जलंधर वध की कथा (भगवान शिव जी की कथाएँ) – शिक्षाप्रद कथा
एक बार इंद्र सहित देवताओं ने भगवान शिव की परीक्षा करनी चाही| वह देवों के गुरु वृहस्पति के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंचे| शिव ने अपनी आत्मिक शक्ति के बल पर जान लिया| कि ये लोग मेरी परीक्षा लेने आ रहे हैं| अतः उन्होंने एक अवधूत का वेश धारण कर लिया और उनके मार्ग में आ खड़े हुए| इंद्र ने उन्हें राह से हट जाने का संकेत किया| किंतु अवधूत वेशधारी शिव अपने स्थान पर खड़े रहे| यह देख इंद्र को क्रोध आ गया। बोले-“अरे हट रास्ते से जानता नहीं, मैं कौन हूं? हट जा, नहीं तो वज्र से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा|”
धमकी सुनकर अवधूत वेशधारी शिव को क्रोध आ गया। उन्होंने जोर से एक हुंकार भरी जिसे सुनकर चारों दिशाएं कांप उठीं| गुरु बृहस्पति तुरंत भांप गए कि अवधूत वास्तव में कोई और न होकर स्वयं भगवान शिव हैं| उन्होंने इंद्र को संकेत करके कहा-”क्या अनर्थ कर रहे हो सुरेंद्र ! तुम भगवान शिव को नहीं पहचान रहे हो| ये तो साक्षात भगवान शिव हैं|”
इंद्र को अपनी भूल का ज्ञान हुआ| वह तुरंत भगवान शिव के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा- “क्षमा करें भगवन ! मुझसे पहचानने में भूल हो गई|”
गुरु बृहस्पति ने कहा- हां प्रभु! देवेंद्र को क्षमा कर दीजिए| ये आपको पहचान नहीं पाए थे| अंजाने में ही इन्होंने आपको अपशब्द कह दिए| क्षमा कीजिए|”
गुरु बृहस्पति के अनुनय-विनय करने पर शिव ने इंद्र को क्षमा कर दिया| इस घटना के कुछ दिनों बाद एक विलक्षण चमत्कार हुआ| समुद्र तट पर गंगा सागर के किनारे एक बालक रेत में पड़ा रुदन कर रहा था| उसके गले से इतना प्रलयंकारी रुदन फूट रहा था कि उससे चारों दिशाएं कांपने लगीं| देव, दानव, दैत्य सब घबरा गए| वायु थम-सी गई| घबराए हुए देवता इंद्र सहित पितामह ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे कहा – “पितामह ! सागर संगम पर एक अद्भुत बालक रेत में पड़ा रो रहा है| वह इतनी जोर-जोर से रुदन कर रहा है कि देवों में भय छा गया है| कृपया चलकर इस संकट को दूर कीजिए|”
पितामह ब्रह्मा इंद्रादि देवताओं के साथ सागर संगम पहुंचे| पितामह के पहुंचते ही सागर अपने स्थान से निकला| उसने इंद्र सहित पितामह की वंदना की| ब्रह्मा ने सागर से पूछा – “जल में रेत पर पड़ा यह बालक कौन है? इसके रुदन को सुनकर समस्त संसार त्रस्त हो रहा है|”
सागर ने कहा- मैं नहीं जानता भगवन! एक दिन एक विलक्षण तेज लहरों में आ गया था| उसी से इस बालक की उत्पत्ति हुई है|”
यह कहकर सागर ने बालक को गोद में उठाया और ब्रह्मा की गोद में दे दिया| ब्रह्मा की गोद में आते ही बालक ने रोना बंद कर दिया और कुछ ही देर में अचानक बालक की बांहें आगे बढ़ीं, उसकी दोनों बांहों ने ब्रह्मा का गला पकड़ लिया| यह देख अन्य देवता स्तंभित हो उठे| ब्रह्मा ने अपना गला छुड़ाने का प्रयास किया किंतु बालक के हाथों की पकड़ और मजबूत हो गई| फिर अचानक बालक ने उनका गला छोड़ दिया और मुस्कुराने लगा| ब्रह्मा अपना गला सहलाते हुए बोले – “इस बालक का नाम क्या है सागर?”
