बहू सबको लुट लेगी! यह सबका पुण्य अकेले ले लेती है| अब सास ने और सब बहुओं ने झाड़ू लगाना शुरू कर दिया|

जिस घर में सबका आपस में प्रेम होता है, वहाँ लक्ष्मी बढ़ती है| जिस घर में कलह होता है, वहाँ निर्धनता आ जाती है|

जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना| जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना||

सेठ की दुकान में अधिक धन पैदा होने लगा| सेठ ने सोचा कि स्त्रियों के पास भी धन होना चाहिए| उसने घर की सब स्त्रियों के लिए गहने बनवा दिये| गहना स्त्रियों का धन होता है जिसमें पति का भी हक नही लगता| अब छोटी बहू ससुर से मिले गहने लेकर बड़ी जेठानी के पास गयी और बोली कि ‘आपके लड़का-लड़की  है| उनका विवाह करोगी तो गहना बनवाना पड़ेगा| मेरे तो अभी कोई लड़का-लड़की है नहीं| इसलिए इन गहनों का मैं क्या करुँगी? मेरे माता पिता मेरे  को खूब गहने दिये हैं, वे सब मेरे पास तिजोरी में पड़े हैं|’ सास ने देखा तो छोटी बहू के आस जाकर बोली- बहू! यह तुमने क्या करती हो? तेरे ससुर ने सबको गहने दिये हैं|’ छोटी बोली-‘माँजी! आप चुप रहा करो| आपको कोई बात कहना तो गांव में हल्ला करना है! काम-धंधा करने से पुण्य होता है तो क्या दान करने से पाप होता है? वस्तु देने का बड़ा महत्व है!’ सास को बहू की बात लग गयी| वह सेठ के पास गयी और बोली-‘मैं आपके नौकरों को मैं धोती साड़ी दूंगी|’ सेठ बहुत राजी हुआ कि पहले नौकरों को कुछ देते थे तो यह लड़ पड़ती थी, पर अब कहती हैं कि मै दूंगी! अब सास भी दूसरों को वस्तुएं देने लगीं बहुएं भी वस्तुएँ देने लगीं| घर में वस्तुए ज्यादा और आदमी हो गये कम! पुण्य के दो ही काम है-काम-धंधा खुद करना और वस्तुएँ दूसरों को देना| ये दो काम होने लगें तो घर में खटपट मिट जाय, शान्ति हो जाय| दूसरे लोग भी सोचते हैं कि कन्या देनी हो तो ऐसे घर में दो, जिससे वह सुख पाये| कन्या लेनी भी हो तो ऐसे घर की लो, जिससे हमारे घर में भी सुख-शान्ति रहे| साधु भी ऐसे घरों की भिक्षा लेना चाहते हैं|

गीता ने कहा है-

यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्त्देवेतरो जनः|
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते||

‘श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं| वह आचरण करते हैं| वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं|’

इस श्लोक में श्रेष्ठ मनुष्य के आचारण के लिए तो पाँच पद आये हैं-‘यत्’-‘यत्’, ‘तत्-तत्’ तथा ‘एव’, पर प्रमाण (वचन)-के लिये केवल दो पद आये हैं-‘यत्’ और ‘तत्’| इससे यह तात्पर्य निकलता है कि समाज पर मनुष्य के आचरणों का असर पांच गुना पड़ता है और वचनों का असर दो गुना पड़ता है| छोटी बहू ने आचरण किया, केवल व्याख्यान नही दिया| इसलिए उसका असर पूरे घर पर पड़ा, जिससे पूरे घर का सुधार हो गया| इतना ही नहीं, पड़ोसियों पर भी उसका अच्छा असर पड़ा, जिससे उनके घर में सुधर गये| एक घर का सुधार होने से अनेक घरों का सुधार हो गया!