सागर बोला – “अभी इसका नामकरण नहीं हुआ है! पितामह| आप ही इसका कोई नाम रख दीजिए|”
ब्रह्मा बोले – |मैं इसका नाम जलंधर रखता हूं| आज से यह तुम्हारा ही पुत्र कहा जाएगा|”
बच्चे का नामकरण करके सागर के हाथों में सौंपकर पितामह सहित सब देवता अपने अपने धाम लौट गए| बालक कुछ बड़ा हुआ तो पितामह की आज्ञा से आचार्य शुक्र ने उसे शिक्षा देनी आरंभ कर दी| देखते ही देखते बालक युवक बन गया| शुक्राचार्य ने उसे दैत्यों का सम्राट बना दिया और कालनेमि नामक एक असुर की वृंदा नामक कन्या से उसका विवाह कर दिया| जलंधर महाबलवान सिद्ध हुआ| देखते ही देखते उसने समस्त सागर के द्वीपों पर अपना शासन स्थापित कर लिया| उसकी पत्नी वृंदा ने हर मामले में उसके साथ सहयोग किया| वृंदा एक सती स्त्री थी| उसे ब्रह्मा का वरदान मिला हुआ था कि जब तक उसका सतीत्व कायम रहेगा, सुर-असुर, देव-दानव कोई भी उसके पति का बाल भी बांका नहीं कर पाएगा|
एक दिन आचार्य शुक्र जलंधर की राजसभा में पधारे| जलंधर ने आचार्य की चरण-वंदना की और उन्हें ऊंचे आसन पर बैठाकर पूछा – “आचार्य ! हमारे यहां एक राहु नामक वीर है| मैं जानना चाहता हूं कि उसका सिर क्यों कटा हुआ है|”
आचार्य शुक्र ने कहा – “दैत्यराज ! राहु का सिर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया था|”
जलंधर बोला – “मगर क्यों आचार्य ! राहु ने ऐसा क्या कसूर कर दिया था ?”
उत्तर में शुक्राचार्य ने उसे सागर मंथन की समस्त कथा सुनाकर कहा – “उसका अपराध यह था कि उसने देवताओं की पंक्ति में बैठकर धोखे से अमृत पान कर लिया था|”
जलंधर बोला – “तो इसमें क्या अपराध हो गया आचार्य! आखिर अमृत निकला भी तो दैत्यों और देवताओं के सम्मिलित प्रयास से ही था| फिर अकेले देवता ही उस अमृत को पी जाने के अधिकारी कैसे बन गए|”
आचार्य बोले – “इसमें भी विष्णु की छलनीति थी दैत्यराज! समुद्र से निकले समस्त रत्न देवराज इंद्र ले गए थे|”
यह सुनकर जलंधर क्रोधित होकर बोला – “मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगा| मेरे पिता के रत्नों का अधिकारी इंद्र नहीं, मैं स्वयं हूं| देवताओं को सागर के रत्न लौटाने ही पड़ेंगे|”
उसके बाद शुक्राचार्य तो वापस अपने स्थान पर चले गए और जलंधर ने घस्मर नामक दैत्य को बुलाकर इंद्रपुरी रवाना कर दिया ताकि वह इंद्र को यह संदेश दे आए कि सागर मंथन से प्राप्त सारे रत्नों को उसे सौंप दें| घस्मर इंद्रपुरी पहुंचा| उसने इंद्र से कहा – देवराज! मैं दैत्यराज जलंधर का एक संदेश लेकर उपस्थित हुआ हूं| दैत्यराज ने कहा है कि सागर मंथन के दौरान उसके पिता के जो रत्न आपने हथिया लिए थे, उन्हें तुरंत लौटा दें|” इंद्र ने आश्चर्य से कहा – “रत्न! कैसे रत्न! दैत्यराज से कहना कि वह रत्न तो देवों के परिश्रम के फल थे|”
सेवक बोला – “लेकिन परिश्रम तो देव और दानव दोनों ने ही किया था| फिर रत्न अकेले देवो के कैसे हो गए| सीधी तरह रत्नों को लौटा दो वरना इसका परिणाम बड़ा भयंकर होगा|”
यह सुनकर इंद्र क्रोधित होकर बोला – “तुम्हारा इतना साहस, मेरी पुरी में ही मुझे धमकाते हो| ठहरो पापी, मैं अभी तुम्हें इसका मजा चखता हूं|”
यह कहकर इंद्र ने अपना वज्र निकाल लिया लेकिन तभी आचार्य वृहस्पति ने उसे रोक दिया और उसे समझाते हुए बोले – “क्रोध में मत आओ सुरराज! यह दूत है और दूत अवध्य होता है| इसे जाने दो|”
घस्मर वापस जलंधर के पास पहुंचा और इंद्र द्वारा दिया गया उत्तर उसे कह सुनाया| सुनकर जलंधर आग बबूला हो उठा| उसने तुरंत चारों दिशाओं में स्थित दैत्यों के पास संदेश भिजवा दिया कि वे तुरंत इंद्रपुरी पर आक्रमण कर दें| साथ ही अपने सेनापतियों शुभ और निशुंभ के साथ इंद्रलोक पर चढ़ाई कर दी| शीघ्र ही दैत्यों की सेना इंद्र के नंदन वन में जा पहुंची और सैनिकों ने देवताओं का विध्वंस करना आरंभ कर दिया| दैत्यों के दल के दल अमरावती को नष्ट-भ्रष्ट करने में लग गए| दोनों पक्षों के वीरों की लाशें जमीन पर गिरने लगीं| आचार्य बृहस्पति देवों की ओर से और शुक्राचार्य दैत्यों की ओर से घायल और मृत वीरों का उपचार करने लगे और वे पुनः जीवित होकर युद्ध करने लगते| युद्ध चलता रहा| लेकिन किसी भी पक्ष को विजय नहीं मिल पा रही थी| इस पर जलंधर क्रोधित होकर शुक्राचार्य के पास पहुंचकर बोला “गुरुदेव! संजीवनी विद्या तो सिर्फ आप ही जानते हैं, फिर ये देवता मरकर जीवित कैसे हो रहे हैं?”
शुक्राचार्य बोले – “दैत्यराज! संजीवनी बूटी का उपयोग करना आचार्य बृहस्पति भी जानते हैं| उन्होंने कई देवता इसी काम पर लगा रखे हैं कि वे द्रोणागिरी से संजीवनी बूटी लाते रहें| यदि किसी तरह देवताओं द्वारा द्रोणागिरी से बूटी लाना रोक दिया जाए तो आचार्य बृहस्पति देवों को पुनः जीवित न कर पाएंगे|”
जलंधर बोला – “लेकिन हमें इस तरह से तो अपनी सेना का एक बड़ा हिस्सा द्रोणागिरी पर्वत की ओर ले जाना पड़ेगा और यहां तो भयंकर गति से युद्ध चल रहा है|”
शुक्राचार्य बोले – “तो फिर क्यों न द्रोणागिरी पर्वत को ही सागर में डुबो दिया जाए| न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी|”
शुक्राचार्य की बात सुनकर जलंधर अमरावती छोड़कर द्रोणागिरी पर्वत पर जा पहुंचा और अपने मंत्र बिद्ध बाणों से उसे समुद्र में डुबो दिया| इससे देवताओं को संजीवनी बूटी मिलनी बंद होने लगी| देवताओं में घबराहट फैल गई| इंद्र घबराता हुआ आचार्य बृहस्पति के पास पहुंचा| बोला – “हमारे वीर बड़ी संख्या में हताहत हो रहे हैं आचार्य! अब क्या होगा? इस तरह तो समस्त देवताओं का विनाश हो जाएगा|”
आचार्य बृहस्पति बोले – “मेरी सलाह मानो देवेंद्र! यह युद्ध तुरंत बंद कर दो और अपनी सेना सहित भागकर जान बचा लो| जलंधर भगवान शिव के तेज से पैदा हुआ है| उसमें भगवान शिव का अपार बल है| तुम अपनी जान बचाओ, बाद में कोई न कोई उपाय जलंधर को मारने का निकल ही आएगा|”
आचार्य बृहस्पति की सलाह मानकर देवता युद्ध छोड़कर भाग निकले और मेरु पर्वत की कंदराओं में जा छिपे| शुंभ-निशुंभ सहित दैत्यों की सेना ने उनका पीछा किया, किंतु देवता पहाड़ की गुफाओं में पहुंचकर अदृश्य हो गए| थक-हारकर दैत्यों की सेना वापस लौट पड़ी| जलंधर ने सारी अमरावती को लूट लिया और स्वयं इंद्र के सिंहासन पर बैठ गया| इंद्र मेरु पर्वत की कंदराओं से निकला और अपने साथियों के साथ भगवान विष्णु के पास पहुंचा| उसने भगवान विष्णु से प्रार्थना की – “रक्षा कीजिए प्रभु! जलंधर ने समस्त अमरावती तबाह कर दी है| हजारों देवता मारे गए हैं, स्वयं मैं भी मुश्किल से जान बचाकर यहां तक आया हूं|”
विष्णु ने इंद्र को आश्वासन देते हुए कहा – “घबराओ मत सुरराज! मैं स्वयं तुम्हारी सहायता को चलता हूं| जलंधर अब ज्यादा दिनों तक नहीं बच सकेगा|”
फिर विष्णु अमरावती जा पहुंचे| विष्णु के वहां पहुंचते ही देवताओं में नवीन स्फूर्ति का संचार होने लगा| वे शत्रु सेना पर प्रहार करने लगे| जलंधर बड़े प्रबल वेग से विष्णु के सम्मुख आ डटा| विष्णु जिस भी अस्त्र-शस्त्र का उस पर प्रयोग करते, जलंधर उन्हें तुरंत निष्फल कर देता| आखिर में विष्णु ने हार मान ली| बोला – “तुम वाकई वीर हो जलंधर! मेरे इतने अस्त्रों को भी तुमने निष्फल कर दिया| अब यह युद्ध बंद कर दो|”
जलंधर बोला – “यह युद्ध अब एक ही शर्त पर बंद हो सकता है देव| यदि आप मेरी बहन लक्ष्मी सहित मेरे द्वीपों पर मेरा आतिथ्य स्वीकार करें|”
विष्णु ने जलंधर की शर्त स्वीकार कर ली| जलंधर के आदेश पर युद्ध बंद हो गया| भगवान विष्णु लक्ष्मी सहित सागर द्वीपों पर पहुंचे| जलंधर अमरावती की सारी संपदा को अपनी राजधानी ले आया और बड़े प्रेम से भगवान विष्णु की आतिथ्य सेवा करने लगा|
एक दिन देवर्षि नारद उनकी सभा में पधारे| जलंधर ने उनका स्वागत-सत्कार किया| नारद जी बोले – “दैत्यराज! इस समय समस्त ऐश्वर्य तुम्हें उपलब्ध हैं| किंतु एक चीज की कमी है|”
जलंधर बोला – “कमी, किस चीज की कमी है देवर्षि! सब कुछ तो मेरे पास मौजूद है|”
नारद बोले – “एक ऐसी सुंदरी की कमी है, जो सुंदर होते हुए भी सर्वगुण संपन्न हो| हालांकि तुम्हारी पत्नी वृंदा स्वयं भी बहुत सुंदर है किंतु शिव की पत्नी पार्वती की बात ही कुछ और है|”
जलंधर बोला – “यदि ऐसा है तो देवर्षि मैं पार्वती को जरूर अपनी पत्नी बनाऊंगा| मैं आज ही अपनी सेना को कैलाश पर चढ़ाई करने का आदेश देता हूं|”
मतिमंद जलंधर अपनी सेना लेकर कैलाश पर्वत पर टूट पड़ा| उसकी सेना और शिव गणों में भयंकर युद्ध छिड़ गया| आखिर शिव के गण युद्ध भूमि छोड़कर भाग निकले| विवश होकर भगवान शिव को युद्ध भूमि में जाना पड़ा| अपने स्वामी की उपस्थिति में शिव गणों का उत्साह बढ़ गया| वे तीव्र वेग से दैत्य सेना पर टूट पड़े और उनका संहार करना शुरू कर दिया| शिव जलंधर के सम्मुख आ डटे| दोनों में विकट युद्ध छिड़ गया|
दूसरी ओर भगवान विष्णु अपनी कुछ और ही माया रच रहे थे| जलंधर की पत्नी वृंदा एक महान पतिव्रता नारी थी| विष्णु ने जलंधर का वेश धारण किया और उसके शयनागार में जा पहुंचे| उन्होंने वृंदा का आलिंगन किया| लेकिन वृंदा को यह आभास हो गया कि उसके पति का वेशधारी यह व्यक्ति उसका पति नहीं है| अतः कड़ककर बोली – “कौन है तू?”
विष्णु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए और हंसते हुए बोले – “मुझे बहुत खेद है वृंदा! लेकिन ऐसा करना आवश्यक हो गया था| तेरा पति तेरे ही कारण अजेय था| अब उसे मारने में भगवान शिव को कोई परेशानी नहीं होगी|”
वृंदा रोते हुए बोली – “आपने मेरे साथ ऐसा विश्वासघात क्यों किया प्रभु! मेरे पति ने तो आपके आतिथ्य सत्कार में भी कोई कमी नहीं छोड़ी थी|”
भगवान विष्णु ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा – “तुम वास्तव में ही एक पूज्य नारी हो वृंदा! लेकिन हर आतताई का एक न एक दिन अंत होता ही है| तुम्हारे पति के पापों का घड़ा भर चुका है| उसका अंत समय निकट आ पहुंचा है| मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि आज से सारे संसार में तुम पूजी जाओगी| स्त्रियां तुम्हारी पूजा किया करेंगी|”
पश्चाताप की अग्नि में जलती हुई वृंदा अग्नि में कूद पड़ी और देखते ही देखते भस्म हो गई| उसके शरीर का तेज निकलकर पार्वती के शरीर में प्रविष्ट हो गया| देवताओं ने पुष्प वर्षा की|
वृंदा के अग्नि में भस्म होते ही जलंधर का तेज घट गया| भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से उसका मस्तिष्क काट दिया| जलंधर के मरते ही उसका वह तेज, जिससे वह आज तक अजेय था, शिव के शरीर में प्रविष्ट हो गया| दैत्य सेना घबराकर भाग निकली|
देवताओं ने शिव की ‘जय-जयकार’ की| इंद्र ने पुनः अपना सिंहासन प्राप्त कर लिया और कुछ काल बाद सर्वत्र अमन चैन व्याप्त हो गया|
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